माघी मेला और लोहड़ी न केवल सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बल्कि ऐतिहासिक रूप से भारतवर्ष के अतिमहत्वपूर्ण त्यौहार हैं।
माघी मुक्तसर दी (Makar Sankranti & Lohri in Punjab)
मकर सक्रांति पूरे भारत-वर्ष में विभिन्न कारणों से हर्षोल्लास से मनाई जाती है। और भुज का मकर-सक्रांति मेला विश्व-प्रसिद्ध है। लेकिन एक और मकर-सक्रांति मेला है जो न केवल सांस्कृतिक पक्ष से महत्व रखता है बल्कि ऐतहासिक पक्ष से भी बहुत महत्वपूर्ण है, वो है मुक्तसर का माघी मेला। मुक्तसर पंजाब पाकिस्तान की फ़ज़िल्का वाली सीमा से करीब 35 किलोमीटर के भीतर है और अब यह एक ज़िला मुख्यालय है। इस मेले की इस वर्ष प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि इस वर्ष हम श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का 350वा प्रकाश-उत्सव मना रहे हैं और इस स्थान पर उनके अंतिम महायुद्ध को स्मरण किये बिना उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि अधूरी रहेगी।
गढ़ी चमकौर में मुगलों से पराजित होने के पश्चात् 40 सैनिकों नें गुरु साहिब से अपना नाता तोड़ते हुए उनको बेदावा लिख कर दिया कि न हम आपके सिख न आप हमारे गुरु। लेकिन जब यह सिख अपने-अपने घर पहुँचे तो उनके सम्बन्धियों नें और उनकी पत्नियों ने उनपर कटाक्ष किये। गुरु साहिब मुग़लों पर हमला बोलने के लिए उचित स्थान की तलाश करते हुए खिदराने-की-ढाब (मुक्तसर का पुरातन नाम ) पहुंचे। वहीँ पर यह 40 सिख माई भागो जी (माई भाग कौर) की प्रेरणा से उन्ही के नेतृत्व में गुरु साहिब को तलाशते हुए पहुंचे। उनका सामना मुग़ल फ़ौज से हो गया और उनके बीच महायुद्ध हुआ। गुरु साहिब एक टिब्बी (छोटा टीला जहाँ अब गुरुद्वारा श्री टिब्बी साहिब स्थित है ) से अपने सहयोगियों के साथ मुग़ल सेना पर तीर बरसाने लगे। उन्होंने वहां का इकलौता जल स्रोत अपने कब्ज़े में कर रखा था। और सिख फ़ौज को आदेश दिया कि अपने अन्तः वस्त्र इस तरह सुखाये कि दूर से बड़ी फ़ौज के तम्बू लगें। हालाँकि यह युद्ध 29 दिसम्बर 1705 को हुआ लेकिन उस वक़्त खिदराने की ढाब एक रेतीला और बियाबान इलाका था। मुग़ल फ़ौज भारी युद्ध, भीषण गर्मी और प्यास से अक्रान्त हो गयी। आखिरकार विजय खालसा फ़ौज की हुई और मुग़ल मैदान छोड़ भाग खड़े हुए। लेकिन इस युद्ध में बहुत सिख शहीद हो गये। जब गुरु साहिब सेना के पास पहुंचे तो गंभीर रूप से ज़ख़्मी माई भागो जी ने बताया कि कैसे 40 सिख उनके लिए लड़ते हुए शहीद हो गए। उनमें से एक भाई महा सिंह जी अपनी अंतिम साँसे गिन रहे थे। गुरु साहिब ने उनका सर गोद में ले लिया और उनसे उनकी अंतिम इच्छा पूछी। उसने उनसे बेदावा फाड़ देने का निवेदन किया। गुरु साहिब ने तुरंत बेदावा फाड़ 40 सिखों को रोष से मुक्त किया और भाई महा सिंह ने प्राण त्याग दिए। मुक्तसर का नाम उन्ही 40 मुक्तों की याद में रखा गया और माघी का मेला उन्ही को समर्पित है। माई भागो बच गईं और गुरु साहिब के शेष जीवन उनकी सेवा में रही। इसके बाद गुरु साहिब को टिब्बी पर दातुन करते हुए एक पठान ने छुरा मार दिया (गुरुद्वारा दातुनसर गुरुद्वारा टिब्बी साहिब में ही है)। नादेड साहिब में इसी ज़ख्म के टाँके खुलने से गुरु साहिब महा-निर्वाण को प्राप्त हुए। बेदावा फाड़ने वाले स्थान पर गुरुद्वारा श्री टूटी गंडी साहिब का निर्माण हुआ जिसका अर्थ है -टूटे नाते जोड़ने वाला और इसीके भीतर गुरुद्वारा तम्बू साहिब है जहाँ सिख फ़ौज ने वस्त्र सुखाए थे।
