क्या भारत कभी कट्टर हिन्दू राष्ट्र बन सकता है?
हिन्दू-राष्ट्र
क्या कभी हिन्दू-पाकिस्तान बन सकता है ? यह विवाद उन भ्रांतियों की श्रृंखला की अगली कड़ी है जिसका निर्माण भारत के विभाजन से ही आरम्भ हो गया और शनैः शनैः भारत के मस्तिष्क पर जाल की तरह फ़ैलाने का प्रयास किया जा रहा है। अगर ऐसा होना ही होता तो हिन्दू-हिंदुस्तान उसी दिन बन जाता जब धर्म पाकिस्तान बनने का आधार बना। जैसा विश्वास बनाया जा रहा है क्या कभी कट्टर हिन्दू राष्ट्र हो सकता है तो उन को ज्ञात होना चाहिए कि हिन्दू और कट्टरता ही एक साथ नहीं हो सकते तो कट्टर हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना ही आधारहीन है।
हिन्दू धर्म की धुरी आध्यात्मिकता है धार्मिकता नहीं। आध्यात्मिकता का अर्थ है ‘आत्म अध्यन’ अर्थात आत्मा का ज्ञान। परमात्मा त्रिलोकी शक्ति तो है लेकिन अप्राप्य नहीं। उसका रचेयता रूप भी पूजनीय है और उसका विनाशक रूप भी। परन्तु धर्म कहीं भी उससे भयभीत नहीं करता। वेदों के अनुसार वो जीव के भीतर ही अदृश्य और गुप्त शक्ति भी है जिसे अपनी आत्मा को जागृत कर प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए परमात्मा भक्त के अधीन हैं। आध्यात्मिकता का गंतव्य जिज्ञासु की आत्मा को उदात्त कर उस स्तर तक ले जाना है जहाँ वो ‘अहम् ब्रह्म अस्मि ‘ की स्थिति का अनुभव कर सके। उस स्थिति में परमात्मा का भय कैसे होगा वहाँ तो अभय है। इस स्थिति में घृणा भी कैसे हो सकती है तो कोई ‘काफ़िर, अपवित्र, अधर्मी ‘ की भी धर्म आधारित परिभाषा नहीं। तो अधर्मी उसे कहा जा सकता है जो परमात्मा के अस्तित्व में नहीं मानता। लेकिन हिन्दू धर्म में उसे अधिक से अधिक अज्ञानी कहा जा सकता है, जिसे आत्म ज्ञान नहीं। क्योंकि परमात्मा का अस्तित्व तो उसे आत्मा के मार्ग से खोजना है किसी बाहरी परिचय से नहीं।
तो उनका क्या जो हिन्दू रीतियों को नहीं मानते। इसका उत्तर इस प्रश्न में है की क्या ‘हिन्दू रीतियाँ ‘ हैं। क्या सभी हिन्दू एक से रीति-रिवाज़, नियमों का पालन करते हैं? अधिकतर हिन्दू त्यौहार प्रान्त, ऋतु, समुदाय पर केंद्रित हैं। पूजा के भी विशेष नियम नहीं और सब पर बाध्य भी नहीं। धर्म श्रद्धा का सम्मान करना अवश्य सिखाता है। और इस तरह श्रद्धा को उच्चतर बताता है कि श्रद्धा पत्थर में भी भगवान को प्रकट कर सकती है। श्रद्धा आध्यात्मिक ध्यान योग ही तो है जो वास्तव में आंतरिक आत्मिक शोध की ओर अग्रसर करती है। हिन्दू मान्यता में तो कोई भगवान को नियम से गाली भी देता है तो उसे भी अन्ततः भगवान का बोध हो जाता है। फिर इस धर्म में काफ़िर शब्द के लिए कोई समानार्थ शब्द है ही नहीं। बस जो परमात्मा के अस्तित्व को नहीं स्वीकारता उसके कर्मों का कोई मार्गदर्शक नहीं और कर्म ही हमारी नियति तय करते हैं, तो नियति में भटकाव तय है। प्रकृति के क्रोध से हमें अनुभव हो जाना चाहिए कि जो कर्म हम करते हैं वो निश्चित हम पर वापिस आते हैं। परमात्मा और केवल परमात्मा की शरण हमारे कर्मों द्वारा जनित नियति में परिवर्तन करने में सक्षम हैं। यह सम्पूर्ण समर्पण ही है हिन्दू धर्म दर्शन। अध्यात्म हमें परमात्मा की रचना का सम्मान करना सिखाता है।
