दिव्याङ्गनावृन्दनिषेविताय स्मितप्रभाचारुमुखाम्बुजाय।
त्रैलौक्यसम्मोहनसुन्दराय नमोऽस्तु गोपीजनवल्लभाय॥
परब्रह्म श्रीकृष्णकी निजानंदात्मिका लीला एवं व्रजगोपांगनाओंका भक्तिरस
दिव्याङ्गनावृन्दनिषेविताय स्मितप्रभाचारुमुखाम्बुजाय।
त्रैलौक्यसम्मोहनसुन्दराय नमोऽस्तु गोपीजनवल्लभाय॥
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उपक्रम
स्थूलके भीतर रहनेवाली सूक्ष्मको जान पानेकी मानवकी बुद्धिमें चलता मन्थन दर्शन या तत्त्वज्ञान होता है। उस सूक्ष्मको जान लेनेके बाद बुद्धिको जंचते सांचोंमें स्थूलको ढालनेका मन्थन विज्ञान होता है। सूक्ष्मकी अनुभूति प्राप्त करनेके भावसे मानवके ह्रदयमें होनेवाली चहल-पहल धर्म है; एवं उस सूक्ष्मकी अनुभूतिके अव्यक्त आनंदको अभिव्यक्त करने हेतु ह्रदयको लुभानेवाले सांचेमें स्थूलको स्थापित करनेकी चहल-पहल रसाभिव्यक्ति किंवा रसानुभूति है।
कोई दार्शनिक हो या धार्मिक अथवा कोई वैज्ञानिक हो या कलाकार, जो समग्रताके बोध या स्वीकृतिके हेतु सक्षम नहीं हो पाता, उसे न तो सत्य उपलब्ध होता है और न वह उसे प्रकट ही कर पाता है। जिसके समक्ष सत्य प्रकट नहीं हो पाता, वह ब्रह्मको पहचान नहीं पाता; फलतः ऐसे व्यक्तिके दर्शन, कला, विज्ञान एवं धर्माचरणमें रस प्रकट नहीं हो पाता, क्योंकि रस स्वयं उपनिषत्प्रतिपाद्य परमतत्त्व ब्रह्म है; रसो वै सः (तैत्ति.उप.2।7). जिसे रसानुभूति नहीं हो पाती; वह आनंदी नहीं बन पाता; रसह्येव अयं लब्ध्वा आनन्दी भवति। (तैत्ति.उप.2।7)
यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि ब्रह्मरसको प्रकट कैसे किया जाए? रसोत्पत्तिके उपाय क्या? एवं ऐसी ब्राह्मिकी रसानुभूतिका अधिकारी कौन? वेदोंके संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक ग्रंथोंमें; इसी तरह स्मृति, धर्मसूत्र, पुराण, तन्त्रागम आदि ग्रंथोंमें भी मिलते धर्मनिरूपणमें; या उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, गीता, भागवत आदि ग्रंथोंमें प्राप्त होते तत्त्वचिंतनमें, या आयुर्वेद, ज्योतिष, भाषाविज्ञान, योगशास्त्र, वास्तुविज्ञान आदि विज्ञानकी विकसित भारतीय विधाओंमें अथवा उसी तरह रामायणसे प्रारंभ कर मध्यकालीन एवं सांप्रतकालीन प्रांतीय भाषाओं पर्यन्त प्रकट हुए साहित्य या संगीतकला, नृत्यकला, चित्रकारी या मूर्तिकला आदिमें व्यक्त होनेवाली रसदृष्टिमें अपवादरूपेण ही अपनी भारतीय आर्षपरम्परामें कहीं-कभी नैल्यावरोध (ग्लूकोमा)की बाधा प्रकट हुई है।