वैसे तो शहर में मेले की रौनक़ 15 दिन तक बनी रहती है लेकिन मुख्य आयोजन मकर सक्रांति वाले दिन होता है। मकर सक्रांति से एक रात पहले सारे पंजाब में सामूहिक अलाव जला कर लोहड़ी का पर्व मनाया जाता है। लोहड़ी का आयोजन मोहल्ले वाले मिल कर, या जिसके घर नया बच्चा जन्मा हो या नई बहू आई हो वो घर करता है। लोहड़ी में जहाँ तक लोगो को स्मरण है एक नेक-दिल डाकू दुल्ला भट्टी को महिमा मंडित करते हुए गीत गाते हैं। दुल्ला भट्टी अमीरों को लूटता और गरीबों की सहायता करता था। जिन गरीब लड़कियों को जमींदार उठा ले जाते उनकी शादियाँ करवाता था। ऐसी लड़कियों में सुंदरी और मुंदरी भी थीं। तभी गीत में उनका ज़िक्र मिलता है।
सुन्दर मुंदरिये हो (सुन्दर मुंदरिये )
तेरा कौन विचारा हो (तुम्हारा कौन शुभ- चिंतक है )
दुल्ला भट्टी वाला हो (दुल्ला भट्टी वाला)
दुल्ले दी धी वियाही हो (दुल्ला ही बेटी बना के शादी कराएगा )
सेर शक्कर पाई हो (और दहेज़ भी देगा / झोली भरेगा)
कुड़ी दा सालू पाटा हो (लड़की की सर की चादर फटी है )
सालू कौन समेटे हो (उस चादर को कौन समेटेगा )
दुल्ला भट्टी वाला हो (दुल्ला भट्टी वाला और कौन )
पा माई लोहड़ी , जीवे तेरी जोड़ी (हे माई हमें लोहड़ी दे और भगवान तुम्हारी जोड़ी बनाए रखे )
ऐसा गीत गाते हुए, हफ्ता पहले से गरीब बच्चे घर-घर और परिवार के बच्चे अपने बड़ों से लोहड़ी माँगते हैं। लोग गरीब बच्चों को ईंधन, मूंगफली, रेवड़ी, गजक और पैसे दान देते हैं। लोहड़ी की अग्नि को तिल और मूंगफली, रेवड़ी अर्पित करते हुए बोलते हैं -“इस्सर आ, दलिद्दर जा, दलिद्दर दी जड़ चूल्हे पा” (स्फूर्ति आये, सुस्ती भागे, जो भी सुस्ती का कारण हो, उसे इस अग्नि में जड़ से भस्म कर दो) और फिर उस अग्नि पर मूली और गन्ने वारे जाते हैं क्योंकि एक तो यह गन्ने की कटाई का समय है और इस फ़सल के लिए ईश्वर को धन्यवाद् किया जाता है। दूसरा गन्ना और मूली दोनों पत्ते से जड़ तक अपने आप में सम्पूर्ण पौधे हैं तो अग्नि देव से पूरे परिवार की सर से पैर तक स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना की जाती है। मूंगफली, रेवड़ी को प्रसाद की तरह आस-पास लोगों में बांटा जाता है। गन्ना और मूली परिवार के सदस्य खाते हैं। लोहड़ी के ही दिन सरसों का साग पकाया जाता है जिसको अगले दिन मकर-सक्रांति के दिन खाते हैं। जिसको कहते हैं -पौह पकाया ,माघ खाया – जिसका अर्थ है कि इस ठण्ड में साग को एक माह बाद भी खाओ तो ताज़ा ही लगेगा। यह बासी खाना खाने की अनुमति बासरिये (होली के अगले मंगलवार) तक रहती है।
मकर सक्रांति के दिन, हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में भी निहंग-सिँघों के जत्थे और आस-पास के गांवों से भी लोग आ कर सुबह-सुबह पौ फटने से पहले गुरुद्वारा साहिब के पवित्र सरोवर में डुबकी लगाते और कीर्तन का आनंद लेते हैं। निहंग आज भी गुरु साहिब की सजाई खालसा फ़ौज की तरह वेश धारण करते हैं और खानाबदोश जीवन यापन करते हैं। इसी दिन बड़े-बड़े राजनितिक दल यहाँ पर रैलियां करते हैं। लोग अपने घरों में गन्ने के रस और चावलों की खीर या गुड़ वाले चावल बनाते हैं और सूर्य को अर्घ्य दे खिचड़ी दान करते हैं।
इस मेले का औपचारिक समापन अगले दिन मोहल्ला निकलने से होता है जब पवित्र गुरु ग्रन्थ साहिब और पंज-प्यारों की अगुवानी मे निहंग-सिँघों के अलग-अलग दल गत्का प्रदर्शन करते हुए नगर कीर्तन निकालते हुए अपने-अपने स्थान के लिये विदा होते है।
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