कई रत्न समुंद्र मंथन से उत्पन्न हुए थे और असुरों और देवों के बीच विभाजित थे।
समुद्र मंथन
समुद्र मंथन हिन्दू जीवन-दर्शन का एक महत्वपूर्ण अंश है, यह एक गृहस्थ के स्वस्थ, संतुलित, संपन्न जीवन यापन के लिए हमारे गुरुओं द्वारा समझाई गई जीवन-पद्धति है। हर मनुष्य का अंतर् एक समुद्र है और उसी के भीतर ही छिपे हैं अनमोल रत्न, जो उसे स्वयं के प्रयास से ही प्राप्त हो सकते हैं।
इस मंथन का आधार हैं योगीश्वर विष्णु अर्थात पूर्ण जीवन यज्ञों के स्वामी। मनुष्य के जन्म का कारण, उसको जन्म देने वालों के सम्बन्ध, उनके कर्म, जन्म स्थान, जन्म-की परस्थितियाँ, प्राकृतिक दशा, समय – यह सब मिल कर एक मनुष्य का प्रारब्ध बनाते हैं जिसे हम जन्म-कुंडली कह सकते हैं और जिससे एक मनोवैज्ञानिक और व्यक्तिगत आधारभूत संरचना निर्मित होती है। इस आधारभूत संरचना पर उसके अपने कर्मों का भवन निर्मित होता है।
क्योंकि पुरुषार्थ का आधार मेरुदंड है, उसे हम पर्वत की मथानी के रूप में विचार सकते हैं। मन, चेतना, इन्द्रियां वासुकि हैं और मथानी को संचालित कर रही हैं। प्रतेयक जीव के अंदर सुरतत्व और और असुरतत्व के बीच प्रभुत्व के लिए संघर्ष निरंतर चलता रहता है। व्यक्ति चेतना आरम्भ होते ही आस-पास के सामाजिक वातावरण से प्रभावित होता है, जिसे सर्वप्रथम मंथन उपज हलाहल के रूप में बताया गया है। शिव वो है जो मानसिक संतुलन से प्राकृतिक गुणों का त्रिपुण्डीय सामजस्य बिठा लेता है, वो भौतिक विषयों का पान करता हैं परन्तु उन्हें अपना पोषण नहीं बनाता, अपने हृदय तक पहुंचने नहीं देता।
संतुलित मस्तिष्क और नियंत्रित मनेन्द्रियों से प्रेरित आत्म-मंथन से निकलते हैं हलाहल से इतर तेरह अनमोल आच्छादित शक्ति रत्न:
१. उच्चैश्रवा – सफ़ेद अश्व प्रतीक है महत्वाकांक्षा, कल्पनाशीलता, नवाचार, साहस, उध्यम और जोखिम का। बिना महत्वाकांक्षी लक्ष्य के कोई भी पूर्वलिखित जीवन-परिधि से बाहर निकल ही नहीं सकता और लक्ष्य प्राप्ति के लिए सुविधा-क्षेत्र से निकल जोखिम उठाना पड़ता है जिसके लिए साहस और उध्यम की आवश्यकता है। सफ़ल वो होता है जिसकी कल्पनाशीलता उसे निरंतर नवाचार के लिए प्रेरित करती रहती है।
२. ऐरावत – सफ़ेद हाथी अर्थात व्यय। यह हाथी चार सूंड वाला है, जिसका अर्थ है कि व्यय चार तरह से होना चाहिए – १. योगदान-जिसमे कर और दान आते हैं, २. उपभोग-निजी आवश्यकताओं और भोग के लिए ३. निवेश-वर्तमान विस्तार एवं भविष्य प्रसार के लिए ४. बचत-आपातकालीन आवश्यकताओं के लिए। जिसने इस हाथी के चारों सूंड नियंत्रित कर अपने व्यय का सुनियोजन कर लिया वो बना इसका सवार वैभवशाली इंद्र।
३. कौस्तुभ मणि – अमूल्य रत्न जो केवल इच्छाधारी नाग धारण करते हैं या स्वयं विष्णु धारण करते हैं। जो अपने कर्मों का स्वामी है, जिसका अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण है वो इच्छाधारी कर्मयोगी है क्योंकि उसमें अपनी इच्छानुसार लक्ष्य तय करने और उनकी प्राप्ति की क्षमता है।
४. कामधेनु – एक दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण पवित्र गाय। एक व्यक्ति केवल कर्मों से निर्मित नहीं होता उसका संचालन उसका आहार और व्यव्हार भी करता है। जैसे खाओ अन्न वैसा बनेगा मन, एक पुरानी कहावत है। यदि आहार दिव्य है तो अंतर में दिव्यता जागृत होना स्वाभाविक है।और गाय के दूध और दुग्ध उत्पाद से पवित्र, औषधीय और दिव्य द्रव्य तो कोई हो ही नहीं सकता। जो अपने दूध से पोषण करे वो तो मातृ-तुल्य है और उसके प्रति हमें कृतग्य तो होना ही चाहिए। पशु प्रेम से दयाभाव और प्रेम जागृत होता है। कोई भी मनुष्य क्रोध, अहंकार, एकांत, अवसाद और संकुचित मन से उन्नति कर ही नहीं सकता। एक विशाल हृदय का स्वामी ही विशालता गृहण कर सकता है।
