विश्वास की एक बूँद

जीवन में भक्ति और विश्वास का स्थान स्थिर है जिसे आधुनिक जीवन के उथले सिद्धांत नहीं ले सकते ।

विश्वास की एक बूँद

पापा के जिद करने पर वल्लभ इस बार रामनवमी के लिए अपनी दादी के घर ठहरने के लिए चला गया। छोटे में वल्लभ को अपनी दादी बहुत पसंद थीं पर जैसे जैसे वो बड़ा होता गया वो उनसे दूर होता गया। शायद इसलिए कि दादी हर बार उसके गाँव आने पर वही पुरानी गाँव की और दादा जी की कहानियाँ ले कर बैठ जातीं। कोई इंसान एक ही तरह की कहानियाँ कितनी बार सुने। वैसे भी जो कहानियाँ वो सुनाती थीं उस पर एक छोटा बच्चा ही विश्वास कर सकता था। और कहानियाँ तो कोई सुन भी ले पर दादी की जिद कि वल्लभ रामनवमी उनके गाँव में ही मनाये और अपने हाथ से ही पूजा करे यह बात उसे खटकने लगी थी।

इसलिए जब वल्लभ सोलह साल का हुआ तब उसने जिद करके दादी के यहाँ जाना बंद कर दिया। “रामनवमी की छुट्टी नहीं होती। पढ़ाई छोड़ कर आया तो बहुत नुकसान होगा।” ऐसा कहकर वो हमेशा उन्हें टाल देता। और जो दूसरी छुट्टियां उसे मिलती उनमें वो दूसरी जगहों जैसे कि मुंबई में अपनी बुआ के घर या फिर गोवा में अपने मामा के घर चला जाता। उन जगहों पर हर बार वो कुछ नया कर सकता था। अब वह बीस साल का हो चुका था। चाहता तो इस बार भी पढाई के नुकसान का बहाना बना कर मना कर सकता था पर पापा चाहते थे कि वो दादी को मनाने में उनकी मदद करे। उनको लगता था कि दादी का गुस्सा पोते पर है इस वजह से तबियत ख़राब होने पर भी कानपुर उनके साथ रहने के लिए आने के वजाय इस रामनवमी के बाद सब कुछ छोड़ कर अयोध्या जाना चाहती हैं। इसलिए उन्होंने ये जिम्मेदारी वल्लभ के सर डाल दी कि कैसे भी करके दादी को मना कर वो कानपुर ले आये। उन्हें विश्वास था कि वल्लभ के बोलने पर वो मान जायेंगी। आखिरी मिनट तक वल्लभ यही सोचता रहा कि पूरा परिवार पिपरी जाएगा, इसलिए वह थोड़ा शांत था पर जब उसके पापा ने उसके हाथ में उसकी अकेले की टिकेट थमाई तो उसका दिमाग घूम गया। इतने सालों बाद दादी से अकेले मिलने जाना उसे अजीब लग रहा था पर उसके पापा नहीं माने। उन्होंने उसे अकेले भेजने की ठान ही ली थी।

हार कर वल्लभ अकेले ही निकला। एक बैकपैक में ठूसे हुए थोड़े कपडे, मम्मी का दिया टिफ़िन, और एक पानी की बोतल, फ़ोन का चार्जर, इतना सामान ले कर वह घर से निकला। निकलते समय दोपहर थी। वल्लभ ने कान में इयरर्प्लग्स ठूसे और सारे रास्ते गाने सुनते हुए गया। उसे दादी पर बहुत गुस्सा था। उसने मन ही मन ठान लिया था कि वो दादी से कुछ ज्यादा बात भी नहीं करेगा। गाँव पहुँचते पहुँचते रात हो गयी। जब दादी के घर पहुँचा तो देखा कि दरवाजा खुला था और अन्दर झूले पर उसकी दादी बैठी हुई ऊँघ रहीं थी। इतने सालों में दादी में आये परिवर्तन को देख वल्लभ को बहुत तकलीफ हुई। पिछली बार जब उसने उन्हें देखा था तब भी वह बूढ़ी ही थीं पर इस बार तो वो बहुत ही कमजोर लग रही थीं। चेहरे के भाव तो उसकी पुरानी वाली दादी के ही थे पर अब शरीर एक छोटे बच्चे जितना हल्का हो गया था। हाथ पैरों की हड्डियां अलग से नजर आ रही थीं। बाल पूरे ही सफ़ेद हो गए थे। चेहरे पर झुर्रियाँ अब दुगुनी हो गयी थीं। शायद उसके जूतों की आवाज ने ऊँघती दादी को चैतन्य कर दिया। वल्लभ  ने देखा कि जैसे ही दादी की नजर उस पर पड़ी उनके दुबले पतले चेहरे पर एक छोटे बच्चे जैसी ख़ुशी छा गयी।

