सप्तर्षियों के नामों के अर्थ: स्वयं सप्तर्षियों के अनुसार (भाग १)

सनातन धर्म के संस्थापकों के नामों का अर्थ बहुत गहरा है।

प्रस्तावना

भारतीय संस्कृति में, विशेषतः वैदिक सनातन धर्म में, ऋषियों का स्थान सर्वोपरि है। ऋषि कौन हैं? यास्क के निरुक्त में ‘ऋषि’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘√दृश्’ धातु (“देखना” या “जानना”) के साथ-साथ ‘√ऋष्’ धातु (“जाना”) से बताई गई है।[1] जो सूक्ष्म अर्थों को देखता (जानता) है वह ऋषि है, यद्वा जिसके पास स्वयंभू वेद स्वतः आ गए वह ऋषि है।[2]ऋषि की एक प्रसिद्ध परिभाषा है “ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः”,[3] अर्थात् “मन्त्रों का दर्शन करने वाले ऋषि हैं।” ‘मन्त्रों’ से यहाँ अर्थ है “वैदिक मन्त्र”। ऋषि वैदिक मन्त्रों के द्रष्टा हैं। उणादि सूत्र और पाणिनीय व्याकरण के अनुसार ‘ऋषि’ शब्द ‘ऋष्’ धातु (“जाना” या “जानना”) से उत्पन्न है और इसका शाब्दिक अर्थ है “वह जो जानता है”।[4] अर्थात् ऋषि मन्त्रों के द्रष्टा होने के साथ-साथ मन्त्रों के अर्थों के ज्ञाता भी हैं। जो ऋषियों से संबन्धित है वह ‘आर्ष’ है, जिसका अर्थ है ‘ऋषि का’।[5] यथा मनुस्मृति में वर्णित ‘आर्ष विवाह’[6] अथवा ‘आर्ष साहित्य’ या ‘आर्ष वाङ्मय’। वेद, स्मृति, पुराण, इतिहास (रामायण और महाभारत) आदि सनातन धर्म के प्रमुख ग्रन्थ ऋषिदृष्ट या ऋषिप्रणीत होने से ‘आर्ष वाङ्मय’ कहलाते हैं।

ऋषियों के साथ सात की संख्या का संबन्ध है। यहाँ तक कि संस्कृत भाषा में ‘ऋषि’ शब्द सात की संख्या का भी वाचक है।[7] इसका कारण है वैदिक वाङ्मय में सात ऋषियों की प्रसिद्धि। इन सात ऋषियों को ‘सप्तर्षि’ कहा जाता है। आकाश में Ursa Major तारामण्डल को भी सप्तर्षि कहा जाता है। सप्तर्षियों का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद की शाकल संहिता के चतुर्थ मण्डल में प्राप्त होता है, जिसके एक मन्त्र में कहा गया है “वे सात ऋषि हमारे पितर थे”।[8] ‘सप्तर्षि’ शब्द का ऋग्वेद, शुक्ल-यजुर्वेद, कृष्ण-यजुर्वेद, और अथर्ववेद की संहिताओं के अनेक मन्त्रों में उल्लेख है। इस प्रकार यह सिद्ध है कि सप्तर्षियों का महत्त्व वैदिक काल से ही है।

सप्तर्षियों के नामों का उल्लेख ब्राह्मण ग्रन्थों और उपनिषदों में प्राप्त होता है। शुक्ल-यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में सात ऋषियों के नाम एक रहस्यमयी शैली में प्राप्त होते हैं।[9] “ये दोनों [कर्ण] ही गोतम और भरद्वाज हैं … ये दोनों [नेत्र] ही विश्वामित्र और जमदग्नि हैं … ये दोनों [नासिका-रन्ध्र] ही वसिष्ठ और कश्यप हैं … वाक् (जिह्वा) ही अत्रि है।”[10] यही मन्त्र कुछ भेद के साथ बृहदारण्यक उपनिषद् में भी प्राप्त है।[11] इस प्रकार सप्तर्षियों को दो कान, दो आँख, दो नथुने, और एक जीभ कहा गया है। ये मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार जो अङ्ग जानते हैं वे हमारे शरीर के ऋषि हैं। यह “जो जानता है वह ऋषि है” इस व्याख्या से संगत है। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम (गोतम), जमदग्नि, कश्यप, और भरद्वाज वर्त्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षि हैं।[12] यजुर्वेदीय संध्या विधि के अनुसार सप्त व्याहृतियों—भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः, और सत्यम्—के क्रमशः विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गोतम, अत्रि, वसिष्ठ, और कश्यप ऋषि हैं।

