नए जीवन की ओर (भाग १)

गंगा के किनारे सुचिता का रमन से मिलन उसके जीवन में बहुत बदलाव लाता है।

एकादशी की रात, गंगा नदी के तीर पर बैठी सुचिता अपने आँसुओं को थाम नहीं पा रही थी। बार बार उसके मन में एक ही सवाल उठ रहा था। “क्यों? मेरे साथ ऐसा क्यों? क्या किया था मैंने जो मेरे साथ ऐसा हुआ? इतने सालों से हर एकादशी पूरी श्रद्धा के साथ व्रत रखा। जन्माष्टमी पर अपने हाथों से घर के मंदिर को सजाया। सावन के सोमवारों में भी व्रत रही और नवरात्रि में जागरण भी किया। फिर क्यों मेरे जीवन में इतना बड़ा तूफ़ान आया?”

सुचिता के मन के इस तूफ़ान पर गँगा की शांत कलकल का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। सच तो यह था कि वह गँगा नदी शान्ति पाने आयी भी नहीं थी। वह तो उस दिन की याद में आयी थी जब वह पहली बार रमन से मिली थी। यही नदी, यही घाट और यही गँगा की शान्त कलकल। उस दिन भी सुचिता के मन में तूफ़ान आया था, पर वो तूफ़ान कुछ अलग ही था। उस दिन को याद करते समय सुचिता को याद आया कि कैसे एक दिन पहले तक वह घाट आने के लिए मना कर रही थी। काश कि  वह ना आती। काश कि वह अपनी दादी के साथ गँगा घाट आने के वजाय अपनी माँ के साथ अपने ननिहाल चली जाती। तब वह रमन से कभी नहीं मिल पाती। ना वह रमन से मिलती, ना आज वह यहाँ इस घाट पर बिल्कुल अकेली अपनी किस्मत पर रो रही होती।

तो क्या वह पछता रही थी? ऐसा तो नहीं कह सकते। कुछ दिन पहले तक तो वह रमन को अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा आशीर्वाद समझ रही थी। तीन साल पहले उससे पहली बार मिलने के बाद ही सुचिता ने रमन को अपना मान लिया था। उस पहली मुलाक़ात के बाद सुचिता की जिंदगी में कई तूफ़ान आये पर जिस दिन उसने रमन से शादी का निर्णय लिया, सारे तूफ़ान जैसे थम ही गए या हो सकता है कि सुचिता को दिखे ही नहीं।

जब उस दिन सुचिता अपनी दादी के साथ गँगा स्नान को आयी थी, तब इसी जगह बैठे रमन पर उसकी नजर पड़ी थी। सीधा साधा, साँवला सा, एक इक्कीस साल का लड़का। वो भी अपने परिवार के साथ ही आया मालूम पड़ता था। जब उसने सुचिता की दादी को देखा तो उठ कर उनकी सीढ़ियां उतरने में मदद करने लगा। उसके चेहरे पर की शान्ति ने सुचिता के मन को उसी समय जीत लिया। गँगा स्नान के समय भी सुचिता ने दूसरी तरफ मुंह किये हुए रमन को कई बार चोरी छुपे देख ही लिया। वह चाहती थी कि रमन भी उसकी तरफ देखे, पर रमन ने ऐसा नहीं किया। वह जानती थी कि अगर कोई दूसरा लड़का होता तो एक भीगी हुई लड़की को एक बार तो नजर चुरा के देख ही लेता, पर रमन की नजर दूर उगते हुए सूरज पर लगी रही। इस बात ने सुचिता के मन को पूरी तरह से रमन का बना दिया। स्नान के बाद जब सुचिता अपनी दादी के साथ पास में बने छोटे से कमरे में कपड़े बदलने गयी, तब उसके मन में डर था कि कहीं रमन चला ना जाये। उसने जितना जल्दी हो सका कपड़े बदले और बाहर आ गयी। रमन को वहीँ बैठा देख उसके मन को थोड़ा शान्ति तो मिली पर उससे कैसे बात करें और कैसे उसका नाम वगैरह जानें, यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ। ऐसे तो सुचिता कोई बड़ी धार्मिक स्वभाव की नहीं थी पर शायद गँगा के तीर पर होने के कारण उसने अनायास ही दोनों हाथ जोड़ कर गँगा माँ से विनती की कि कोई रास्ता दिखाएँ। शायद सच्चे मन से पूछा इसलिए ही अगले ही पल रमन खुद उसकी तरफ आता हुआ दिखा। उसे अपनी तरफ आता देख सुचिता के धड़कनें तेज हो गयीं। ऐसा लगा मानो आसपास की सारी दुनियाँ अचानक से थम गयी। सुचिता तो शायद साँस लेना भी भूल गयी थी।

