Yoga in the contemporary global context

We must understand the history of flow of ideas and practices from India to the west to be able to accurately situate Yoga in the contemporary globalized world.

Below is the transcript of the lecture translated to Hindi by Prahari (Twitter: @Sab_Mile_Hue)

संचालक:

सभी को नमस्ते एवं गुड मॉर्निंग। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं आज आप लोगों के समक्ष एक ऐसे महानुभाव को आमंत्रित करने जा रहा हूँ जिनके विचारों ने पिछले कुछ सालों में मुझे काफी प्रभावित किया है। मैं श्री राजीव मल्होत्रा जी को आज के मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करता हूँ। राजीव जी एक प्रबुद्ध विद्वान, सफल लेखक और वक्ता रहे हैं। व्यापार में सफल कैरियर के बाद उन्होंने अपना जीवन धर्म सनातन परंपराओं एवं पश्चिमी परम्पराओं के अध्ययन में समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने प्रिंसटन, न्यू जर्सी में इन्फिनिटी फाउंडेशन स्थापित करी; इस फाउंडेशन ने कई विद्वत्तापूर्ण परियोजनाओं को प्रायोजित किया। इन परियोजनाओं के द्वारा    प्राचीन भारत की कई परम्पराओं का अध्ययन किया गया जिन्हें पहले करीब करीब भुला दिया गया था। इसके अलावा इस फाउंडेशन ने विभिन्न पंथों के तुलनात्मक अध्ययन एवं सनातन धर्म के बारे में कई अनछुए विषयों पर शोध करवाया।

राजीव जी ने अभी तक पांच पुस्तकें लिखी हैं और उनकी सभी पुस्तकों ने सबसे अधिक बिकने के रिकार्ड बनाये हैं। उनके दो नवनीतम पुस्तकें हैं: “दी बैटल फॉर संस्कृत” एवं “अकादमिक हिन्दुफोबिया”। आप सबसे अनुरोध है कि फिलाडेल्फिया की परम्परा के अनुसार राजीव जी का ज़ोरदार स्वागत करें।

राजीव मल्होत्रा:  

नमस्ते। मैं आज यहाँ, इस महत्वपूर्ण दिन आप लोगों के समक्ष आकर बहुत ही प्रसन्न हूँ। मैं आयोजकों को भी इस उत्तम प्रबंध के लिए धन्यवाद देता हूँ। आज का विषय यह है कि आधुनिक विज्ञान, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रीयता जातीयता आदि के बीच हम योग को कहाँ व्यवस्थित करें? मैं आज कुछ विवादों पर भी अपना पक्ष रखना चाहता हूँ और उम्मीद रखता हूँ कि मेरे इस प्रयत्न से एकजुटता ही आएगी क्योंकि योग का तो अर्थ ही जुड़ना है। इसलिए मैं विभिन्न मुद्दों पर बात करूंगा ताकि हम कोई हल निकाल सकें। कुछ मुद्दे बार बार उठाये जाते हैं: क्या योग भारतीय है? क्या योग “हिन्दू” है?

आप देखेंगे कि आज मैं एक नया तंत्र (फ्रेमवर्क) आपके समक्ष रखूंगा जिससे हम इन मुद्दों का बेहतर तरह से विश्लेषण कर सकेंगे। यह तंत्र योग की मूल भावना के अनुरूप, विभिन्न मतों को एक दूसरे के करीब लायेगा। मैं आपको यह भी समझाने का प्रयत्न करूंगा, कि जो भी वादविवाद आज हो रहे हैं, उसमे किसी भी पक्ष का कोई लाभ नहीं है – इन वाद विवादों से सभी को नुकसान ही है क्योंकि यह विवाद अपने मूल ढांचे के कारण ही लोगों को बांटने का कार्य करते हैं।