इन सप्तर्षियों के नामों के विषय में महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ के अन्तर्गत भीष्म-युधिष्ठिर संवाद में एक रोचक उपाख्यान प्राप्त होता है जिसका नाम है ‘विसस्तैन्योपाख्यान’, अर्थात् “मृणालों (विस) की चोरी (सतैन्य) का वृत्तान्त”। इस उपाख्यान में कथावस्तु के व्याज से प्रतिग्रह (उपहार स्वीकार करना) के दोष और स्तैन्य (चोरी) के पाप का निरूपण है। इनके अतिरिक्त इस उपाख्यान में एक अद्वितीय रत्न है सप्तर्षियों और यातुधानी का संवाद जिसमें अरुन्धती सहित सप्तर्षि स्वयं अपने नामों के गूढ अर्थ एक-एक रहस्यमय श्लोक में बताते हैं। लेख शृङ्खला के इस प्रथम भाग में विसस्तैन्योपाख्यान का संक्षिप्त कथन है। लेख शृङ्खला के आगामी भागों में सप्तर्षियों के नाम-निर्वचनों के गूढ अर्थ समझाए जाएँगे।

विसस्तैन्योपाख्यान

एक बार सप्तर्षि (कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, भरद्वाज, गोतम, विश्वामित्र, और जमदग्नि) और वसिष्ठपत्नी देवी अरुन्धती तपस्या करते हुए पृथ्वी पर विचरण कर रहे थे। उनके साथ उनकी एक दासी गण्डा और उसका पति पशुसख भी थे। एक समय भीषण अकाल पड़ा और भोजन दुर्लभ हो गया। तब राजा वृषादर्भि का एक पुत्र, जिसे राजा ने ऋषियों को दक्षिणा में दिया था, मर गया और भूख से व्याकुल मरणासन्न सप्तर्षियों ने उसे घेर लिया। तभी वृषादर्भि ने सप्तर्षियों से कहा “मैं आपको धन, पशु, अन्न, और दुर्लभ पदार्थ प्रतिग्रह के रूप में देता हूँ, आप मेरे पुत्र का भक्षण न करें।” सप्तर्षि राजा के दान को अस्वीकार कर चल दिए। राजा ने अपने मन्त्रियों के द्वारा स्वर्णमुद्राओं से भरे हुए फल सप्तर्षियों को भिजवाए। सप्तर्षियों, अरुन्धती, गण्डा, और पशुसख ने क्रमशः तृष्णा और आशा की निन्दा करते हुए उन्हें भी अस्वीकार किया।

जब मन्त्रियों ने यह वृत्तान्त राजा वृषादर्भि को सुनाया तो क्रुद्ध राजा ने इसे अपना अपमान माना। इसका प्रतीकार करने के लिए राजा ने आहवनीय अग्नि में अनेक आहुतियाँ डालीं जिसके फलस्वरूप एक भयानक कृत्या प्रकट हुई। राजा ने कृत्या का ‘यातुधानी’ नाम रक्खा और उससे कहा “वन में जाकर सप्तर्षियों, अरुन्धती, दासीपति, और दासी के नामों को मन में धारण कर (समझ कर) उनका वध कर दो।” यातुधानी “ऐसा हो” कहकर वन गयी।