फिर अधर्म क्या है? धर्म-युद्ध क्या है? किस अधर्म की अति पर अति-मानवीय शक्ति के जागृत होने की आवश्यकता होती है? वैदिक अधर्म मुख्यतः छः हैं -विष देना , घात लगाना, पर-स्त्री का हरण, संपत्ति चुराना, आग लगाना और विश्वासघात। क्या विश्व-भर के संविधान इन अपराधों को दण्डनीय नहीं मानते ?क्या कोई धर्म है जो इनको दण्डनीय नहीं मानता? यहाँ धर्म का आधार निष्ठा से किया कर्म है और अधर्म का आधार भी कर्म ही है। जब जब धर्म की हानि होगी तो भगवान को आना होगा। जब जब धर्म पर अधर्म हावी होगा अथवा धर्म और अधर्म के बीच का अंतर ऐसा धूमिल हो जाएगा कि अधर्म मान्य व्यव्हार बन जाए तो आत्मा को उस नए प्राकृतिक व्यव्हार से उठ कर अपने शुद्ध रूप की खोज करनी होगी। उसे आत्मा को परमात्मा की शरण में ले जाना होगा क्योंकि दूषित लौकिक ज्ञान से विशुद्ध परलौकिक ज्ञान ही उबार सकता है जिसे भूतकाल में ऐसी ही भूल का परिणाम स्मरण हो और भविष्य में ऐसी ही भूल के होने वाले प्रभाव का सुस्पष्ट अनुमान हो। क्योंकि ऐसी ही आत्मा वर्तमान की घटनाओं का निष्कपट विश्लेषण कर सकती है और भूतकाल को वर्तमान की सीख बना कर भविष्य के घटना चक्र में परिवर्तन ला सकती है। यह ज्ञान जन्मों के बंधन से मुक्त आत्मा को परमात्मा की ही देन हो सकता है। यह लौकिक ज्ञान की रात्रि ही जिज्ञासु की सवेर होती है। यही तो गीता में भगवान कृष्ण, असंजस से जाग रही आत्मा अर्जुन को समझाते हैं।
फिर अहिन्दु कौन हुए? वो सब जो आत्म-ज्ञान के जिज्ञासु नहीं, वो सब जो अधर्म को धर्म मानते हैं और वो सब जो प्राकृति के विरुद्ध चलते हैं, वो सब जो दूषित ज्ञान से पार नहीं पाना चाहते। फ़िर तो यह विवाद मानवीय-राष्ट्र और अमानवीय-राष्ट्र का हो गया। क्योंकि अहिन्दू होने का अर्थ उन सभी मूल्यों को नकारना हुआ जिन्हें मनुष्य ने सभ्यता के विकास के साथ-साथ अपने अनुभवों से सीखा और भविष्य की पीढ़ियों के लिए ग्रंथों में दर्ज किया। क्या चारों वेद, उपनिषद, रामायण, गीता, धार्मिक ग्रन्थ हैं या जीवन दर्शन। वेदों, ग्रंथों को धार्मिक पुस्तक बता उनके पठन-निषेध करना, किसी भी समाज का अपने लोगों पर अन्याय है। वो सीमित ज्ञान की थाती अपनी पीढ़ियों को सौंपना चाहते हैं। जब राजसी भूख इतनी बढ़ जाए कि अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए सम्पूर्ण प्रजा को तामसिक व्यव्हार, व्यभिचार में धकेल दे तो इससे बड़ा विश्वासघात कोई हो ही नहीं सकता।
तथ्य तो यह है कि हिन्दू धर्म इतना व्यापक है कि किसी पद्धति-पुस्तक, नियमावली, किसी भूरेखा की परिधि में समा नहीं सकता। जहाँ जहाँ जीव है, आत्मा के परमात्मा तक उदात्तीकरण की जिज्ञासा है, प्रकृति के प्रति सम्मान है, परमात्मा के प्रति, परमात्मा की हर रचना के प्रति श्रद्धा है, मानवीय मूल्यों को बनाए रखने का उत्साह है, वहाँ-वहाँ हिन्दू दर्शन है। जो भी इस दर्शन को किसी भी दृष्टिकोण से परिभाषित करने का अथवा आलोचना करने का प्रयास करता है वो कहीं न कहीं धर्मान्धता और आध्यात्मिकता के भेद से अनभिज्ञ है और अपनी अच्छादित आत्मा के ऊपरी आवरण से हतप्रभ है। हिन्दू धर्म के विचारक हो सकते हैं, इस दर्शन के अनुयायी हो सकते हैं लेकिन इस धर्म पर अधिपत्य कोई नहीं जता सकता और आलोचक की अनभिज्ञता और अज्ञान उसका चुनाव है।
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