“आ गया वलभा ? कितना बड़ा हो गया।” उनके मुँह से निकला और वो झट से उठ कर उसकी तरफ आने लगीं।

वल्लभ ने आगे बढ़कर दादी के पैर छुए। दादी ने उसके सर पर प्यार से हाथ फेरा फिर अचानक ही उससे चिपक कर रोने लगीं। वल्लभ को बहुत अजीब लगा। दादी को कैसे चुप कराना चाहिए उसे मालूम नहीं था। उसने दादी को धीरे से थपथपाया और बोला “अरे, रोने की क्या बात है दादी। मैं आ गया ना। चुप हो जाओ।” थोड़ी देर में जब वो शांत हुईं तो उन्होंने उसे आँगन में लगे झूले पर बिठाया और किचन से नारियल के लड्डू और पानी ले आयीं। खुद अपने हाथ से उन्होंने उसे लड्डू खिलाया और फिर उसके पास बैठ गयीं। दोनों ने थोड़ी देर बैठ कर बात की फिर वल्लभ मुँह हाथ धो कर खाना खा कर सोने चला गया।

अगले दिन तडके वल्लभ की आँख कुछ खटपट होने की वजह से खुली। उसने अपने मोबाइल में समय देखा। सुबह के पाँच बज रहे थे। वो उठ कर बाहर आया तो देखा कि दादी आँगन को हमेशा की तरह बैठ कर धो रही थीं।

“अरे दादी, इतनी कमजोरी में ये सब करने की क्या जरूरत है ?”

“अरे वलभा, उठ गया ? मुझे लगा कि अभी थोड़ी देर सोयेगा। अच्छा उठ गया तो ठीक ही हुआ। मैं पानी गरम कर के लाती हूँ, नहा ले। कल रामनवमी है तो आज से ही सारी तैयारी शुरू करनी है। राम जी की पूजा करेगा ना ?”

“दादी, मैं ये सब पूजा पाठ करने नहीं आया। मैं तो आने वाला भी नहीं था। पर पापा को लगता है कि मेरे चार पाँच साल रामनवमी पर ना आने की वजह से आप मुझसे गुस्सा हैं और इसलिए ही कानपुर नहीं आना चाहती। अब वो चाहते हैं कि मैं आपको वहाँ आने के लिए मनाऊं। और सही भी है। आपकी उम्र अब ये सब करने की नहीं है।” वल्लभ ने झाडू की तरफ इशारा करते हुए रूखे स्वर में बोला। “मेरी बात मानिए तो मेरे साथ कल ही शहर चलिए। वहाँ मम्मी आपका अच्छे से ध्यान रखेगी।”

शायद वल्लभ  का स्वर कुछ ज्यादा ही रुखा था। दादी के चेहरे पर मायूसी छा गयी। “तो क्या तू कल पूजा नहीं करेगा ?” उन्होंने रुआँसी आँखों से उसकी तरफ देखा।

वल्लभ को दादी का मायूस चेहरा और रुआँसी आँखे देख बड़ी तकलीफ हुई। शायद उसे ऐसे नहीं बोलना चाहिए था। लेकिन सच यही था कि वो गाँव में रहना नहीं चाहता था। पर दादी की ऐसी हालत देखने के बाद वो दादी को अकेले छोड़ कर जाना भी नहीं चाहता था। उसने कुछ सोचा, फिर दादी के पास आकर बोला “उठो, पहले यहाँ आकर बैठो।” ऐसा कहते हुए उसने दादी को सहारा दिया और झूले तक ले गया। दादी अभी भी बहुत दुखी थी पर वल्लभ की बात मानकर बैठ गयी। जब वो ठीक से बैठ गयीं तो वल्लभ भी पल्थी मारकर उनके बगल में बैठ गया और बोला “अच्छा बोलो, आप क्या चाहते हो ? यही ना कि मैं रामनवमी की पूजा करूँ ?”

