हिन्दू धर्म को समझने की एक लोकप्रिय विधि है हमारे देवी देवताओं के स्वरुप और चिह्नों पर गहरा विचार करना और इनसे सीख प्राप्त करना।
Shiva’s symbolism (Hindi)
आजकल शिवलिंग के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिल रहा है। कहीं एक परिभाषा में बाँध समझ लेने की सोच , कहीं “कामेच्छा की पूर्ति की हास्यास्पद वस्तु” बताने वाले विचार और फिर धर्म के बचाव में “यह ग्रंथों में ऐसा है, सदियों से ऐसा है ” जैसे तर्क। कहीं भी उस सोच के प्रति नतमस्तक होने का भाव नहीं जिसने हमारे ऋषि मुनियों को मानव व्यवहार की जटिलताओं को विधिवत ढंग से अध्यन कर अपनी समझाइश को एक लिंग में इतनी सम्पूर्णता से आकार देने को प्रेरित किया। त्रुटि तब होती है जब धर्म में विचारक लुप्त हो जाये और प्रचारक प्रमुख हो जाये। फिर धर्म भक्ति की विधियों का बंदी हो जाता है। क्या हम हिन्दू धर्म को प्रश्नों से बाहर रख उसे मिथ्यक और अप्राप्या तो नहीं बना रहे। हमारे धर्म की सुंदरता और समृद्धि उसके एक सम्पूर्ण जीवन शैली होने में है, किसी प्रचार की दीवारों में बंदी होने में नहीं।
अगर समझने का प्रयत्न करें कि शिवलिँग है क्या तो न सिर्फ हमारे धर्म पर से धूल छंटेगी वरन हमें पता चलेगा कि हिन्दू धर्म जितना पुरातन है उतना ही आधुनिक भी। हिन्दू धर्म मात्र परम्परायें नहीं बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन शैली है। यह धर्म हर युग में प्रासंगिक है।
हिन्दू धर्म जीवन के सभी आश्रमों – ब्रह्मचार्य , गृहस्थ , वानप्रस्थ और सन्यास – को समान महत्व देता है। वेदों में इंद्रियों पर संयम के बारे में शिक्षा है न कि उनके दमन पर। एक सम्पूर्ण स्वस्थ गृहस्थ के लिए शिवलिंग और शिवलिंग के आसपास सभी चिन्ह एक पूर्ण आचार-सहिंता हैं। हिन्दू ग्रन्थ उत्पत्ति की प्रक्रिया को “आवश्यक पाप” कह नकारते नहीं वो इसको एक यज्ञ की तरह महिमा मण्डित करते है। हिन्दू धर्म उत्पत्ति के सन्दर्भ में बहुत स्वच्छ और स्वछन्द तरीके से बात करता है। न सिर्फ बताया जाता है वरन यहाँ तक कहा जाता है कि अगर परमात्मा को भी पृथ्वी पर अवतार लेना है तो इसी विधि से लेना होगा।
हिन्दू ग्रंथों के अनुसार शिव और शक्ति पहले दंपत्ति हैं जिन्होंने मैथुन विधि से प्रजनन किया। उनका अर्धनारीश्वर रूप दिखाता है कि विश्व वृद्धि के लिए स्त्री-पुरुष की समान सहभागिता की आवश्यकता है। जब स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बनते हैं तो केवल मानसिक प्रेम पर्याप्त नहीं। दोनों को एक दूसरे से बिना छिपाव निसंकोच नैसर्गिक रूप में प्रेम करना आवश्यक है इसीलिए उनका शारीरिक तौर पर एक होना अति आवश्यक है। मानव आज भी शिव-शक्ति द्वारा बताई प्रजनन विधि का अनुकरण करता है। हो सकता है हमारे ग्रन्थ इस विधि पर सर्वप्रथम लिखित प्रमाण हों। कदाचित इस विधि को समझाने के लिए सर्वप्रथम शिवलिँग (लिंग और योनि) को स्मारक के रूप में स्थापित किया गया हो।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह “ऐसी चीज़” मंदिर में क्यों। हिन्दू धर्म में विवाह और गृहस्थी बसाना उतना ही पवित्र यज्ञ है जितना दूसरे यज्ञ बल्कि बाकी सब यज्ञ इसके बाद आते हैं क्योंकि यह यज्ञ उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। समाज का निर्माण यहाँ से आरम्भ होता है। एक पति-पत्नी पवित्र भावनाओं और दमित नहीं -नियंत्रित इंद्रियों के साथ इस यज्ञ का निर्वाह करें तो सदृढ़ समाज का निर्माण होगा।
