Menstruation and temple entry (Hindi)

आधुनिकता की आड़ में हिन्दू परम्पराओं पर आक्रमण

Menstruation and temple entry (Hindi)

आज कल धार्मिक विशेषकर हिन्दू धार्मिक परम्पराओं को स्वतंत्रता के हनन के तौर पर देखने का प्रचलन है। क्या हम अपनी स्वतंत्रता छुड़ाने के जोश में अपना अहित तो नहीं कर रहे यह जानने समझने का होश किसी को नहीं। परम्परा तोड़ना जैसे मैडल हो गया हो और “यह”  स्वतंत्रता, “वो”  स्वतंत्रता के  नारेबाज शीघ्र-अति-शीघ्र किसी-न-किसी मैडल से सुसज्जित हो पोस्टर पर छा जाना चाहते हैं।

इन दिनों रजस्वला स्त्री के मंदिर में प्रवेश पर निषेध की चर्चा ज़ोरों पर है और हर कोई अपने आप को आधुनिक विचारधारा का साबित करने के लिए इस मोटर पर सवार हो जाना चाहता है चाहे फिर वो हमारे संविधान के किसी भी स्तम्भ से सम्बन्ध रखता हो या नहीं। और उससे भी ऊपर किसी को हिन्दू परम्पराओं का ज्ञान हो या न हो। बस यह पुरानी धार्मिक परम्परा है और स्त्रियों के बारे में है तो इसका विरोध क्यों, बल्कि इसका तो समाप्त ही होना समाज के लिए उचित है।

परन्तु क्या विरोध से पहले विवेचना आवश्यक नही ? क्या सर्वप्रथम यह देखना आवश्यक नही कि यह प्रथा शुरू क्यों हुई होगी। पहले सुविधाओं के आभाव में रजस्वला स्त्री को मासिक धर्म के दौरान एक वस्त्र में रहना होता था और मासिक धर्म के उपरान्त स्नान के साथ उस वस्त्र को त्याग देना होता था। तो कोई भी स्त्री ऐसी स्थिति में, समुदाय तो एक तरफ़, घर के लोगों के सामने भी आना नहीं चाहती थी। दूसरा उस समय सर्व साधारण जन निजी स्नानघर नहीं अपितु सार्वजनिक ताल में स्नान करते थे और वहीँ पर एक स्थान पर ही सबके वस्त्र धोते थे। ऐसे में रजस्वला स्त्री का स्राव ताल को अशुचित कर देता था। स्मरण करें द्रोपदी चीरहरण के समय रजस्वला थी और एक वस्त्र में थी इसी कारण वो सार्वजनिक सभा में गुरुजनों के समक्ष नहीं ले जाने के लिए दुःशासन से विनती भी करती रही। सर्वथा ऐसी स्थिति में औरतों का सार्वजनिक स्थल पे जाना निषेध था और क्योंकि बिना स्नान वो शुचित भी नहीं होतीं थीं, इस लिए रसोई और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेना तो अनुचित ही होता था।

अब पक्ष समझने की कोशिश करते हैं वैज्ञानिक युग या इक्सवीं सदी का जिस की दुहाई हर कोई दे कर इस परम्परा का विरोध करने के लिए विद्धवान हो जाता है। क्या निजी स्नानघर में आधुनिक  प्रसाधनों से स्नान के पश्चात् और आधुनिक उत्पादों से लैस हो रजस्वला स्त्री उतनी ही “शुचित” एवं “सुरक्षित” नहीं जितना दस्त लगा व्यक्ति डायपर पहन कर। इस के विरोध में तर्क होगा मासिक धर्म कोई बीमारी नहीं। तो अगर बहनें “उन दिनों” अपने अंतः वस्त्र अपने परिवार के दूसरे लोगों के वस्त्रों के साथ धोतीं हैं तो अभिनन्दन वो यह केस जीत गईं। कैसे लगेगा मंदिर में फर्श पर या बैठने वाली दरियों पर सूखे रक्त के दाग़ दिखाई दें, इधर-उधर जल्दबाज़ी में बदले हुए सेनेटरी नैपकिन बिखरे पड़े हों। लम्बी कतारों में लम्बे समय खड़ा रहने पर, सीढ़ियां चढ़ने पर अत्यधिक स्राव होने लगे या दर्द होने लगे तो आप को कैसा प्रतीत होगा। निश्चित ही आप अपने रजस्वला होने का नारा लगा अपने स्वतंत्रता प्रिय आधुनिका होने प्रमाण नहीं देना चाहेंगी।