दादी चुपचाप बैठी रही। उनकी चुप्पी में उनकी हाँ है समझ कर वो आगे बोला “ठीक है। मैं आज से कल रात तक जैसे आप बोलोगी वैसे ही करूँगा। बिना किसी तीनपाँच के आज रात को दादा जी वाली कहानी भी सुनूँगा और कल रामनवमी की पूजा भी आपके बोले अनुसार ही करूँगा। फिर जैसा आपने सिखाया था राम जी के सामने ग्यारह नारियल फोड़ कर उनसे आशीर्वाद भी लूँगा। ठीक है ना ?” इतना सुनते ही दादी के चेहरे पर ख़ुशी छा गयी। वो कुछ बोलने ही वाली थीं कि वल्लभ आगे बोला। “पर मेरी भी शर्त है। परसों सुबह आप मेरे साथ कानपुर चलेंगी और अब से वहीँ हमारे साथ रहेंगी। मेरी शर्त मंजूर है तो बोलिए ?”

थोड़ी देर सोचकर एक छोटे बच्चे की तरह हाँ में सर हिलाते हुए दादी बोलीं “ठीक है वलभा। राम जी की अगर ऐसी ही इच्छा है तो यही सही। अब तो नहा ले। तब तक मैं यहाँ सफाई करके रंगोली डाल देती हूँ। फिर तेरा कमरा भी ठीक कर दूँगी।”

“कोई जरूरत नहीं है। जब तक मैं यहाँ हूँ, जो भी काम है मुझे बोलो, मैं करूँगा।” ऐसा बोलकर वह उठा और झाडू ले कर आँगन साफ़ करने लगा। रंगोली दादी ने ही डाली। नहा धो कर उसने थोड़ा बहुत जितना याद था संध्या वन्दना की और फिर दादी के निर्देशानुसार राम लक्ष्मण और सीता जी की मूर्ति को नहलाया, उन्हें नए कपडे पहनाये, उनका श्रिंगार किया। उन्हें धूप, दीप दिखाकर, दादी का बनाया हलवा पूरी का भोग चढ़ाया और आरती की। फिर बेसुरा ही सही रामरक्षा स्तोत्र का पाठ करके थोड़ी देर आँखें मूँद कर बैठ गया। असल में उसे राम जी पर ध्यान करना चाहिए था पर उसे ये सब करना नहीं आता था इसलिए सिर्फ आँखें बंद करके बैठा रहा। ध्यान के बाद दादी के साथ मिलकर जो प्रसाद चढ़ाया था उसे खा कर वो बड़े पंडित जी को अगले दिन की पूजा के लिए बुलाने गाँव के दुर्गा मंदिर की ओर निकल गया।

रास्ते में उसने देखा कि गाँव में कितना कुछ बदल चुका था। अच्छे बदलाव यह थे कि बिजली की व्यवस्था तो पहले ही हो गयी थी, अब लोगों के पास मोबाइल वगैरह भी रहने लगे थे। स्कूल भी पक्का बन गया था। पर अच्छे से ज्यादा वल्लभ का ध्यान बुरे बदलावों पर गया। पहले जिन खेतों में वल्लभ अपने गाँव के दोस्तों के साथ खेला करता था वो अब खाली पड़े थे। गाँव में पानी की बड़ी समस्या थी। जो पहले के झील, कुएं वगैरह थे, वो सूख गए थे। वल्लभ के पुराने दोस्तों के परिवार गाँव छोड़ शहर जा बसे थे।  गाँव की खूबसूरती जैसे मंद पड़ गयी थी। एक आध दुकानों में वल्लभ के हमउम्र लडके बीड़ी पीने में लगे थे। गाँव का पुराना दुर्गा मंदिर ही बस एक ऐसी जगह थी जो जैसी वल्लभ को याद थी अब भी वैसी ही थी। वल्लभ ने मंदिर में देवी के दर्शन किये और फिर पंडित जी को ढूँढा। जब पंडित जी नहीं मिले तो उसने वही मंदिर के प्रांगण में बैठकर इंतज़ार करने की ठानी।

“आप दुर्गा अम्मा के पोते हैं?” किसी की आवाज सुनाई दी।

वल्लभ ने मुड़ कर देखा। एक पंद्रह-सोलह साल की लड़की देखने में थोड़ा जानी पहचानी सी मंदिर की सीढ़ियों में खड़ी थी। उसने पीले रंग की साडी और चमेली के फूलों का गजरा पहना हुआ था। उसका रंग सांवला और आँखें बड़ी बड़ी थीं। जब वल्लभ ने जवाब नहीं दिया तो लड़की बोली “उन्हीं के पोते हैं ना आप ?”

“हाँ, आप कौन ?”