इधर वन में फल-मूल का आहार करने वाले सप्तर्षियों ने एक मोटे परिव्राजक (संन्यासी) को एक कुत्ते के साथ देखा। जब अरुन्धती ने पूछा कि क्या आप कभी ऐसे स्थूल होंगे, तो सातों ऋषियों ने उस मोटे परिव्राजक के विषय में भिन्न-भिन्न उत्प्रेक्षाएँ कीं। परिव्राजक ने कुत्ते के साथ आकर सप्तर्षियों का हाथ स्पर्श करके यथोचित आचार किया। फिर परिव्राजक और उसका कुत्ता भी उन दस (सात ऋषियों, अरुन्धती, गण्डा, और पशुसख) के साथ वन में विचरण करने लगे।

एक दिन उन्होंने एक कमलयुक्त सरोवर को देखा। सरोवर में सुन्दर सीढ़ियों वाला एक ही प्रवेश का मार्ग था, जहाँ यातुधानी सरोवर की रक्षा कर रही थी। भूख से व्याकुल ऋषियों ने यातुधानी से सरोवर से मृणालों को लेने की अनुमति माँगी। यातुधानी ने कहा, “एक-एक करके अपना नाम समझाकर मृणाल ले लो।” अत्रि आदि ऋषि जान गए कि यातुधानी उनके नामों के अर्थ के माध्यम से उनका सामर्थ्य जानकर उनका वध करना चाहती है। अतः वे अत्यन्त गूढ भाषा में अपने नाम समझाते गए, ताकि यातुधानी उन्हें समझ न पाए।

[यमुनोत्री में सप्तर्षि कुंड]

अत्रि—“अरात्रि अत्रि। वह रात्रि जिसमें तीन न पढ़े। निश्चित ही आज अरात्रि, अत्रि। यह मेरा नाम जानो।”[13]

यातुधानी—“आपका नाम मैं मन में नहीं समझ सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

वसिष्ठ—“वसिष्ठ हूँ, वरिष्ठ हूँ, वासगृहों में बसता हूँ, वरिष्ठ होने और वास के कारण मुझे वसिष्ठ ऐसा जानो।”[14]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

कश्यप—“कुल कुल, कुवम कुवम, द्विज कश्यप, काशनिकाश होने से काश्य, ऐसा नाम धारण करो।”[15]

यातुधानी—“आपका नाम मैं मन में नहीं समझ सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

भरद्वाज—“असुतों, अशिष्यों, देवों, द्विजों, भार्या और द्वाजों का भरण करता हूँ, भरद्वाज हूँ।”[16]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

गोतम—“दम से गोदम, समदर्शन से अधूम और अदम। मुझे गोतम जानो।”[17]

यातुधानी—“नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

विश्वामित्र—“विश्वेदेव मेरे मित्र। गौओं का मित्र हूँ। मुझे प्रसिद्ध विश्वामित्र जानो।”[18]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

जमदग्नि—“जाजमत् यज के जान में जिजायिषा थी यह जानो। मुझे प्रसिद्ध जमदग्नि जानो।”[19]

यातुधानी—“नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

अरुन्धती—“धरों, धरित्री, और वसुधा पर भर्ता के अनन्तर भर्ता के मन की अनुरुन्धती मैं अधिष्ठित होती हूँ, मुझे अरुन्धती जानो।”[20]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

गण्डा—“वक्त्र के एकदेश को ‘गण्ड’ धातु कहते हैं, उसके उन्नत होने से मुझे गण्डा जानो।”[21]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

पशुसख—“पशुओं को रञ्जित करता हूँ, पशुओं को देखकर उनका नित्य सखा हूँ। मुझे गौण पशुसख जानो।”[22]

यातुधानी—“व्याख्या का उच्चारण भी कठिन है, नाम मैं धारण नहीं कर सकती, आप सरोवर में उतरिये।”

इन सबके पश्चात् मोटे परिव्राजक की बारी थी।

शुनःसख—“इन सबने जैसे अपना नाम बताया, वैसे मैं नहीं बोल सकता। मुझे शुनःसखसखा जानो।”[23]