अब चिक्त्सिक कहते हैं महिलायों को मासिक धर्म में किसी भी तरह के काम से रोकना जायज़ नहीं।  उनका तर्क है क्योंकि महिलाएं आज कल सैन्य गतिविधियों और खेलों जैसे अति परिश्रम वाले कार्य में उन दिनों में भी हिस्सा लेती हैं तो मंदिर जाने जैसे साधारण कार्य क्यों नहीं कर सकती। इसका पहला उत्तर है – इन गतिविधियों के लिए उनका शारीरिक स्वास्थ्य और संक्रामक रोग ग्रसित न होना सुनिश्चित कर लिया गया होता है। और महिला खिलाडी जिन उत्पादों का प्रयोग करती हैं वो साधारण महिलायों के लिए क्या हर बार उचित हैं? और अगर हैं भी तो क्या वो सबकी पहुँच में हैं? इसी उत्तर से निकला दूसरा उत्तर है कि क्या किसी एक स्थान से बहते रक्त को देख वो अंदाज़ा लगा सकते हैं कि स्राव किसी एक ही कारण से हो रहा होगा। कितनी बार वो किसी के वस्त्रों में रक्त देख उसके पास बिना पर्याप्त सुरक्षा, जैसे मास्क, दस्ताने इत्यादि, के बिना पहुँचते हैं? अगर संक्रमण नहीं भी है तो चिक्त्सिक को यह समझाने की आवश्यकता तो नहीं होगी कि उन दिनों के प्रायः महिलाओं को रक्त की कमी होती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता दूसरे दिनों की तुलना में कम होती है तो वो मंदिर जैसी जगह जहाँ भीड़ हो सकती है और सब साँझा है वहाँ से संक्रमण आसानी से ले जा सकती हैं और अपने और दूसरों के स्वास्थ्य को ख़तरे में डाल सकती हैं। मासिक धर्म में न सिर्फ अपनी शुचिता बल्कि दूसरों से और दूसरों की शुचिता का ध्यान भी रखा जाना क्या उतना आवश्यक नहीं जितना स्वच्छ भारत के लिए खुले में शौच न करना ।

अगला प्रश्न आज के युग का सबसे बड़ा नारीवादी प्रश्न लिंगभेद का। पुरुषों को दाढ़ी मूँछ आने पर मंदिर में प्रवेश वर्जित क्यों नहीं? परन्तु उनको भी धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान मानसिक और शारीरिक ब्रह्मचर्य का उपदेश दिया जाता है। इसी सात्विकता को बनाए रखने के  लिए तो अधिकांश मंदिरों में व्यस्क बालक माँ के साथ नहीं अपितु पुरुषों की भिन्न कतार में खड़े होते हैं। और जहाँ कहीं कड़ाई से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन आवश्यक है, वहाँ उनके लिए पूजा स्थल ही पृथक हैं। यह बात भिन्न है कि इस पर भी आपत्ति की लम्बी चौड़ी सूची है और यह “परम्परा” भी भंग करने वालों के मिशन पर है। अन्य अंजान कारणों से होने वाली क्षति को रोक पाने की असमर्थता, विदित कारणों को न रोकने की तार्किक वजह नहीं बन सकती। जैसे सार्वजनिक स्थल पर धूम्रपान निषेध किसी धूम्रपान करने वाले व्यक्ति की स्वतंत्रता का इसलिए हनन नहीं क्योंकि वायु प्रदूषण के कई और कारणों को हम रोकने में विफ़ल हो रहे हैं।