मैं इतिहास के साथ शुरुआत करता हूँ और यह बताता हूँ कि हम यहाँ तक कैसे पहुंचे? साठ के दशक में अमेरिका में भारत से योग एवं विभिन्न संबंधित जीवन शैली (जैसे ध्यान पद्दति / मेडिटेशन) का आगमन हुआ था। यह आयात एक तरह से अमेरिका की मूल संस्कृति के विरोध में हुआ था (इसे काउंटर कल्चर भी कहा जाता है)। अमेरिका में वियतनाम युद्ध और कई अन्य घटनाओं के बाद अमेरिका की मूल धारणा में यहाँ के लोगों का विश्वास कम हुआ था। उस समय कई अमेरिकी लोग (जिन्हें हिप्पी कहा गया था) भारत गए, वहां पर कुछ गुरुओं से दीक्षा ली। उनमे से कई लोगों ने अनेक पद्दतियां सीखीं, जिनसे इन्हें काफी लाभ भी हुआ। उनमे से कुछ लोग भारत में ही रह गए और कुछ लोग वापस अमेरिका आ गए। इन लोगों ने विभिन्न पद्दतियां सीखीं–जैसे ध्यान पद्दति, मंत्र साधना, चक्र, तंत्र आदि। यह शब्द अमेरिकी शब्दावली में भी समाहित हो गए। इसी समय शाकाहार का विचार भी काफी लोकप्रिय हुआ।

कुछ बड़ी अनोखी घटनाएं भी घटीं। भारतीय परंपरा में, वैदिक हिन्दू परंपरा में (योग जिस परंपरा का हिस्सा है), परमात्मा का स्त्री स्वरुप (Divine as Feminine) एक बहुत ही केंद्रीय तत्व है। यह विचार बड़ा क्रांतिकारी था। कई नारीवादियों (Feminists) को इस बात का पता पहली बार चला कि परमात्मा का सम्मान एवं उसके पूजा एक स्त्री के रूप में भी हो सकती है। यह विचार अब्राहामिक पंथों {Abrahamic Religions – Judaism (यहूदी पंथ), Christianity (ईसाई पंथ), Islam (इस्लाम)} में नहीं है।

इस प्रकार कुछ अद्भुत एवं नई बातें अमेरिकी संस्कृति के सामने आईं। इसी प्रकार यह विचार – कि यह ब्रह्माण्ड भी पवित्र है और परमात्मा का साक्षात् स्वरुप है – अमेरिकी संस्कृति के लिए बड़ा नया था। इस प्रकार भारत से वंदना शिवा के नेतृत्व में एक एकोफेमिनिस्म (ecofeminism) आंदोलन आरम्भ हुआ और अमेरिका के काउंटर कल्चर में बहुत लोकप्रिय हुआ। इसी के साथ भारत से विभिन्न दर्शनों (philosophies) का भी आयत हुआ जैसे अद्वैतवाद, वेदान्त, आदि।

यह सभी विचार पिछले ४० – ५० वर्षों में अमेरिकन संस्कृति का हिस्सा बन गए हैं (have been digested in American Culture)। इस प्रक्रिया में योग का जो शारीरिक भाग था, जिसे आप “वाईएमसीए योगा” कह सकते हैं, या जिसे स्वास्थ्य के लिए योग और “तनाव में कमी” के लिए योग कहते है – वह इस अमेरिकी संस्कृति का हिस्सा बन गए।

कई लोगों की यह एक गलत धारणा है कि योग का मतलब सिर्फ व्यायाम या तनाव नियंत्रण है। हमें समझने की आवश्यकता है कि यह योग का सिर्फ एक पहलू है – योग में इससे कहीं ज्यादा समाविष्ट है। इसी तरह से योग का ईसाईकरण भी हुआ और “क्रिस्चियन योगा” का जन्म हुआ। इसी समय वैज्ञानिकों ने भी योग का अध्ययन करना आरम्भ किया। खासकर न्यूरोसाइंटिस्ट यह जानना चाहते थे कि योग का उपचार की दृष्टि से मन पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार योग, चिकित्सा शास्त्र, खासकर समग्र चिकित्सा (holisticmedicine) का एक हिस्सा बन गया। योग नैदानिक उपचार (थेरेपी) का भी हिस्सा बना। ऐसे कई सेंटर बने जहाँ योग एक थेरेपी के तौर पर सिखाया जाने लगा। कई तरह के मनोवैज्ञानिक इलाज़ एवं संज्ञानात्मक (cognitive) थेरेपी निकलीं जो योग पर आधारित हैं।  दुर्भाग्य से योग के कई घटकों को अलग कर लिया गया, और इन अलग अलग क्षेत्रों को अब समग्रता से नहीं देखा जाता। इस कारण जो लोग योग के न्यूरोसाइंटिफिक  (स्नायु तंत्र, neuroscientific) प्रभाव पर कार्य कर रहे हैं वे भक्ति या समर्पण के साधकों से अलग थलग कार्य कर रहे हैं (जबकि भक्ति या समर्पण का असर स्नायु तंत्र पर होता है)। इसी तरह से वे लोग जो योग से सिर्फ स्वास्थ्य और व्यायाम के लिए जुड़े हैं, वे योग के अन्य प्रभावों से (चेतना के उच्चतर स्थल पर पहुँच पाना) पूरी तरह अवगत नहीं हैं।