“आप ठीक तो हैं?” उसके इस सवाल पर ही सुचिता को साँस लेना याद आया। उसने एक गहरी साँस ली और बोली “हाँ, हाँ, मुझे क्या हुआ है?”

रमन के चेहरे पर एक धीमी सी मुस्कुराहट खिल उठी। वह बोला “आपकी दादी थोड़ा परेशान लग रहीं हैं।” सुचिता ने पीछे मुड़ के देखा तो पाया कि उसकी दादी वाकई परेशान लग रहीं थीं। इसका मतलब रमन उससे नहीं बल्कि उसकी दादी से वह सवाल कर रहा था। ये बात समझ आने पर सुचिता को थोड़ी शर्म सी महसूस हुई पर उसे किनारे कर उसने अपनी दादी से पूछा “क्या हुआ दादी? क्यों इतना घबराई सी लग रही हो?”

“मेरा झोला नहीं दिख रहा चिक्की।” दादी थोड़ा रुआँसी होकर बोली।

“क्या उसमें कोई कीमती सामान था अम्मा?” रमन ने पूछा।

इससे पहले कि दादी कोई जवाब दे पातीं, सुचिता झट से बोली “कुछ नहीं, सिर्फ पूजा का सामान था।”

“मेरी बरसों पुरानी पूजा की थाली थी। मेरी शादी पर मेरे मायके से मिली थी।” अब तो दादी के आँसू गँगा जमुना की तरह बहने लगे थे।

“तब तो वाकई वह बहुत कीमती झोला है। चिक्की जी, आप एक बार उस जगह जा कर देख लीजिये जहाँ आप लोगों ने कपड़े बदले थे। मैं यहीं घाट पर देखता हूँ। वैसे वह झोला किस रँग का था?”

“सुचिता। मेरा नाम सुचिता है और सिर्फ दादी मुझे चिक्की बुलाती हैं।” थोड़ा झुँझलाते हुए सुचिता बोली, पर तुरंत ही समझ भी गयी कि वह समय ऐसी बातों का नहीं था। इसलिए रमन के कुछ बोलने से पहले वह झट से बोली “मेरा मतलब है कि झोला हल्के नारँगी रँग का था, जिस पर पीले रँग की कढ़ाई का काम है।”

“माफ़ कीजियेगा सुचिता जी, आपकी दादी को आपको चिक्की बुलाते सुना तो..”

इतने में उन्हें पीछे से किसी ने आवाज दी। “क्या ये झोला आप लोगों में से किसी का है?” कोई सुचिता की दादी की उम्र की ही औरत ने आवाज दी थी।

“हाँ, हाँ, मेरा है। कहाँ था?” दादी तपाक से बोल उठीं। उनके चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गयी।

“एक लड़का इसमें कुछ ढूँढ रहा था। मुझे देखकर भाग खड़ा हुआ। शायद उसे लगा कि यह मेरा झोला है। जो भी है, एक बार देख लीजिये कहीं कुछ गायब तो नहीं।”

दादी ने झोला खोल कर देखा। कुछ भी गायब नहीं था। इतने सब में सुचिता कुछ समय को भूल ही गयी कि रमन उसके पीछे ही खड़ा था। अब जब दादी शाँत हो गयीं थीं तब उसे रमन के पीछे होने का अहसास हुआ। एक बार फिर उसे थोड़ी देर पहले का रमन का मुस्कुराता हुआ चेहरा याद आया और शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया।