तो क्या हमें महिलायों को मासिक धर्म में सभी सार्वजनिक स्थानों पर जाने से रोक देना चाहिए? वैसे तो अधिकांश महिलाएँ उन दिनों ऐसे हर्मोनल, शारीरक और मानसिक उठापटक से गुज़र रही होती है कि स्वयं ही अनावश्यक परिश्रम से बचती हैं।  जो सुविधाएँ या उत्पाद हैं वो इसलिए हैं की किसी आवश्यक कार्य को करने से या आज के समय की मांग के कारण घर से बाहर निकलने से महिलाएं अपने आपको सिर्फ रजस्वला होने के कारण बाधित न समझें। परन्तु मंदिर जाना तो शुचिता, भावनाओं और दिल से जुड़ा हुआ है कोई मज़बूरी से किया जाने वाला कार्य नहीं। और यह कहना भी उचित नहीं होगा की केवल वो औरतें जो फलां -फलां उत्पाद प्रयोग में लाती हैं, उन दिनों मंदिर में प्रवेश पा सकती हैं बाकी नहीं।  मंदिर तो अमीर-ग़रीब सबके लिए है तो कितनी महिलाएं हैं जो लम्बे समय के लिए न बदलने की ज़रुरत वाले या रिसाव न होने देने वाले उत्पादों का प्रयोग कर पाएंगी। या मंदिर में प्रवेश से पहले रिसाव के लिए निरीक्षण हो ? यह रोक न हो तो कहाँ तक रजस्वला स्त्री का प्रवेश उचित हो। सोचिये लंगर में किसी एक भी दरी पर आपको रक्त का दाग नज़र आ जाये तो क्या आप वहां लंगर कर पाएंगी। कल्पना कीजिये प्रसाद देती महिला या लंगर परोसती महिला के वस्त्रों पर रिसाव दिखे तो कैसा लगेगा आपको। हम सरोवर और नदियों में पूजा की समग्री भी प्रवाहित करने को रोकना चाहते हैं, लेकिन सरोवर में आपके साथ रक्त की धारा बह रही हो तो? जो महिलाएँ आधुनिक सुविधायों का प्रयोग करती हैं, वे यदि हठी न हों, तो अपने मासिक धर्म की तिथियों के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों का समायोजन भी कर लेती हैं। आखिर प्रश्न उनकी प्रसन्नता पूर्वक भागीदारी का है और उन्ही के शारीरिक स्वास्थ्य को बचाए रखने से जुड़ा हुआ भी।

परम्परा-भंग मिशन से अगला प्रश्न उठना लगभग-लगभग अवश्यम्भावी है कि “कोई मुझे क्यों बताए मैं कब मंदिर जाऊं या न जाऊं, मैं स्वस्थ महसूस करती हूँ तो जा सकती हूँ।” यह कुछ ऐसा  नही लगता जैसे शराब पीने वाला कहे मै तो नियंत्रण मे हूँ, मुझे  वाहन चलाने से क्यों मना किया जा रहा है। यह निषेध शुचिता से जुड़े होने कारण आज भी उतना ही वैध और समयोचित है जितना इसके आरम्भ के समय था।

न्यायालयों से और मीडिया से निवेदन है कि कोई भी परम्परा इस लिए कुरीति नहीं बन जाती क्योंकि वो पीढ़ियों से चली आ रही है और उसके आरंभ किये जाने के पृष्ठ मूल को हमने विस्मृत कर दिया है। और यह भी नहीं कि कोई परम्परा पर प्रश्न ही न करे। विवेचना होने से हम अपनी जड़ों को टटोलने के लिए और उसके तर्क संगत होने पर प्रश्न करने के लिए विवश होते हैं और अगर आवश्यक हो तो समयानुसार उसमे परिवर्तन पर भी विचार कर सकते हैं। हो सकता है वो परम्परा निराधार परम्परा न हो कर एक स्वस्थ जीवन – शैली का आधार बन जाए।  परन्तु स्वस्थ चर्चा तभी संभव है जब परम्परा के ज्ञाता की भी भागीदारी हो और  किसी भी परम्परा की चर्चा उसके तोड़ने से आरम्भ न करके उसके होने के कारण से शुरू करें। अतिआवश्यक है कि यह चर्चा न्यायालय के मंच पर आने से पूर्व सार्वजनिक मंच पर हो और न्यायालय ले जाने की पात्र भी है यह तय करने के लिए पक्ष और विपक्ष (जिसमें धर्म-मुखी ही नहीं, वर्ण सर्व साधारण की भावनाएँ भी सम्मिलित हों ) को दलीलें रखने के लिए समय सीमा दी जाए। जैसा कि लोकसभा में सहजधारी सिखों के वोट अधिकार के संशोधन पर  बिल पारित करते हुए माननीय मंत्री महोदय ने कहा कि हर धर्म को अधिकार है कि वो तय करे कि  धर्म का संचालन कैसे हो।

About Author: Anju Juneja

Anju Juneja is a homemaker, who loves to write about topics related to Hinduism in a simple language that is understood by all. This is one way in which she fulfills her Dharmic responsibilities towards the society.

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