आधुनिक युगमें परंतु पाश्चात्य संस्कृति द्वारा उच्छ्वसित अंगारकवायुका प्रदूषण अब अपने धार्मिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और ललितकलाजगत्के वातावरणमें भी बढ रहा है। परिणामस्वरूपेण अपनी भारतीय संस्कृतिकी प्राणोपमा ब्राह्मिकी विशुद्ध एवं निर्गुण रसदृष्टिमें शास्त्र संचारित प्राणवायुका अनुपात भी घटता हुआ सा दिखलाई देने लगा है। अतः कर्मकाण्ड, पूजा-प्रणाली, भक्तिभाव जैसे कई धार्मिक शब्दोंका हम निंदावाचक शब्दोंके रूपमें प्रयोग करने लगे हैं जिसके परिणामस्वरूप; इन सभी धार्मिक क्रियाओंमें अन्तर्निहित हमारी रसदृष्टिको समझ पानेकी मानसिकता हमने खो दी है। हममेंसे कई ऐसा भी कहते पाए जाते हैं कि पर्वत, नदी, पशु, वृक्ष, पक्षी, पत्थर या धातुकी मूर्तिमें देवबुद्धि रखकर पूजाका, भक्तिका कर्मकाण्ड तो अपनी अविकसित-असभ्य-जंगली अवस्थामें पनपी अन्धश्रद्धाके उहादरण हैं! खैर! धार्मिक, दार्शनिक एवं संगीत, नृत्य आदि कलाओंके क्षेत्रोंमें उस वातावरणको पुनः शुद्ध और स्वच्छ बनाना हो तो; उस रसदृष्टिको पुनः भलीभांति पहचानना और प्रतिष्ठापित करना आवश्यक लगता है।
अतः प्रस्तुत सन्दर्भमें आधुनिक समाज द्वारा शृंगाररसके सर्वसामान्य उदाहरणतया कामभावात्मिका रसाभिव्यक्तिके रूपमें विचारित व्रजगोपांगना एवं लीलाविहारी श्रीकृष्णके परस्पर आधिदैविक भोग्य-भोक्तृभावके सन्दर्भमें कुछ बिंदुओंका विचार प्रस्तुत आलेखमें प्रयोजित करना आवश्यक लगता है।
(1) सर्वप्रथम भजनीय भगवान श्रीकृष्णके स्वरूप और लीलाका विचार
(2) द्वितीय बिंदु है; उस लीलामें परिकररूप गोपीजनोंके स्वरूप और भावका विमर्श
(3) तृतीय बिंदु है; उस लीलाका ब्राह्मिक पक्ष एवं भक्तिका रसदृष्टिसे विमर्श
(4) चतुर्थ बिंदु है; उस लीलाके कारण आधुनिक जीवोंके लिए अनुसरणीय भाव और अनुकरणीय भजनरीतिका स्वरूप और आपसी तारतम्यका विचार
उपनिषदोंके अनुसार सृष्टिके परमतत्त्व ब्रह्मको सच्चिदानंद स्वरूप माना गया है. उपनिषद् प्रतिपादित करते हैं कि हमारी सभी बाह्यानुभूतिके अपरिहार्य घटक एवं उनमें गोचर, नाम-रूप और कर्म होते हैं…ब्रह्म ही इन सभी नामोंका….रूपोंका…कर्मोंका भरण करता है. अतः इनके तीन होनेपर भी यह आत्मा तो एक ही रहता है. इसी तरह यह आत्मा एक होनेपर भी इन तीनों रूपोमें प्रकट होती है। (बृह.उप.1।6।3) एतावता सिद्ध होता है कि जागतिक अनन्तविध नाम-रूप-कर्मोंके द्वैत ब्रह्माद्वैतमें एकवद्भावापन्न होकर रहते हैं और इसी तरह ब्रह्मकी एकमेवाद्वितीयता ही नाम-रूप-कर्मोंके अनन्तविध द्वैतोंमें अपने-आपको प्रकट करती है। मूलमें ये सारे नाम-रूप-कर्म सच्चिदानंद ब्रह्मके लीलाविलासमें आत्मानन्दके उपभोगार्थ प्रकट हुए होनेसे स्वयं आत्मना विभक्त ब्रह्मको भोग्य-भोक्तृभावापन्नतया प्रकट करते हैं: उसे एकाकितया रमण करना न सुहाया। अतएव उसके भीतर अपनेसे भिन्न दूसरेकी अभिलाषा प्रकट हुई. उसने अपने-आपको दो तरह विभाजित कर लिया। अतः पति भी और पत्नी भी वह स्वयं ही बन गया. यह दिखलाई देता सभीकुछ पहले अव्याकृत था। अतः उसने ही स्वयंको अनेक नामों और रूपोंमें व्याकृत किया। तत्तद् नाम और तत्तद् रूपको धारणकर वही यहां वस्तुमात्रमें प्रविष्ट हुआ है। (बृह.उप.1।4।2-7) सृष्टिके अन्तर्गत नाम-रूप-कर्मात्मक भोग्यरूप जडजगत् ब्रह्मके सदंशसे प्रकट हुआ है, भोक्तृरूप जीव ब्रह्मके चिदंशसे एवं सर्वान्तरात्मा अन्तर्यामी ब्रह्मके आनंदांशसे प्रकट हुए हैं।