“आप ठीक हैं?” रमन ने उससे पूछा।

“किससे पूछ रहे हैं? मुझसे या दादी से?” सुचिता ने जानबूझ कर थोड़ा छेड़खानी वाले अंदाज में पूछा।

ये सुनकर रमन खिलखिला के हॅंस उठा “इस बार आपसे ही पूछ रहा हूँ।”

और फिर जब तक दादी घाट पर पूजा करवा रहीं थीं, रमन और सुचिता वहीँ पास में बैठे एक दूसरे के बारे में जानकारी इकठ्ठी कर रहे थे। रमन का परिवार पास के कुछ मंदिरों के दर्शन को चला गया था। ना जाने क्यों सुचिता को मन ही मन यही लग रहा था कि रमन वहाँ उसके लिए ही ठहरा था। रमन के  बात करने और उसकी तरफ देखने के तरीके ने सुचिता के मन में एक उम्मीद जगा दी। उससे बातें करते हुए सुचिता को समय का पता ही नहीं चला। पूजा ख़तम हुई। घर जाने का समय आ गया। जाना तो था ही। रमन ने खुद उसे अपना फोन नंबर दिया और जब सुचिता ने उसके नंबर पर एक मिस कॉल दिया तो रमन ने उसी समय उसे सुचिता के नाम से सेव भी कर लिया। फिर सुचिता दादी के साथ वापस चली गयी। वह वापस तो चली गयी थी पर उसका मन रमन पर ही लगा रहा। सुचिता की दादी जो कि अपने खोये हुए सामान के मिलने पर खुश थीं जान ही नहीं पायीं कि उनकी पोती गँगा के उस घाट पर क्या खो कर आ गयी थी।

दिन बीते, सुचिता ने रमन के फ़ोन का इंतज़ार किया। पर जब एक हफ्ते बाद भी रमन का फोन नहीं आया तब सुचिता के सब्र का बाँध टूट गया। उसने रमन को फ़ोन किया पर रमन ने उसका फोन नहीं उठाया। वह जानती थी कि उसके पास सही नंबर था क्योंकि उसने घाट पर ही रमन को मिस्ड कॉल  दिया था। वह यह भी जानती थी कि रमन ने उसका नंबर उसके नाम से ही सेव किया था। फिर क्या बात थी कि रमन उसका फ़ोन नहीं उठा रहा था? शायद वह किसी काम में व्यस्त होगा, ऐसा सोचकर सुचिता ने रमन को एक मैसेज किया “आपसे जरूरी बात करनी है। जब आपके पास समय हो, एक बार फ़ोन कीजियेगा। सुचिता”

पर तीन दिन बाद भी रमन का जवाब नहीं आया। सुचिता को ये तीन दिन तीन साल जैसे लगे। वह ही जानती थी कि उसने कैसे खुद पर नियंत्रण रखा हुआ था। बार बार उसका मन करता था कि रमन को फिर से कॉल करे पर ऐसी बेचैनी दिखाना उसे ठीक नहीं लगा। पर जब रमन का फोन नहीं ही आया तो सुचिता का मन घबराया। कहीं ऐसा तो नहीं कि रमन को कुछ हो गया हो? उसने फिर से रमन को फ़ोन किया, पर कुछ नहीं हुआ। सुचिता के मन में एक शक ने जन्म लिया। उसने एक दूसरे फ़ोन से रमन को कॉल किया और उसका शक सच निकला। रमन ने फ़ोन उठाया। रमन की आवाज सुनते ही सुचिता रुआँसी हो गयी, उसने तुरंत फ़ोन काट दिया। वह रमन को दिखाना नहीं चाहती थी कि उसके व्यवहार से वह कितना दुःखी हुई थी। उसे गुस्सा था तो खुद पर। वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी कि कोई एक मुलाकात में उसके मन पर ऐसी छाप कैसे छोड़ सकता था? क्या उसका मन इतना कमजोर था? “दुःख कितना भी बड़ा हो, उसे दिखाने पर जो मिलेगा वो हमदर्दी हो सकती है, प्यार नहीं” ऐसा उसका विश्वास था। पर रमन के लिए अपनी भावनाओं को वह अपने मन में दबाना नहीं चाहती थी, इसलिए उसने रमन को एक आखिरी मैसेज किया-