यातुधानी—“नाम की निरुक्ति वाला वाक्य संदिग्ध वाणी में बोला, इसलिये जो नाम है वह पुनः बोलिए।”

शुनःसख—“यदि मेरे एक बार बोलने पर तुमने नाम नहीं समझा तो इस त्रिदण्ड से तुम भस्म हो जाओ।”

शुनःसख ने अपने ब्रह्मदण्ड से यातुधानी के सिर पर प्रहार किया और वह भूमि पर गिरकर भस्म हो गई।

इसके अनन्तर सब मुनियों ने यथाकाम मृणाल लेकर सरोवर के तीर पर उन्हें गट्ठों में बाँधकर जल से तर्पण किया। तर्पण के पश्चात् उन्होंने देखा कि मृणाल तट पर नहीं थे। भूख से व्याकुल ऋषियों ने कहा कि किसी ने मृणाल चुराए हैं। एक-दूसरे पर शङ्का करते हुए वे बोले कि हम आपस में शपथ लें। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, भरद्वाज, जमदग्नि, गोतम, विश्वामित्र, अरुन्धती, गण्डा, और पशुसख ने एक-एक करके चोरी करने वाले को अमुक-अमुक पाप लगने की या अमुक-अमुक अनिष्ट फल मिलने की शपथ ली। अन्त में शुनःसख (मोटे परिव्राजक) ने कहा,

“जिसने मृणालों की चोरी की है वह अपनी कन्या यजुर्वेदी या सामवेदी को विवाह में दे अथवा अथर्ववेद का अध्ययन करके स्नातक हो।”

ऐसी शपथ सुनकर ऋषि बोले,

“शुनःसख, ये शपथ तो ब्राह्मणों को इष्ट है (अनिष्ट नहीं), अतः तुमने ही सबके मृणाल चुराए हैं।”

शुनःसख ने कहा,

“सत्य है, मैंने मृणालों की चोरी की। आपकी परीक्षा के लिये मैंने मृणालों को छिपा दिया था। मैं आपकी रक्षा के लिये आया था, क्योंकि यह क्रूर कृत्या यातुधानी आपका वध करना चाहती थी। इसे वृषादर्भि ने भेजा था, ये आपकी हिंसा करेगी इस कारण से मैं आया। मुझे आप देवराज इन्द्र जानें। लोभ के अभाव के कारण आपने अब अक्षय लोक प्राप्त कर लिए हैं, आप यहाँ से उठकर शीघ्र वहाँ जाएँ।”

सभी महर्षि प्रसन्न होकर इन्द्र के साथ स्वर्गलोक चले गए।

विसस्तैन्योपाख्यान का सार

उपाख्यान सुनाकर भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं,

“इन महात्माओं ने परम क्षुधा से युक्त होते हुए भी और बहुत प्रकार के भोगों का प्रलोभन होने पर भी लोभ नहीं किया, इसलिये उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। इस कारण से मनुष्य को सभी अवस्थाओं में लोभ का त्याग करना चाहिए। हे राजन्, यह परम धर्म है।”

इस लेख के आगामी भागों में सप्तर्षियों, अरुन्धती, गण्डा, पशुसख, और शुनःसख के वेष में इन्द्र के वचनों का गूढ अर्थ बताया जाएगा।अविच्छिन्नित यहाँ भाग २
References / Footnotes

[1] “ऋषिर्दशनात्”, “तद्यदेनांस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयम्भ्वभ्यानर्षत्त ऋषयोऽभवंस्तदृषीणामृषित्वम्” (निरुक्त २.११)।

[2] “पश्यति ह्यसौ सूक्ष्मानप्यर्थान्”, “ब्रह्म ऋग्यजुःसामाख्यं स्वयंभ्वकृतकमभ्यागच्छत्, अनधीतमेव तत्त्वतो ददृशुस्तपोविशेषेण” (निरुक्त २.११ पर दुर्गादास की टीका)।