भोग्य-भोक्तृ-प्रेरक होनेके त्रिकको केवल आधिभौतिकरूपमें परिसीमित मानना उपपन्न नहीं होता है. स्पष्ट है कि आधिभौतिक त्रिकमें जड विषय भोग्यभावापन्न बनते हैं; तब स्थूलशरीरोपेत जीवात्मा भोक्तृभावापन्न बनता है; और उसमें प्रेरक बनता है परमात्मा. इसी तरह बाह्य विषयोपभोगके हेतुभूत पाञ्चभौतिक शरीरके छूट जानेपर भी सूक्ष्मशरीर द्वारा जीवात्मा शरीर द्वारा कृत कर्मोंके फलरूप सुख-दुःखोंका जो भोग करता है; उसे आध्यात्मिक भोग माना जा सकता है। वैषयिक सुख-दुःखोपभोग करनेवाला यह देही जीवात्मा स्वयं भी परमात्माकी निजानन्दरमणात्मिका लीलामें भोग्यभावापन्न बन जाता होनेसे उसका भोक्ता परमात्मा ही माना गया है। यह बात अत्ता चराचरग्रहणात्, प्रकरणात् च, गुहां प्रविष्टौ आत्मानौ हि तद्दर्शनात्। (ब्रह्म.सू.1।2।9-11) सदृश ब्रह्मसूत्रोंमें प्रतिपादित हुई है. इसी चराचरके भोक्तारूपी परमात्माके स्वरूपानंद और/अथवा लीलानन्द या भजनान्दका उपभोग जब मुक्तात्मा या भक्तात्मा करते हैं; तब वही परमात्मा भी भोग्यभावापन्न बन जाता है – ब्रह्मवेत्ता परमफलको प्राप्त करता है…ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्तरूप होता है। उसे जो अपनी ह्रदयगुहाके भीतर परमव्योममें अन्तनिर्हित जान पाता है; वह विपश्चिद् ब्रह्मके साथ अपनी सारी कामनाओंके अनुसार भोग करने समर्थ हो जाता है। (तैत्ति.उप.2।1), इन्द्रियोंका अपने रूप-रास-गन्ध-स्पर्श-शब्दादिरूप अर्थोंमें राग-द्वेषात्मक भोक्तृभाव व्यवस्थानुगत रहता है, अपने मनको बाहरी विषयोंमें भटकनेसे रोककर जो उन्हें अपने वशमें ला पाता है वह….ब्रह्मके अत्यन्त सुखरूप स्पर्शका उपभोग कर पाता है। (भग.गीता.6।26-28, 9।23-24) अतः हम देख सकते हैं कि जिस आनंदमयको परमात्मा माना गया है, उस आनंदमय परमात्माकी प्राप्तिके बाद भी तैत्तिरीयोपनिषद्में वर्णन आया है कि, इस आनंदमय परमात्माको पा लेनेपर सभी लोकोंमें अपने दिव्य कामोंका उपभोग करता हुआ ब्रह्मज्ञानी अनुसञ्चरण कर पाता है। (तैत्ति.उप.3।5) इस कामोपभोगको, अतः केवल आधिभौतिक या केवल आध्यात्मिक मानना ब्रह्मके स्वरूप और उसके साक्षात्कारके दिव्य रहस्यके बारेमें हमारे अपरिचयका द्योतन है।