“मुझे पता नहीं कि आप मुझसे बात क्यों नहीं करना चाहते। मैं तो समझी थी कि मेरे मन में जो है वही आपके मन में भी है। शायद मैं गलत थी। मैं समझ सकती हूँ कि इसमें आपकी कोई गलती नहीं कि मुझे आप पसंद हैं, इसलिए मैं आपको अब दुबारा कभी परेशान नहीं करुँगी। सुचिता” इसके बाद सुचिता ने फ़ोन से रमन का नंबर डिलीट कर दिया ताकि अपने मन से हारकर वह गलती से भी रमन को वापस फ़ोन ना करे।

“उसके मन में वो भावना नहीं जो मेरे मन में है।” उस दिन के बाद हर दिन सुचिता अपने मन को यह बात समझाती। उसका मन समझा, ऐसा कहना सही नहीं होगा। सच तो यह था कि उसका मन बार बार उस गँगा घाट पर बैठे रमन की याद दिला दिया कर उसे तकलीफ पहुँचाने में लगा था। और उस पर उसकी दादी भी गँगा घाट पर उनके झोले के गायब हो जाने का किस्सा हर किसी को सुना कर उसे बार बार रमन की याद दिला ही देतीं थीं। सुचिता उन्हें चुप रहने को भी नहीं कह सकती थी। ऐसे में उसने चुपचाप सब कुछ भूल कर अपनी आने वाली परीक्षा पर ध्यान देने का निर्णय किया। जिससे वो दादी से दूर रह पायी और अगर कभी दुखी हुई भी तो अकेले में रो कर चुप भी हो गयी।

समय बीता, सुचिता की परीक्षाएं आ गयीं। सुचिता के पास रमन के बारे में सोचने का समय ना होने से उसका दुःख थोड़ा कम हुआ। पर सुचिता के ऊपर दुःख के पहाड़ टूटना अभी बाकी थे। उसकी परीक्षा चल ही रही थीं कि एक दिन अचानक उसके पिता की स्कूटर को एक ट्रक ने टक्कर मार दी और वो गंभीर रूप से घायल हो गए। सुचिता का पूरा परिवार अस्पताल और घर के चक्कर लगाने में लग गया और सुचिता के ऊपर सारे घर की जिम्मेदारी आ पड़ी। ऐसे हालात में सुचिता को लगने लगा कि वह फेल हो जायेगी। एक रात जब वह नींद को भुलाकर पढ़ाई करने की कोशिश कर रही थी, उसे उसके माँ की रोने की आवाज सुनाई दी। जब वह अपने कमरे से बाहर आयी तो माँ को जमीन पर बैठे सर पर हाथ रख कर रोते देख उसके होश उड़ गए। पर उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वो माँ से पूछती कि क्या हुआ था। शायद उसे पहले ही पता चल गया था और वह उस बात को सुनना नहीं चाहती थी। पर वो कितना भी चाहती बात को किनारे तो नहीं ही कर सकती थी। थोड़े ही देर में उसके पिता का शव घर आ गया। सुचिता मूक सी एक कोने में खड़ी रही। घर पर मातम छा गया। ऐसा सदमा वर्दाश्त करने की ताकत सुचिता में नहीं थी। सुचिता अनाथ जैसा महसूस कर रही थी। उसके पिता तो मर ही चुके थे, उसकी माँ भी इतने सदमे में थी कि उन्हें आसपास की कोई सुध नहीं थी। इस हादसे के कुछ ही महीनों के भीतर सुचिता की दादी बेटे की मृत्यु का दुःख ना सह पाने के कारण चल बसी। सुचिता के पिता के जाने के बाद उसका बड़ा भाई पिता की दुकान संभालने में ऐसा लगा कि घर में अकेली पड़ गयी बहन को भूल गया। जिस घर में सुबह शाम चहल पहल रहती थी वो अब सूना हो गया। इन सब बातों ने सुचिता के मन पर बहुत गहरा असर डाला।