[3] मूल मृग्य, कुछ प्रकाशनों में इसका मूल भी यास्क का निरुक्त बताया गया है।

[4] ‘ऋष गतौ, [ऋषति=] जानाति ऋषिः’ (‘इगुपधात्कित्’ उणादिसूत्र पर नारायण की ‘प्रक्रियासर्वस्व’ टीका)।

[5] ‘ऋषेरिदं आर्षम्’। ‘तस्येदम्’ (अ. ४.३.१२०) सूत्र से ‘ऋषि’ से ‘अण्’ प्रत्यय।

[6] देखें मनुस्मृति ३.२९।

[7] देखें मोनियर-विलियम्ज़ कोश में ‘ऋषि’ शब्द।

[8] ‘अस्माकमत्र पितरस्त आसन्त्सप्त ऋषयो’ (ऋ.वे. ४.४२.८)।

[9] शतपथ ब्राह्मण १४.५.२.६।

[10] यद्यपि ‘वाक्’ का अर्थ प्रायः वाणी होता है जो कर्मेन्द्रिय है, ब्राह्मण में आगे कहा गया है कि ‘वाचा ह्यन्नमद्यते’ अर्थात् “वाक् से अन्न भक्षा जाता है”। इस कारण से ‘वाक्’ का यहाँ अर्थ ज्ञानेन्द्रिय जिह्वा (जीभ) ही है।

[11] बृ.आ.उ. २.२.४।

[12] ‘वशिष्ठः काश्यपोऽथात्रिर्जमदग्निः सगौतमः, विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोऽभवन्’ (विष्णु पुराण ३.१.३२)। ‘ऋषिः’ शब्द पर ‘शब्दकल्पद्रुमः’ भी देखें।

[13] अरात्त्रिरत्त्रिः सा रात्रिर्यां नाधीते त्रिरद्य वै, अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने (भा. १३.९३.२५)।

[14] वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि, वरिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम् (भा. १३.९३.२७)।

[15] कुलं कुलं च कुवमः कुवमः कश्यपो द्विजः, काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय (भा. १३.९३.२९)।

[16] भरेऽसुतान्भरेऽशिष्यान्भरे देवान्भरे द्विजान्, भरे भार्यां भरे द्वाजं भरद्वाजोऽस्मि शोभने (भा. १३.९३.३१)।

[17] गोदमो दमतोऽधूमोऽदमस्ते समदर्शनात्, विद्धि मां गोतमं कृत्ये यातुधानि निबोध माम् (भा. १३.९३.३३)।

[18] विश्वेदेवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा, विश्वामित्र इति ख्यातं यातुधानि निबोध माम् (भा. १३.९३.३५)।

[19] जाजमद्यजजानेऽहं जिजाहीह जिजायिषि, जमदग्निरिति ख्यातं ततो मां विद्धि शोभने (भा. १३.९३.३७)।

[20] धरान्धरित्रीं वसुधां भर्तुस्तिष्ठाम्यनन्तरम्, मनोऽनुरुन्धती भर्तुरिति मां विद्ध्यरुन्धतीम् (भा. १३.९३.३९)।

[21] वक्त्रैकदेशे गण्डेति धातुमेतं प्रचक्षते, तेनोन्नतेन गण्डेति विद्धि माऽनलसम्भवे (भा. १३.९३.४१)।

[22] पशून् रञ्जामि दृष्ट्वाऽहं पशूनां च सदा सखा, गौणं पशुसखेत्येवं विद्धि मामग्निसम्भवे (भा. १३.९३.४३)।

[23] एभिरुक्तं यथा नाम नाहं वक्तुमिहोत्सहे, शुनःसखसखायं मां यातुधान्युपधारय (भा. १३.९३.४५)।

About Author: Nityanand Misra

Nityanand Misra is a finance professional. editor & author based in Mumbai. He is an alumnus of IIM Bangalore and works in the investment banking industry. He writes on Indian literature, arts, music and has authored seven books.

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