तदनुसार श्रीमद्भागवतदशमस्कन्धके अठ्ठाहरवें अध्यायमें भोग्यभावका स्त्रीभावके रूपमें तो भोक्तृभावका पुम्भावके रूपमें प्रतिपादन प्राप्त होता है। श्रुतिवचनमें भी ब्रह्मका आत्मविभाजन स्त्री-पुरुषके द्वैतमें प्रतिपादित हुआ है। वहां आत्मविभाजनको केवल स्त्री-पुरुष शब्दवाचीद्वैतमें सीमित नहीं माना जा सकता क्योंकि अनेक जीवयोनियां स्त्री-पुरुषके भेद बिना भी सृष्टिमें प्रजोत्पादिका बनती हैं; यह प्रमाणित है। अतः स्त्री-पुरुषात्मक विभाजनको आत्मविभाजनकी अन्यान्य विधाओंका उपलक्षण मानना चाहिए।
भोग्यभाव = स्त्रीभाव, भोक्ृताभव = पुम्भाव और साक्षिभाव = तृतीयभाव; तीनों प्रकट या गूढ हो सकते हैं
श्रीमद्भागवतमें यह प्रतिपादित हुआ है कि प्रत्येक प्रकट पुम्भावके अंदर एक गूढस्त्रीभाव निहित रहता है और इसी तरह प्रत्येक प्रकट स्त्रीभावके भीतर एक गूढपुम्भाव निहित रहता है. अतएव ऐसे सन्दर्भमें भागवतकार कहते हैं: श्रीकृष्णके भीतर जो स्त्री(=भोग्य)भाव निगूढ रहता है; वही भक्तिमार्गमें परम अभीष्ट स्वरूप कृष्ण पदार्थ है, जिसका विवरण कभी-कहीं प्रकट होता है। (भाग.पु.10।18।5). भक्तकी फलावस्थामें भगवान उसके भोग्य बनते हैं एवं साधनावस्थामें भक्तके सेवक होनेके बात वह भगवानके भोगका विषय बनता है; एवं भगवान भोक्ता. अतः हम समझ सकते हैं कि श्रीकृष्णके दो तरहके सौंन्दर्योंमेंसे एकको सर्वगोचरतया प्रकट और दूसरेको अधिकारिविशेषैकगोचरतया निगूढ माना जा रहा है। साथ ही साथ पूर्वोदाह्रत श्रुतिवचनमें जो उसने अपने-आपको दो तरह विभाजित कर लिया। अतः पति भी और पत्नी भी वह स्वयं ही बन गया। (बृह.उप.1।4।2-7) ऐसे पति-पत्नीके द्वैविध्यमें आत्मविभाजनके निरूपणके कारण श्रीकृष्णके आधिदैविक सौन्दर्यको ऐकान्तिकतया केवल शृंगाररसात्मक आलम्बनविभाव अथवा स्थायिभाव होनेके रूपमें निहारनेका दृष्टिकोण तत्तद् रसिकभक्तोंके ह्रद्गत भावोंके उद्गारोंके आधारपर प्रस्तुत किया गया है। अतएव गूढपुम्भाव और गूढस्त्रीभावको भी केवल शृंगाररसके परिसीमित अर्थमें स्वीकारनेकी और श्रीकृष्णको भी केवल शृंगाररसके नायकके रूपमें प्रस्तुत माननेकी परिपाटि चल पडी है।
स्वरूपतो ब्रह्म सर्वरसात्मक परंतु लीलया एक विशेषरसात्मक श्रीकृष्ण
यह परब्रह्म परमात्मा भगवानकी श्रीकृष्णावतारकी लीलाके कालमें व्रजगोपिकाओंके सन्दर्भमें कथंचित् उचित या उपपन्न माना जा सकता है; फिर भी इन्हीं श्रीकृष्णके परब्रह्म-परमात्मा-परमेश्वर-क्षराक्षरातीत-पुरुषोत्तम-भगवान् होनेके दूसरे पक्षमें ऐकान्तिक तथ्यतया मान्य नहीं हो पाता। क्योंकि भाष्यकार सुस्पष्टतम शब्दोंमें कहते हैं – ब्रह्म रसो वै स और सर्वरस जैसे श्रुतिवचनोंके आधारपर सर्वरसात्मक निर्णीत होता है। अतः जिस रसके जैसे या जो भी विभावानुभाव आदि होते हैं, उनसे वह रस सम्पन्न होता है. अतः तन्तुओंके आतान-वितानवश जैसे पट निष्पन्न होता है; वैसे ही सभी और किसी भी रसकी अपेक्षित सभी सामग्रियोंसे ब्रह्मका अभेद स्वीकारना ही उचित है। (ब्रह्म.