(इतिहास पर वापिस लौटें)

(हिप्पी युग के बाद) अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों का बड़े पैमाने पर आगमन हुआ। इस आगमन से एक बहस छिड़ी कि योग क्या है और उस पर किसका अधिपत्य है? क्या योग पूर्वी संस्कृति का हिस्सा है या पश्चिमी संस्कृति का? क्या योग हिन्दू है? या योग ईसाई है? क्या योग पंथनिरपेक्ष है? ऐसे भी सवाल उठे कि क्या योग सिर्फ “मेडिकल” (चिकित्सा के तौर पर इस्तेमाल होना) है? क्या योग आध्यात्मिक जागरण के लिए है?

इन प्रश्नों का उठना एक बहुत ही अच्छी बात है, क्योंकि जब वाद विवाद के बाद इन प्रश्नों के सही उत्तर मिलेंगे तो योग के बारे में हमारी जानकरी में बढ़ावा ही होगा। तो यह विवाद कि योग को विज्ञान, पंथ आदि के सापेक्ष कहाँ रखा जाये – इसने योग को श्रेणियों में बाँट दिया है – जैसे सिर्फ पंथ/आध्यात्म या सिर्फ विज्ञान  – मगर योग इन दोनों श्रेणी में अलग अलग फिट नहीं होता – योग सिर्फ विज्ञान नहीं है – योग सिर्फ आध्यात्म भी नहीं है। इसी तरह योग सिर्फ चिकित्सा नहीं है – योग का कोई संकीर्ण बंटवारा करना उचित नहीं है। इसलिए अगले कुछ क्षण मैं इन सब श्रेणियों को अलग रखना चाहता हूँ और योग को समग्रता से उसके अपने ही अलग तंत्र को समझाना चाहूँगा।उसके बाद योग के इस तंत्र को हम अन्य श्रेणियों के सापेक्ष रखेंगे।

पहली बात – योग में सबसे पहले कुछ कार्य हैं – जो करने चाहिए और कुछ ऐसे कार्य हैं – जो नहीं करने चाहिए (there are some do’s and dont’s)।  इन्हें कहा जाता है – यम और नियम । तो योग में ऐसा नहीं है कि आप यह व्यायाम करें, यह प्राणायाम करें, अपने तनाव को कम करें –  और बस यह योग करना हो गया। योग करने से पहले आपको नैतिकता और जीवन शैली के के मूल सिद्धांत बताएं जाते हैं। इसलिए आप योग को नैतिकता से अलग नहीं कर सकते। आप यह नहीं कह सकते कि चूँकि योग सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) है, तो कोई कुछ भी कर सकता है।

जब एक डॉक्टर आप एक दवा देता है, तो वह आपको यह भी बताता है कि उस दवा को कैसे लेना है। उस दवा के साथ कुछ वस्तुओं के सेवन निषिद्ध होगा (donts)। इसके अलावा उस दवा के साथ एक विशेष प्रकार का आहार लेना होगा (do’s)। उस दवा के साथ आपको अपनी जीवन शैली में भी कुछ बदलाव लाने होंगे। तो यह सच है कि कोई भी दवा कार्य करेगी, मगर मरीज को भी उस दवा के साथ के नियमों का पालन करना होगा। इसी प्रकार योग सार्वभौमिक है, लेकिन योगी (अर्थात योग करने वाला) से अपक्षित है कि वह कुछ आवश्यकताओं का अनुपालन करे। तो यम और नियम –जीवन शैली (लाइफस्टाइल ) की आवश्यकताओं को बतलाते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी पृष्ठभूमि क्या है – मगर आपको कुछ आवश्यकताओं का अनुपालन करना होगा।