अगर हम शिव मंदिर में प्रतेयक चिह्न से प्रेरणा ले पाएं तो हर चिह्न हमे मार्गदर्शन करता प्रतीत होता है। कलश जैसे कह रहा हो कि इंद्रिय-तृप्ति जीवन-आश्रम के अनुरुप वैदिक दिनचर्या निभाते हुए सयंमित भाव से हो। अनियंत्रित इन्द्रियां नाग की तरह कहीं से भी चुपके से सेंध लगा सकती है और दमन इनको और उग्र बना सकता है लेकिन नियंत्रण इनको आपका अलंकार बना सकता है। चन्द्र की घटती-बढ़ती कलाओं का मानव-व्यव्हार पर सीधा और गहरा प्रभाव तो आज विज्ञान भी स्वीकारता है परन्तु जब मस्तषिक में निरन्तर पवित्र विचारों की गंगा बहे तो आप चन्द्र-कला से उपजते आवेश और अवसाद पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। कामदेव के निरस्त बाण भी एक बड़ी सीख हैं कि कभी जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णय बाहरी उत्तेजकों से उत्तेजित हो न लें अपितु तभी लें जब आप अपने विवेक से पूर्णतया उनके लिए तैयार हों। व्यव्हार में तीन प्रकृतियां -सात्विक, राजसी, तामसी आपस में गुँथी हुयी हैं। चन्दन त्रिपुंड हर प्राकृतिक अवस्था में विचारों की शीतलता बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। त्रिनेत्र स्मरण कराने के लिए हैं कि आपकी इंद्रिय पुष्टि के लिए किसी वस्तु पर मात्र आपका स्वामित्व नहीं इसलिए अपने प्रत्येक कार्य में तीनों लोकों के लिए अपने उत्तरदायित्व के प्रति सजग रहें। त्रिशूल या मोह (लोभ), अहंकार, क्रोध के तीन शूल जो युद्ध के कारण भी हैं और हथियार भी। अगर मानव इन तीन शूलों पर नियंत्रण रखे तो युद्ध न हो और युद्ध में जिसने प्रतिद्वन्द्वी के इन शूलों को साध लिया तो यही उसके लिए सबसे बड़ा विजय शस्त्र बन जाते हैं। डमरू ध्वनि यंत्र है जैसा मानव शरीर में दो कानों के बीच मुख। दोनों कानों में पड़ती बाहरी ध्वनियों पर हमारा ज़्यादा नियंत्रण नहीं ,अधिक से अधिक हम अवांछित ध्वनियों को झटक सकते हैं परन्तु अपने मुख पर पकड़ रखना और मस्तषिक को संतुलन में रखना हमारे हाथ है। दुग्ध-स्नान का अर्थ है इंद्रियों की स्वस्थ और पावन पुष्टि होना आवश्यक है। भस्म सदैव स्मरण रखने के लिए कि कोई कितना भी बाहुबली क्यों न हो अन्ततः उसे भस्म होना होगा।
मात्र शिवलिँग ही क्यों, इसके इर्द-गिर्द पूरा शिव परिवार ही प्राय: प्रतिष्ठित किया जाता है। यह पारिवारिक मूल्य ही तो इस मंदिर का मूल सन्देश है – एक पति जो छल-कपट रहित, सर्वांग सुन्दर बिना अहंकार , त्रिलोकीनाथ, अपने पुरुषार्थ से बना स्वयम्भू है , पत्नी को प्रेम और सम्मान देने वाला है। एक पत्नी जो सम्पूर्ण सुन्दर स्त्री है, समाज के लिए अन्नपूर्णा है, पति को समर्पित है, सन्तान के लिए वत्सल्य से परिपूर्ण और अन्याय के सामने चंडी। कार्तिकेय -एक संतान सर्वाधिक बलशाली और देश रक्षा के लिए समर्पित जो यह भी सन्देश