सू.3।3।10) एतावता शास्त्र प्रतिपादित अद्वैतवादमें श्रीकृष्णको केवल शृंगाररसात्मा नायक स्वीकारनेपर या तो शुद्धाद्वैतवादका प्रत्याख्यान हो जायेगा; अन्यथा औपनिषदिक ब्रह्माद्वैतकी तुलनामें रसशास्त्रीय मानदण्डोंको प्रधान माननेपर अवतारकालीन नायक-नायिकारूप द्वैतके प्रकट हो जानेके कारण ही भगवानको शृंगारात्मा मान जा सकता है। अन्यथा अनवतारकालमें भक्तिमयी मनोवृत्ति द्वारा भगवानको शृंगारात्मकतया भावित करनेको रसशास्त्रीय नियमोंको मान्य रखनेपर तो रसाभास ही प्रकट होगा। अतएव पण्डित जगन्नाथ कविराज कहते हैं:
अब पूछा जाए कि इतने ही रस क्यों माने जाते हैं? क्योंकि भगवानको आलम्बन बनाकर प्रकट होेनेवाले रोमाञ्च, अश्रुपात आदिके द्वारा अनुभावित हर्ष आदि द्वारा परिपोषित, भागवत आदि पुराणोंके श्रवण करते समय भगवद्भक्तोंको भक्तिरसकी जो अनुभूति होती है, उसका अस्वीकार कैसे संभव हो सकता है? अतः भगवदनुरागरूपा भक्तिको स्थायिभाव मानना चाहिए। यह उचित नहीं क्योंकि भक्तिकी मनोवृत्ति देव आदिके बारेमें केवल भावके रूपमें प्रकट होती होनेसे रसके रूपमें मान्य नहीं हो पाती। यदि कोई कहे कि ऐसा माननेपर तो कामिनीके बारेमें रतिको भी भाव ही क्यों नहीं मान लिया जाता? इस विषयमें समाधान यह है कि भरत आदि मुनियोंके वचनोंके आधारपर ही किसे केवल भाव और किसे स्थायीभावरूप रस मानना, इस विषयकी व्यवस्था सुनिर्धारित होनेसे स्वच्छन्द कल्पनाओंको प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। (रसगंगा.1)
एतावता सिद्ध होता है कि श्रीकृष्णको परब्रह्म-परमात्मा-परमेश्वर-क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम-भगवान् मानने हों अर्थात् केवल शृंगार रसनायक लौकिक पुरुष नहीं; तो मूलमें आत्मरतिशील परमात्माकी आत्मरति ही श्रीकृष्णके भक्तोंके भीतर प्रकट होती माननी पडेगी। क्योंकि श्रुतिमें कहा गया है कि; यही तो इसका परम आनंद है। इसीके आनंदकी क्षुद्र मात्राओंका अन्य सारी जीवभूत चेतना उपजीवन करती हैं, यहां कुछ भी अपने-आपमें प्रिय होनेके कारण प्रिय नहीं लगता; प्रत्युत उस परमात्माके प्रिय होनेके कारण प्रिय लगता है। (बृह.उप.4।3।32,2।4।5) यह पारमात्मिकी प्रियता न तो शृंगाररसमें परिच्छिन्न स्त्री-पुम्भावात्मिका होती है; और न भजनीयकी आराधनामें पर्यवसित होती भक्त-भगवद्रूपा भजनात्मिका ही. इनसे सबसे परे यह तो तात्त्विकी प्रियता है।
उपनिषद् तथा भागवतके अनुरूप भगवानके रसरूपताके मूलभूत पक्षकी विवेचना इस प्रकार की जा सकती है:
अतः स्नेह तो एक पदार्थान्तर ही है. वह भगवन्निष्ठ एव भगवद्विषयक ही होता है; जैसे ज्ञान या ऐश्वर्य भगवानके साथ सम्बन्ध जुडनेपर निकटताके कारण अन्यत्र भी प्रकट हो जाते हैं। उदाहरणतया अग्निकी निकटताके कारण ऊष्णता अन्यत्र भी संक्रान्त होती है। जो जितना भगवानके अधिक निकट होता है; उतना अधिक स्नेह उसमें प्रकट होने लगता है. (भाग.पु.1।19।16), प्रीति तो भगवान्का ऐसा धर्म है जिसे भगवान् सभी जीवात्माओंके बीच उन्हें सुखानुभूतिके हेतु खण्डशः बांटते हैं. अतः जो जिसे चाहने लगता है उसे वहां सुख मिलने लग जाता है. वस्तुतः तो निजसुख ही स्वयंको मिलता है। (भाग.पु.2।2।7) स्पष्ट है कि यहां स्नेह या प्रीतिके प्रकट होनेकी प्रक्रिया रसशास्त्रीय न होकर वेदान्तशास्त्रीय अथवा भागवतशास्त्रीय ही है। अतएव भागतवमें कहा गया है कि; भगवान् जब स्वयं जगत्में भोक्ता बनकर जगत्को भोग्यभावापन्न करना चाहते हैं तब सभी कुछ लक्ष्मीरूप बन जाता है। जब भगवान् प्रकट होना चाहते हैं; तब अनन्त शक्तिओंके बीचमें सर्वप्रथम श्रीरूपा शक्ति जो पहले बलकी तरह भगवान्के भीतर अवस्थित रहती है; वही भगवानकी भोग्य, भार्या या प्रिया बनकर प्रकट हो जाती है। वह अपने-आपमें सच्चिद्रूपा होनेपर भी उसका विग्रह अक्षरब्रह्मानंदरूप होता है। भगवदवतारके समय सभी (ऐसे गुप्तानंद) भगवद्भोग्य या तो लक्ष्मीरूप होता हैं; या उसके आवेशवाले। (भाग.पु.2।9।13-14)
भक्ति भी एक स्वतन्त्र रस है
अतएव इन सारे रहस्योंको ध्यानमें रखते हुए अवतारवादावलीकार श्रीपुरुषोत्तमजी अपने ग्रंथ भक्तिरसत्ववादमें आज्ञा करते हैं: शृंगारके स्थायिभावतया अभिमत रति भी स्नेहका ही एक प्रकाश विशेष हातेा है। अतः शृंगारात्मिका रति ही रसरूपा होती है; परंतु केवल स्नेह हीं. इसमें किसी तरहकी विनिगमना न होनेके कारण दोनोंको पृथक्-पृथक् रस मानना चाहिए। अतः नायिकाकी नायकके बारेमें और नायककी नायिकाके बारेमें रति जैसे (भरतादि मुनिओंके वचनके प्रामाण्यके अनुरोधवश) शृंगाररूपा मानी जाती है; वैसे ही माता आदिका पुत्र आदिके बारेमें और पुत्र आदिका माता आदिके बारेमें स्नेह वात्सल्यरसात्मक (विभावानुभाव-संचारिभावोंसे निष्पन्न स्थायिभावके प्रकट होनेकी प्रक्रियाके यहां भी उपपन्न हो जानेके कारण) क्यों रस नहीं माना जा सकता? इसी तरह भगवद्विषयिका निरुपाधिका रतिको भी चाहे वह संयोगात्मिका हो या विप्रयोगात्मिका; अलौकिक होनेके कारण मुख्य रस (आत्म-परमात्मरतिरूपा भक्ति) के रूपमें स्वीकारने चाहिए, रसो वै सः – इस श्रुतिके आधारपर भगवान्को रसरूप माना गया होनेसे. यहां यह उल्लेखनीय है कि मूलतः तो लौकिक रति ही उपाधिजन्य होनेके कारण स्वयं रत्याभासरूपा होती है। (अव.वादा.भक्तिरस.वाद)