मैं जोर देकर कहना चाहूँगा कि मूल बहस इस बात पर होनी चाहिए कि योग का सही असर के लिए क्या मूलभूत आवश्यकताएं हैं? एक डॉक्टर भी आपको बता देगा कि जब आप एक दवा ले रहे हों तो आप कुछ अन्य दवाओं का सेवन नहीं कर सकते; अन्यथा वे दवाएं इस दवा के साथ उल्टा प्रभाव कर सकती हैं। वे दवाएं आपका नुकसान कर सकती हैं और आपके स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती हैं। तो सिर्फ इसलिए कि अमुक एक अच्छी दवा है और रोग दूर करती है, इसका मतलब यह नहीं है कि यह आप चाहे जो करते रहें– चाहे आप कितने ही लापरवाह क्यों न हों, चाहे आप कितना ही निर्देशों की अवहेलना करें – क्या कोई दवा हमेशा असर करेगी?

इसी तरह से योग भले ही सार्वभौमिक है, मगर उसके भी कुछ नियम हैं – मैं आपको उदाहरण दूंगा- कुछ प्रथायें (practices), आहार, जीवन शैली और विचारधारा ऐसी हैं जो योग के साथ नहीं करी जा सकतीं – कुछ निषिद्ध तत्व योग के साथ समाविष्ट नहीं हो सकते। हम योग की सार्वभौमिकता पर सवाल नहीं उठा रहे हैं, मगर हम यह कह रहे हैं कि योग एक “पैकेज डील” की तरह आता है – आपको पूरा पैकेज लेना होगा – आप अपनी इच्छा से उस पैकेज से कुछ हिस्से नहीं चुन सकते। मानो कि मैं एक बगीचे बनाने वाले के साथ काम कर रहा हूँ। वह व्यक्ति मुझे बताता है कि अमुक पौधा उस पेड़ के साथ नहीं लगाना चाहिए। कोई और विशेषज्ञ आपको बताएगा कि पौधों की बढ़ोत्तरी के लिए यह आवश्यक है कि पौधों को सही मात्रा में धूप, छाया, एवं पानी दिया जाये, या किस पौधे को कौन सी दिशा में लगाया जाये। इसी तरह अगर योगाभ्यास करना है तो उसके लिए भी एक ख़ास तरह की “मिटटी” चाहिए, एक खास तरह की जलवायु चाहिए, एक निश्चित प्रकार के स्पंदन और एक निश्चित माहौल चाहिए।

इसी वजह से आपके योग शिक्षक आपको योग की चटाई का भी सम्मान करने के लिए कहेंगे। वे आपको आपके जूते बाहर उतारने को कहेंगे। वे आपको विशेष तरीके से प्रणाम करने, विशेष मंत्रोच्चारण, कुछ निश्चित जप करने को कहेंगे। इसके अलावा वे आपको आपके जीवन में कुछ बातों के पालन को कहेंगे जैसे अहिंसा। यह सभी उस मिटटी – उस पृष्ठभूमि का हिस्सा हैं – जिसमे योग नामक पौधा फल-फूल पायेगा। सार्वभौमिकता का मतलब यह नहीं है कि आपकी जो मर्ज़ी हो वो आप कर लें। यह तो सार्वभौमिकता का मूर्खतापूर्ण अर्थ है। आज सुबह मेरे फेसबुक पेज पर किसी ने लिखा है – योग तो सार्वभौमिक है, सबके लिए अच्छा है। यह सब क्या पाखण्ड है कि योग कहाँ कार्य करता है, कैसे कार्य करता है, क्या आवश्यकतायें हैं आदि? इसका उत्तर यही है कि जब कोई चिकित्सक आपको एक दवा लेने को बताता है, या कोई बगीचे का जानकार आपको बताता है कि किसी पेड़ का ख्याल कैसे रखना है तो यह पाखण्ड नहीं है वरन यह उस दवाई का , उस पेड़ से सम्बंधित विज्ञान का हिस्सा है।