“नहीं पहचाना ? मैं भौमि, यहाँ के बड़े पंडित जी की बेटी। बचपन में आपके साथ मिलकर मंदिर का प्रसाद चुराती थी ?”

ये बात सुनते ही वल्लभ के चेहरे पर मुस्कान छा गयी। उसे वो पुराने दिन याद आने लगे। भौमि वल्लभ की बहुत अच्छी दोस्त थी। पता नहीं क्यों वह उसे बिल्कुल ही भूल गया था।

“हाँ, याद आया। काफी समय हो गया इसलिए…”

“हाँ, समय तो हो गया। मैंने सुबह ही सुना कि आप गाँव आये हैं। क्या सच में आप दुर्गा अम्मा को लेकर चले जायेंगे।”

“यहाँ अकेले रहना उनके लिए ठीक नहीं।”

ये बात सुनकर भौमि हँस पड़ी।

“क्यों, क्या हुआ ? मैंने गलत तो नहीं कहा।” वल्लभ ने पूछा।

“कुछ नहीं। आपकी बात थोड़ा अजीब लगी। दुर्गा अम्मा आपके पिताजी की अम्मा हैं। आपसे इतनी बड़ी हैं। उम्र में भी और तजुर्बे में भी। आपको नहीं लगता कि यह निर्णय उनको ही लेने देना चाहिए कि उनके लिए क्या ठीक है और क्या नहीं ?”

“तो क्या तुम कह रही हो कि मुझे उनकी चिंता नहीं करनी चाहिए ?”

“आप उनकी कहाँ, आप तो अपनी चिंता कर रहे हैं। सच बताइये क्या आपको लगता है कि इस उम्र में वो अपने उस घर को छोड़ कर जाना चाहेंगी जहाँ उन्होंने अपने सारे अच्छे बुरे दिन काटे हैं ?”

“शायद तुम्हें नहीं पता कि वो वैसे भी सब कुछ छोड़ कर अयोध्या जाने वाली थीं। अकेले वहाँ इस उम्र में भटकने से क्या ये बेहतर नहीं कि वो हमारे साथ कानपुर में रहें ?”

“मुझे तो पता था, पर शायद आपको नहीं पता कि इसका कारण भी आप ही हैं।”

इससे पहले कि वल्लभ कुछ पूछ पाता मंदिर के अन्दर से आई किसी की आवाज ने दोनों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया “भौमि, किससे बात कर रही हो ?”

“अम्मा जी के पोते हैं, पिताजी।” भौमि ने उत्तर दिया। पंडित जी बाहर निकल के आये। ना जाने कैसे वल्लभ ने उन्हें मंदिर के अन्दर देखा ही नहीं। उसे लगा कि वहाँ उसके अलावा कोई भी नहीं।

“अरे छोटे शास्त्री जी, आप गाँव का रास्ता कैसे भूल गए ?” पंडित जी ने रूखे हुए स्वर में बोला।

वल्लभ को उनके बोलने का ढंग बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। फिर भी उसने शांत स्वर में उत्तर दिया “दादी ने आपको कल की पूजा के लिए बुलाया है। वहीँ बताने आया था। और जो भी पूजा सामग्री चाहिए मुझे बता दें, मैं ले आऊँगा।”

“ना, ना, चिंता मत करिए। हर बार सारा इंतजाम मैं ही करता हूँ। इस बार भी कर लूँगा। आप जाइए, जो थोड़े बहुत समय के लिए गाँव आये हैं तो गाँव देखिये। अब इसके बाद वैसे भी फिर कभी आना होगा नहीं आपका।” बोलकर पंडित जी वापस चले गए।

पंडित जी के बात करने के अंदाज से वल्लभ को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके चेहरे पर जोर का थप्पड़ मार दिया हो। “चलता हूँ भौमि।” बोलकर वल्लभ वहाँ से गुस्से से निकल गया। घर पहुँच कर वह दादी पर चिल्लाया “कैसे आदमी हैं वो पंडित जी। बात करना भी नहीं आता। और आप, जब हर बार पूजा की तैयारी वो करते हैं तो आपने मुझे उनसे पूछने के लिए क्यों बोला ?”

“कितना गुस्सा करने लगा है वलभा ? पंडित जी को भी तेरे इतने साल ना आने से बहुत दुःख पहुंचा है इसलिए गुस्से में कुछ बोल दिए होंगे। चलो कोई बात नहीं। वैसे भी तुझे अभी बहुत काम है। अभी नहा धो कर फिर से संध्या वंदना करनी है। फिर राम जी को दोपहर का भोग लगाना है। और फिर उन्हें सुलाना भी तो है।”

“नहाना ? संध्या वन्दना ? ये सब सुबह कर तो लिया। फिर से क्यों ?”