भगवानके दर्शनमात्रसे भक्तके ह्रदयमें प्रकट हुए विविध रसोंकी विवेचना करते हुए भागवतमें कहा गया है- भगवान्ने इस तरह रंगमंचपर प्रवेश किया कि सभीके अपने-अपने अधिकारोंके अनुसार ह्रदयगत रसभाव परिपुष्ट हो गये। (भाग.पु.10।40।17) अतएव रसदृष्टिसे उत्पन्न हुई अनुपपत्तिका भी समाधान यहां इस तरह मिल जाता है कि जहां सांसारिक रसोंका अभिनय करना उपयुक्त हो, वहां भरतादि मुनियों द्वारा निर्धारित रसोंकी आठ संख्याका कोई नाट्यशास्त्रीय औचित्य होता होगा पर असांसारिक दिव्य भगवत्स्वरूपका श्रवण-कीर्तन-अभिनय या भावन करना हो तो उपनिषद् एवं भागवतपुराणके आधारपर रसोंको आठ संख्यामें परिसीमित नहीं माना जा सकता।
लीलार्थ श्रीकृष्ण शृंगारैकरसात्मा हो सकते हैं फिर भी सर्वात्मभावपूर्वक भजनार्थ तो भक्तिरसात्मा ही
श्रीकृष्णको भजनीय मानकर भक्तोंको नवधाभक्तिके प्रारूपमें अपने सभी भावोंका समर्पण भगवानके प्रति करना चाहिए। भागवतकार कहते हैं: देहसे प्रारम्भकर ईश्वर पर्यन्त जिस-किसी भावके अनुसार जितने भी भजनीय होते हैं, वे सारे भाव भगवान्में ही पर्यवसित करके भगवद्भजन करना चाहिए. इन सारे भावोंको भी भक्तिभाव रखते हुए ही भजनौपयिक बनाने चाहिए। (भाग.पु.3।32।22) ऐसी स्थितिमें भगवान्का भजन केवल शृंगाररसात्मक भक्तिभावके रूपमें अधिकारि विशेषके लिए ही अनुमोदनीय सिद्ध होता है; फिर भी भक्तिरसात्मक शृंगारभाव या केवल शृंगाररसात्मकभावके रूपमें भगवद्भजन अनवतारकालमें या प्रमेयबलसे स्वतो-प्राकट्यकालमें अनुमोदनीय नहीं रह जाता।
निष्कर्षतया अतएव यह अवधेय है कि भजनीय भगवानके स्वरूपके बारेमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वह विरुद्धधर्माश्रय उभयव्यपेदशात्त्वहिकुण्डलवत् प्रकाशाश्रयवद्वा तेजस्त्वात् (ब्रह्म.सू.3।2।27-28) न्यायेन साकार=परिच्छिन्न पुरुषोत्तमरूप तथा निराकार=अपरिच्छिन्न अक्षरब्रह्म-धामरूप उभयविध हैं। अतएव उसे एकरस और सर्वरस; यों उभयविध श्रुतियोंमें स्वीकारा गया है। वे शृंगाररसात्मा हैं भी और नहीं भी हैं; अतएव जिस विशिष्ट अधिकारीके समक्ष वह अपना जैसा स्वरूप प्रकट करता है वैसे ही उसका स्वरूप वस्तुतः उस अधिकारीके हेतु बन जाता है; अन्यके लिए अन्यविध भी हो सकता है।
तथैव व्रजमें गोपालरूपेण लीलाके परिकररूप स्वयं उनकी आत्मरतिरूपा क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्तिका ही व्रजगोपांगनाओंके रूपमें मूर्तिमान् होना स्वीकारा गया है। क्रियाशक्तिरूपा गोपिकाओंको श्रुतिरूपा कुमारिका माना गया है और ज्ञानशक्तिरूपा गोपिकाओंको श्रुतिरूपा अन्यविवाहिता माना गया है। प्रथम प्रकारकी गोपिकायें अपने प्रियतम गोपराजकुमारोंके साथ साधन-फलभावके सम्बन्धका उदाहरण हैं। दूसरे प्रकारकी गोपिकायें गौणभाववश अन्यान्य गोपजनोंसे विवाहित या संगत होनेपर भी अपने परम तात्पर्यविषयीभूत प्रमेय श्रीकृष्णके साथ संगत होना चाहती हैं। क्योंकि एक ही प्रमेयभूत श्रीकृष्णतत्त्व अनेकविध नाम-रूप-कर्मोंके