अब आते हैं इस बात पर कि योग का कार्य क्षेत्र कितना व्यापक है, उसका स्कोप क्या है?योग का कार्य क्षेत्र समझने के लिए हमे अधिक व्यापक रूप से इस पहलू को समझना होगा। योग का एक पक्ष है जो शारीरिक है – ऐसे अभ्यास हैं जो शरीर के स्तर पर हैं- इसके कई प्रकार हैं – इसमें प्राणायाम शामिल है, इसमें तंत्र शामिल है, इसमें ध्यान प्रक्रिया शामिल है, इसमें मंत्र उच्चारण की विभिन्न तकनीकें भी शामिल है। इन विभिन्न प्रणालियों का अंतिम लक्ष्य एक व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर ले जाना है – एक चेतना की अवस्था की ओर ले जाना है- इसे जीवन मुक्ति भी कहते हैं।

मुख्य बात यह है कि योग द्वारा यह जीवन मुक्ति अभी और यहीं प्राप्त हो सकती है, किसी काल्पनिक स्वर्ग में नहीं। यह कोई वादा नहीं है, जो आपके मरने के बाद पूरा होगा। यह अनुभव आपको उसी समय, उसी शरीर में हो सकता है – जब आप जीवित हैं।​इसलिए एक ऐसी विश्वास प्रणाली है जो यह माने कि आपकी जीवन मुक्ति इस मार्ग से नहीं हो सकती – एक ऐसी विश्वास प्रणाली जो यह माने कि आप जन्म से ही पापी हो (you are a born sinner) –    ऐसी प्रणाली के साथ योग का तारतम्य नहीं हो सकता। योग की मूल धारा कहती है कि आप जन्म से ही दैवीय हो (बोर्न सिन्नर नहीं बल्कि बोर्न डीवाइन) – आप मूल रूप से स्वयं एक परम तत्व हो – सत्चितानंद हो। अब इस मूल अंतर को हमें समझना होगा। यह कोई केवल शब्दों की या ब्रांड के नाम की बात नहीं है। बात यह नहीं है कि आप योग को किस पंथ के नाम से पुकारें। यह विचारधारा एवं तत्वमीमांसा से जुड़ा हुआ सवाल है। आपको योग के साथ सुसंगत (कम्पेटिबल) विचारधारा और तत्वमीमांसा जोड़नी होगी। कोई भी व्यक्ति और किसी भी पृष्ठभूमि का व्यक्ति योग का अभ्यास कर सकते हैं मगर उन्हें समझना होगा कि उन्हें अपनी विचारधारा यौगिक विचारधारा और तत्वमीमांसा के अनुरूप ढालनी होगी।

ध्यान रहे कि यौगिक तत्वमीमांसा “स्व” (self) की प्रकृति पर बड़ी स्पष्ट है। पहली बात यह समझनी होगी कि “ मैं कौन हूँ”।कौन है जो योग कर रहा है? क्या यह शरीर योग कर रहा है? क्या यह मन योग कर रहा है? क्या इन दोनों के भी पार कुछ ऐसा है जो मैं हूँ? यह जो “स्व” है इसका ब्रह्मांड के साथ क्या सम्बन्ध है? इस “स्व” का उस दिव्य तत्व के साथ क्या सम्बन्ध है?

इन प्रश्नों का आपको जो उत्तर मिले वह यौगिक मार्ग के अनुरूप हो सकता है, या फिर ऐसा भी हो सकता है कि आपको जो उत्तर मिले वह यौगिक मार्ग से भिन्न हो। यह एक ऐसा मुद्दा है जो आध्यात्मिक है, धार्मिक है; और इस मुद्दे को सुलझाना पड़ेगा, आप इससे दूर नहीं भाग सकते; और यह कोई पाखंड भी नहीं है; और ना ही यह योग की सार्वभौमिकता का उल्लंघन है। यह मुद्दा कहता है कि यौगिक सार्वभौमिकता कुछ विशिष्ट नैतिक मूल्यों, विचारों एवं प्रथाओं के दायरे के भीतर ही मान्य है।

एक और महत्वपूर्ण बात। एक व्यक्ति के व्यक्तित्व के अलावा, योग एक तरह से “मध्यम पुरुष” है (सेकंड परसन)। मैं और तुम का यह अंतर विभिन्न स्तरों पर सामने आता है। चाहे अपना परिवार हो, चाहे अपना समाज हो, चाहे संपूर्ण मानवता हो, चाहे जानवर हों – हर स्तर पर यही “मैं और तुम” का सिद्धांत लागू होता है। यही “मैं और तुम” का सिद्धांत पेड़, पहा�

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