५. कल्पवृक्ष – एक ऐसा वृक्ष जो कभी नहीं सूखता और जिसका कोई भी भाग किसी भी तरह से व्यर्थ नहीं है। एक कुशल व्यवसायी अपना निवेश इस तरह करता है कि उसकी पूँजी का स्रोत शुष्क नहीं होता कभी लाभ नहीं भी हो परन्तु कोई न कोई सुरक्षित मार्ग आमदन का खुला ही रहता है।
६. देवी लक्ष्मी – श्री और सम्पन्नता की देवी। जिस घर-परिवार में स्त्री का सम्मान रहता है वहाँ माँ लक्ष्मी का वास रहता है और वो भगवान विष्णु के हृदय में निवास करती हैं जिसका अर्थ है कि माँ का निवास वहाँ है जहाँ कर्मयोगी हैं और परिवार में परस्पर सहयोग, सम्मान और प्रेम है।
७. रम्भा – एक अप्सरा। यह देश-काल अनुरूप क्रीड़ा और परिश्रम के सही तालमेल को दर्शाता है। एक स्वस्थ जीवन के लिए मनोरंजन, सामाजिक मेल-मिलाप, नृत्य, गायन, संगीत, आनंद और उन्मुक्त क्षण भी उतने ही आवश्यक हैं जितना कर्तव्य-परायणता, परिश्रम और गंभीरता।
८. पारिजात – हरसिंगार वृक्ष। एक सुगन्धित पुष्प वृक्ष जिसके कई औषधीय गुण भी हैं। प्राकृतिक सान्निध्य मानसिक और शारीरक स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है।प्राकृतिक सौंदर्य आध्यात्मिकता जगाता है और ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करता है। यह व्यक्ति को एकाग्रचित बनाता है।
९. वारुणी – एक मदिरा। वरुण अथवा जल से उत्पन्न होने के कारण इसे वारुणी कहा गया। रत्न विभाजन में यह असुरों के हिस्से आई। मदिरा असुरत्व ही जगाती है किन्तु जिसने अपने अंदर असुर जागने के पश्चात् भी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया वो दैवीय वैभव प्राप्त करता है।
१०.पाञ्चजन्य – शंख यश, कीर्ति, विजय, सुख, समृद्धि, शांति और लक्ष्मी का प्रतीक है। शंख नैसर्गिक नाद है।घर में शंख नाद का तात्पर्य है इस परिवार में श्री-विष्णु का ध्यान है, आध्यात्मिक रस प्रवाहित है , शुभता, उद्यम और संतोष है।
११. चन्द्रमा – यह सामायिक उतार-चढ़ाव को दर्शाता है, कि कैसे बढ़ना-घटना जीवन प्रगति के अभिन्न अंग हैं। जो इन अनिवार्य फेरबदल में शिव सा तटस्थ रहे वो भाग्य का स्वामी है।
१२. भगवान धन्वन्तरि – आयुर्वेद के देव। स्वास्थ्य ही संपत्ति है। रोग न केवल मनुष्य की आयु नष्ट करता है वरन उसकी संचित संपत्ति और बौद्धिक क्षमता को भी क्षीण करता है। मनुष्य का शरीर स्वयं में ही बहुत बृहद औषधालय है इसका समान्य ज्ञान होना अति लाभकारी है।मनुष्य को अपने स्वास्थ्य के लिए सजग होना ही चाहिए और इसके लिए सदैव प्रयासरत रहना चाहिए।
१३. अमृत – अंत में निकलने वाला रत्न। भगवान धन्वन्तरि ही अमृत कलश ले के निकले जिसका सीधा-सीधा अभिप्राय है जो स्वस्थ है, संपन्न है वो अमृत का पात्र है।
इस समुद्र मंथन के अंत में नैतिक सीख के रूप में एक असुर का छल से अमृत पाने का विवरण आता है जो यह बोध कराने के लिए है कि यदि कोई कुपात्र बिना ज्ञान, छल से, अल्पमार्ग से सीधा अमृत पान की चेष्टा करता है तो कर्म-यज्ञों के स्वामी विष्णु का सुदर्शन चक्र जिसे काल-चक्र भी कह सकते हैं उसके गुण और कर्मों के आधार पर उसके कर्मफल को विभाजित कर देता है। वो या राहु रहेगा या केतु अर्थात आमदनी है तो भोग नहीं पाएगा, भोगेगा तो आमदनी का स्रोत नहीं रहेगा।
साथ ही यह भी चेताया गया है की लक्ष्मी चंचला है। एक बार लक्ष्मी प्राप्ति का अर्थ यह नहीं है कि वो सदैव वहीँ बनी रहेंगी इसके लिए निरंतर मानसिक, शारीरक प्रयास करते ही रहना होगा और उत्तराधिकारियों को व्यक्तिगत प्रयास और परिश्रम करना ही होगा श्री-विष्णु की कृपा बनाए रखने के लिए।
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