परम्परा बनाम प्रगति

सबरीमाला में स्वामी अय्यप्पा के मंदिर ने हिन्दुओं को भी दो भागों में बाँट दिया है - एक वर्ग जो परम्परा के बचाव में है और दूसरा वर्ग इसे लैंगिक समानता के विरुद्ध मानता है।

परम्परा बनाम प्रगति

सबरीमाला में स्वामी अय्यप्पा के मंदिर में रजस्वला होने के पश्चात् से ले कर रजोनिवृति तक स्त्रियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध हटाने के शीर्ष न्यायलय के निर्णय ने न केवल भारतियों को वरन हिन्दुओं को भी दो भागों में बाँट दिया। एक वर्ग जो परम्परा के बचाव में है और दूसरा वर्ग इसे लैंगिक समानता के विरुद्ध मानता है। दोनों ही वर्गों के अपने पक्ष अपने तर्क। क्या परम्परा का नाश सांस्कृतिक पहचान का विनाश नहीं? क्या सांस्कृतिक पहचान सामाजिक प्रगति में बाधा नहीं ?क्या सांस्कृतिक पहचान को खो कर सामाजिक प्रगति की जा सकती है? लेकिन क्या समाज संस्कृति को परिभाषित करता है अथवा संस्कृति समाज को ?बहुत सारे प्रश्न बहुत सारे उलझे हुए तर्क।

हर सम्प्रदाय की दो पहचान हैं – धार्मिक और सांस्कृतिक। धार्मिक पहचान आध्यात्मिक ज्ञान की दिशा से तय होती है। कहीं भी धर्म एक ईश्वर के अस्तित्व को, उसके निराकार होने को, उसके सर्वशक्तिमान होने, उसके सर्वत्र प्रसार, सभी में उसके विद्यमान होने को नहीं नकारता। धर्म की विलक्षणता उस ईश्वर को पाने के मार्ग पर निर्भर करती है। सनातन धर्म कभी भी ईश्वर को ‘मेरा ईश्वर’ कह स्वामित्व का भाव न जगा कर एक आर्त और जिज्ञासु का भाव जगाता है जिसका लक्ष्य ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाना है। अपने हर कर्म से कर्ता होने का भाव मिटा समर्पण का भाव जगाता है। इसमें किसी ‘दूसरे’ ईश्वर को मिटा देने का विचार तक नहीं। वो सभी मार्ग जो जिज्ञासु को ईश्वर तक ले जाएं वो उचित हैं, आदरणीय हैं।

यदि सनातन धर्म एक ईश्वर को मानता है तो तैंतीस करोड़ देवी देवता क्यों? क्यों इतनी भिन्न-भिन्न पूजा पद्धति? सभी पद्धतियाँ हिन्दू धर्म के अंतर्गत मान्य कैसे? तैंतीस करोड़ देवी देवता हमारी सांस्कृतिक धरोहर और पहचान हैं। क्योंकि हिन्दू धर्म, धर्म होने के साथ साथ जीवन शैली और दर्शन भी है। प्रत्येक देवी देवता जीवन दर्शन से जुड़े हुए व्यवहारिक और चारित्रिक आदर्श है। वैदिक जीवन शैली में आयु को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है – ब्रह्मचर्य , गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। जो मंदिर बनाए गए वो भी इन चार आश्रमों की पालना की पद्धति पर आधारित बनाए गए। यह कहा जा सकता है कि इन मंदिरों में व्यक्ति भेद नहीं, आश्रम भेद है।

ब्रह्मचर्य के मंदिर चरित्र निर्माण के लिए हैं जिसमें प्रार्थी एक शारीरिक और मानसिक बल की शिक्षा के शिष्य की भांति जाता है। महिलायों में प्राकृतिक रूप से पुरुषों से अधिक ऐन्द्रिय संयम माना गया है। रजस्वला होने के पश्चात् वो ब्रह्मचारिणी अवस्था से निकल शक्ति, गृहणी, माँ के गुण निर्माण के लिए शिव-शक्ति का ध्यान करती हैं। यह शिक्षण पद्धति दोनों की प्राकृतिक संरचना के अनुरूप बनाई गई है। कोई भी समाज उन्नति के लिए अपनी प्रत्येक इकाई की चारित्रिक शक्ति पर निर्भर करता है।  शिव पर सर्पों का श्रृंगार इसी का प्रतीक है कि पुरुष की इन्द्रियाँ दमित नहीं नियंत्रित रहें तो वो उसका श्रृंगार हैं। यह आत्म-संयम और अनुशासन की शिक्षा पुरुष को ब्रह्मचर्य मंदिर में मिलती है। और वहाँ की पूजा पद्धति भी इसी को ध्यान में रख कर बनाई गई है। एक गृहणी ब्रह्मचर्य के मंदिर से वर्जित क्यों हास्यास्पद और निर्मूल लगता है। यह भेद नहीं उसके व्यक्तित्व पर श्रद्धा है कि उसे आत्म-संयम की शिक्षा की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। गृहस्थ आश्रम की सफ़लता की प्रार्थना के लिए भी शिव-शक्ति और लक्ष्मी-नारायण मंदिर हैं। वानप्रस्थ तक जीव आध्यात्मिक रूप से इतना परिपक्व हो जाना चाहिए कि वो भौतिक इच्छाओं को सीमित कर निराकार पर ध्यान केंद्रित कर सके।