दादी के जाने के बाद दादी के भगवान की पूजा वैसे तो सुचिता की माँ को करनी चाहिए थी, पर उनके मना कर देने पर वह जिम्मेदारी सुचिता के ऊपर आ गयी। सुचिता यंत्रवत रूप से जैसा दादी को करते हुए उसने कई बार देखा था वैसे ही पूजा करने लगी। दिन बीते, महीने बीते, नया साल आ गया और धीरे धीरे सुचिता संभलने लगी। वो अपना समय घर के काम, पूजा पाठ और अपनी पढ़ाई में बिताने लगी। और अगर कभी कुछ समय बचता तो अकेले रहने के वजाय वो अपनी सहेलियों के घर चली जाती।

एक दिन जब उसकी सहेलियों ने ऋषिकेश घूमने की बात उठायी तो सुचिता साफ़ मना करना चाहती थी। उसे पता था कि ऋषिकेश घूमने का मतलब त्रिवेणी घाट भी जाना। वह वहाँ बिल्कुल भी नहीं जाना चाहती थी, पर वह किसी को इसका कारण भी नहीं बताना चाहती थी इसलिए जब उसकी सहेलियों ने जोर डाला तो वह जाने के लिए मान गयी। वैसे भी अब दो साल बाद रमन के वापस वहीँ उसी घाट पर मिलने की संभावना ना के बराबर थी। सुचिता का भाई यह जानता था कि उसके पिता की मृत्यु के बाद सुचिता के ऊपर घर की सारी जिम्मेदारी आ पड़ी थी और वह खुद भी सुचिता की कोई मदद नहीं कर पा रहा था। ऐसे में उसे लगा कि बाहर घूम कर आना सुचिता के लिए अच्छा ही होगा ऐसा सोचकर उसने भी सुचिता को जाने की इजाजत दे दी। और फिर वह यह जानकर भी निश्चिन्त हो गया कि वो सब सुचिता की सहेली राधा की गाडी में जायेंगी तो ऐसे में वह सुरक्षित ही रहेगी।

सुबह सुबह सब राधा की गाडी से घूमने को निकलीं और त्रिवेणी घाट पर पहुँचते पहुँचते शाम हो गयी। घाट के दर्शन करके खाना खाने पास के एक रेस्टोरेंट जाएंगे, ऐसा सबने मिलकर सोचा था। घाट पर रमन के ना मिलने पर सुचिता को थोड़ी निराशा हुई जिसे उसने तुरंत ही दबा दिया। सुचिता को छोड़कर बाकी सबने गँगा में डुबकी लगाई। सुचिता को पानी में उतरने की कोई इच्छा नहीं थी, इसलिए वह किनारे पर ही बैठी रही। उस दिन जब वह आयी थी तब सूरज उग रहा था और आज वह डूब रहा था। सुचिता की नजर उस डूबते हुए सूरज पर लगी रही।

अनजाने ही सुचिता ने गँगा की ओर देखा और बोली “उस दिन मेरी एक प्रार्थना पर आपने मेरी रमन से बात करा दी थी, क्या आप मेरी एक और प्रार्थना सुनेंगी? बस एक बार फिर से रमन से मिला दीजिये। मुझे नहीं पता क्यों मैं उससे मिलना चाहती हूँ पर एक बार मुझे उससे मिलना ही है।”

About Author: Pratyasha Nithin

Pratyasha Nithin is a budding writer and a self-taught artist currently residing in Mysore, India. She has written articles and blog-posts on women’s issues. She is passionate about story-telling and believes that it is a powerful medium to convey ideas and ideals.

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