“दिन में तीन बार करना होता है ना वलभा ? शहर जा कर सब भूल गया क्या ?”

“इतना सब आज के समय में कौन करता है दादी ? मैं दुबारा नहाने नहीं जा रहा।” बोलकर वल्लभ अपने कमरे में जाने लगा।

“तो फिर मैं भी कानपुर नहीं जाऊँगी।” बोलकर दादी किचन में घुस गयी।

मरता क्या ना करता, वल्लभ ने नहा धो कर संध्या वन्दना की। फिर दादी के बनाए खाने को भोग लगा कर छोटी सी पूजा की। उसके बाद राम जी के मंदिर के परदे डाल कर उन्हें सुला दिया। उसके बाद खाना खाने जब बैठा तो उसे भौमि की बात याद आई। उसने दादी से पुछा “भौमि कह रही थी कि आप अयोध्या मेरी वजह से जा रहे थे। ऐसा क्यों ?”

“अच्छा, भौमि मिली मंदिर में ? ये तो तूने पहले बताया ही नहीं।”

“हाँ मिली थी। पर वो सब छोड़ो, जो मैंने पूछा उसका जवाब दो।” 

“बताऊंगी, पर कल की पूजा के बाद।” कह कर दादी ने बात टाल दी।

 

शाम की संध्या वन्दना और पूजा के बाद वल्लभ दादी के साथ आँगन में बैठा हुआ था जब पंडित जी आये। वो अपने साथ पूजा का सारा सामान ले कर आये थे। दो चार लोग और भी थे। सबने मिलकर पूजा की जो तैयारी एक दिन पहले हो सकती थी की। सब काम जब हो गया तो दादी के कहानी सुनाने की बारी आई। उस वक्त तक भौमि और गाँव के और भी बहुत से लोग उनके घर पर इकठ्ठा हो गए थे। वल्लभ को विश्वास ही नहीं हुआ कि गाँव वाले हर साल उसी कहानी को सुनने यूँ ही इकठ्ठा होते हैं। और चूँकि इस बार शायद ये आखिर बार हो रहा था तो और भी ज्यादा लोग आये थे।

दादी ने हर बार की तरह उसी अंदाज में कहानी शुरू की। वो बोलीं “तो बात तब की है जब वल्लभ के दादा जी अभी वल्लभ जितना ही बड़े रहे होंगे। उस समय वो बहुत गुस्से वाले थे। हमारी शादी को तीन  साल हो गए थे पर कोई संतान नहीं थी। अचानक एक दिन हमारे आस पड़ोस के परिवारों के बच्चे किसी बीमारी से मरने लगे। सबको लगा कि क्योंकि मुझे बच्चे नहीं हो रहे थे तो मेरी बाँझ नजर उनके बच्चों को लग रही थी जिसकी वजह से वो मर रहे थे। पहले तो यह बात सिर्फ अडोस पड़ोस में ही होती थी। फिर धीरे धीरे पूरे गाँव में फैलने लगी। मैंने बहुत कोशिश की कि वल्लभ के दादा जी को इसका पता नहीं चले पर एक दिन यह बात उनके कान में पड़ ही गयी। उन्हें बहुत गुस्सा आया। पहले तो उन्होंने झगड़ कर सबकी धारणा बदलने की कोशिश की फिर शान्ति से समझाने की भी कोशिश की पर किसी ने नहीं सुनी और तो और लोगों ने हमें विवश कर दिया कि हम गाँव छोड़ कर चले जाएँ। पर वो यूँ ही शान्ति से जाने वाले नहीं थे। उन्होंने भी गुस्से में आकर गाँव वालों को श्राप दे दिया कि इस गाँव में अब कभी किसी को कोई संतान नहीं होती और तो और इस गाँव की धरती भी बाँझ हो जायेगी। ऐसा श्राप दे कर वो मुझे ले कर पड़ोस के गाँव चल दिए। श्राप तो उन्होंने दे दिया पर उनका मन उस दिन के बाद बहुत दुखी रहने लगा। यह अपराध बोध कि उन्होंने अपनी ही म�

About Author: Pratyasha Nithin

Pratyasha Nithin is a budding writer and a self-taught artist currently residing in Mysore, India. She has written articles and blog-posts on women’s issues. She is passionate about story-telling and believes that it is a powerful medium to convey ideas and ideals.

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