हिन्दू धर्म में कई उप समुदाय भी हैं और हर समुदाय की विशिष्ट पहचान मान्य है। प्रत्येक उप-समुदाय के अपने विशिष्ट प्राकृतिक जीवन शैली के अनुरूप पृथक जीवन दर्शन हैं और उसी जीवन दर्शन पर आधारित उनके स्वस्थ जीवन आदर्श हैं। वो आदर्श उनके देवी-देवता हैं जिनकी पूजा पद्धति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनुभव के आधार पर निर्मित एक स्वस्थ जीवन शैली की नियमावली की निरंतर पालना सुनिश्चित करती है। साम्प्रदायिक पहचान लोगों को संगठित रखती है, एक सामूहिक अपनेपन का आभास देती है। स्वतंत्र विचार के पक्षधर सम्प्रदाय की तुलना पतंग की डोर से कर सकते हैं कि हर इकाई की उड़ान तो है लेकिन बंधन की लम्बाई की सीमा भी है। तो बिना बंधन के विमान का भी एक मूल प्रस्थान निश्चित है जहाँ उसे गंतव्य प्राप्ति के पश्चात् लौट कर आना ही है। बिना लौट कर आने वाले रॉकेट का शून्य में विलीन होना निश्चित है लेकिन अपने जीवन काल में मूल स्थान से ही नियंत्रित रहता है। प्रवासी पक्षी भी अपने समुदाय से छिटकते नहीं न ही अपनी मूल पहचान विस्मृत करते हैं।

अब प्रश्न यह कि मेरा जीवन, मेरी जीवन शैली इसके लिए कोई भी नियम नियत करने वाला कौन होता है। नियम त्रुटियों के अनुभव और पृष्ठ सीख पर आधारित होते हैं। यदि कोई  पिछली गलतियाँ जिनका समाधान निकाला जा चुका है उन्ही से ही अपनी सीख प्रारंभ करना चाहे तो यह उसकी समझ का फ़ेर ही कहा जाएगा। यातायात सुरक्षा नियम इसी की उदाहरण हैं। मानो तो आप अगले अनुभवों के लिए सुरक्षित हो नहीं तो पिछले अनुभवों के परिक्षण की भेंट चढ़ जाओ। नियम को चुनौती देने से पहले उसकी तार्किक पृष्ठभूमि ज्ञात कर लेनी आवश्यक है। इसीलिए चुनौती देने वाले की पात्रता का प्रश्न भी उठना अवश्यम्भावी है। जिसे यह न ज्ञात हो कि नियम का उद्देश्य क्या है उसके निराधार होने का निर्णय कैसे ले सकता है। जब तक यह किसी दूसरे सम्प्रदाय से किसी भी प्रकार से टकराव में नहीं, किसी को आहत नहीं कर रही, किसी के अधिकारों का हनन नहीं कर रही, किसी पर अनावश्यक बाध्य नहीं  तब तक परम्परा कुरीति कैसे हो सकती है।

जब भी परम्परा की वैधता को चुनौती मिले तो समूचे सम्प्रदाय को लोकतान्त्रिक मत से उस चुनौती पर दो आयामों पर विचार करना चाहिए प्रथम क्या परम्परा विशेष सामाजिक प्रगति में बाधा बन रही है द्वितीय क्या चुनौती साम्प्रदायिक पहचान में सेंधमारी का प्रयास है। यदि चुनौती प्रथम आयाम पर खरी नहीं उतरती तो समूचे सम्प्रदाय का कर्तव्य है कि उस परम्परा की रक्षा करे फिर चाहे वो परम्परा एक उप-वर्ग तक ही सीमित क्यों न हो। क्योंकि किनारों के क्षरण से भूमि के विलुप्त होने के मध्य अधिक अंतराल नहीं होता।

About Author: Anju Juneja

Anju Juneja is a homemaker, who loves to write about topics related to Hinduism in a simple language that is understood by all. This is one way in which she fulfills her Dharmic responsibilities towards the society.

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