देता है की कभी कभी संतान की भलाई के लिए माता-पिता को अपनी संतान को अपने से दूर भी करना पड़ सकता है और समाज के प्रति दायत्व निभाते हुए अपने ही पुत्र से उपेक्षा का आरोप भी सहना पड़ सकता है लेकिन माता-पिता का ही निश्छल प्रेम और धैर्य पुत्र के मन से सारे आवेश और आक्रोश धो सकता है। दूसरी संतान, गणेश, सबसे बड़ा ज्ञान है -माता-पिता माननीय हैं तो इसका अहंकार संतान के मस्तषिक में नहीं चढ़ जाना चाहिए। और अगर संतान प्रचलित मानदण्डों के अनुसार बहम्य रूप से सुन्दर नहीं भी या उसमे कोई शरीरक कमी है भी तो भी माँ-बाप का पालन-पोषण उसमे हीन भावना आने से बचाएगा और उन्हीकी परवरिश उसे सम्पूर्ण विद्यायों का ज्ञाता, ऋद्धि-सिद्धि का स्वामी और इतना सम्मानीय बना सकती है कि वो प्रथम-पूज्य बन जाये।
पारिवारिक सदस्य तो हैं ही उनके वाहन भी बिन अर्थ नहीं। नंदी बैल – बैल के साथ मानव कभी भूखा नहीं रहेगा। अन्न-उपज से लेकर ढुलाई और सवारी सब काम कर सकता है बैल। । शेर – नारी को शीघ्र क्रोध नहीं आता लेकिन जब आता है तो क्रोध की पराकष्ठा में सीमा पार कर सकती है। नारी क्रोध को अनियंत्रित हिंसक जंगली राजा न बनने दे अपितु ऐसा पालतू बना कर रखे कि अपना सामान्य रूप विस्मृत करने पर भी क्रोध उसके वश में रहे और भले बुरे की पहचान रखे। मोर -योद्धा नृत्य और सुंदरता की कोमल भावनायों पर भी सवार हो। चूहा – जो भी परमात्मा की कृति है वो बेअर्थ या तुच्छ नहीं। कभी हाथी जैसा बड़ा काम चूहे जैसी वस्तु के बिना पार नहीं लग पाता। और शिव-गण यह बताते हैं कि कोई मात्र करूपता के कारण घृणा का पात्र नहीं।
आजकल एक मुद्दा यह भी है औरतें शिवलिँग की पूजा क्यों न करें। और न्यालय ने भी इसको धार्मिक मुद्दे के स्थान पर सामाजिक न्याय का मुद्दा बना कर इस पर निर्णय लिया कि सबको पूजा का अधिकार है। लेकिन अगर वैदिक दृष्टि से पक्ष रखा गया होता तो कदाचित निर्णय होता कि अधिकारिक पंडितों के सिवा कोई लिँग को न छूए।
वैसे तो प्राण-प्रतिष्ठित किसी भी प्रतिमा को, पिंडी को और लिंग (चिन्ह) को छुआ नहीं जाना चाहिए। जब हम प्राण प्रतिष्ठित करते है तो इसका तातपर्य है कि हम भगवान के उस स्वरुप को जीवंत मानते हैं। और हर जीवंत अवतार की दिनचर्या भी वैदिक तरीके से होगी। हमें कैसे लगे हर कोई हमें स्पर्श करना चाहे, दिन के किसी भी समय हमें स्नान कराना चाहे, भोग लगाना चाहे ।
अब शिवलिंग के बारे में। हमें ज्ञात है जैसे हमने सन्तानोत्पत्ति की, वैसे ही हमारे माता-पिता ने हमें उत्पन्न किया। किन्तु क्या इससे हमारा अपने माता-पिता के साथ रिश्ता उन्मुक्त हो जाता है। हमारा उनके साथ एक मर्यादित , सम्मानपूर्वक प्रेम होता है। बस वो ही मर्यादित, सम्मानपूर्वक प्रेम हमें जगत जननी और जगत पिता के प्रति दिखाना है। उनको सबसे प्रथम सम्पूर्ण दंपत्ति के रूप में सम्मान देना है और उनसे अपने गृहस्थ यज्ञ की प्रेरणा लेनी हैं ताकि हम सदृढ़, स्वस्थ समाज की कड़ी बने और कड़ी जोडें और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शिवमय (मंगलमय) हो।
ॐ नमः शिवाय
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