रूपमें अनेकविध गोपजनोंके रूपमें प्रकट होनेसे प्रकटार्थ गौण तथा प्राकट्यकारी मूलतत्त्व परमतात्पर्यविषयीभूत रहता माना जाता है। अतएव आत्मरति ही शृंगाररत्यात्मना रासलीलामें प्रकटी हुई हैं. इस बारेमें श्रीमद्भागवतमें दो महत्त्वपूर्ण बातें स्वयं गोपीजनोंके वचन तथा शुकदेवजीके वचनरूपेण इस प्रकार मिलती हैं: (1) आप हमारे ही केवल नहीं परंतु प्रत्येक देहधारीके ईश-प्रेष्ठ-बन्धु और आत्मा सभीकुछ हो. अतएव कुशल व्यक्ति तो आपमें ही अपनी रति निभाते हैं। (भाग.पु.10।26।32-33), गोपीजनोंके और उनके पति गोपजनोंके ही नहीं; अपितु प्राणिमात्रके भीतर परमात्मरूपेण बिराजमान तत्त्व ही श्रीकृष्णरूपेण लीला प्रकट करनेको बाहर प्रकट हुए हैं। वह तो केवल अपने अनुग्रह वर्षाको बरसानेको ही मानुषदेह धारणकर प्रकट हुए हैं। (भाग.पु.10।30।36-37) अतः यह स्पष्ट है कि कामभावसे पूजित होनेके प्रचलनसे सर्वथा विरुद्ध गोपीजनोंको श्रीकृष्णके परब्रह्मरूप होनेका तत्त्वबोध संपूर्णतया सिद्ध ही है।
अतः उस एकमेव अद्वितीय परमतत्त्वका अनेकवद्भावापन्न होना जैसे सृष्टिलीला है वैसे ही आत्मना विभक्त अनेकोंके बीच अन्तर्यामितया अनुप्रविष्ट उस गूढ एकमेवाद्वितीयका पुनः स्वारसिक एकत्वको निभाते हुए अनेकरूपोंमें प्रकट हो जाना ही व्रजगोपांगनाओंके साथ श्रीकृष्ण द्वारा की गई रासलीलाका प्रमुख तार्त्ययविषयीभूत स्थायीभाव है। वह भागवत दशमस्कन्धकी पञ्चाध्यायीमें शृंगारात्मिका लीलाके अभिधान द्वारा निरूपित हुआ है। उसका भी परम तात्पर्य तो उपनिषद्में प्रकटरूपेण अभिहित एकमेवाद्वितीय तत्त्वके नाम-रूप-कर्मोंके अनन्तभेदोंमें प्रकट हो जानेपर उनमें निगूढ एकत्वकी रसानुभूति ही है। अतएव अनेक परमात्मा द्वारा निजानंदके उपभोगार्थ अनेक रूपोंको धारण कर सम्पन्न की गई रासलीलामें भोक्तृभावापन्न श्रीकृष्णके स्वरूपके बजाय उस अनेक रूपोंके समक्ष अपने निगूढ भोग्यभावको प्रकट करनेवाले श्रीकृष्णको धर्मीरूप माना गया है। इसीलिए भागवत दशमस्कन्धके तीसवें अध्यायको धर्मीलीला प्रतिपादक माना गया है; जबकि बत्तीसवें अध्यायमें प्रतिपादित लीलाको आन्तरन्तु परं फलम् (भाग.पु.सुबो.10।26।5) के रूपमें बिरदानेके बावजूद उसे केवल ज्ञानरूप गुणधर्म माना है। अतः जितनी गोपिकायें थी उतने अपने रूप धारणकर आत्माराम भगवान्ने उनके साथ रमणकी लीला की। (भाग.पु.10।30।20) इस प्रकार गूढस्त्रीभाव अर्थात् भोग्यभाव प्रकट करनेवाले श्रीकृष्णको ही धर्मीरूप पूर्णानंद माने गए हैं।
भगवानके प्रति अपने भोक्तृभावका निरूपण करते हुए गोपीजनोंके वाक्य एवं भगवान द्वारा प्रदत्त उत्तरके निष्कर्षरूपेण प्राप्त सिद्धांत प्रस्तुत प्रसंगमें अतीव मननीय प्रतीत होते हैं: भजनार्थ भगवान्का उपयोग चार तरहसे संभव है। (1) भगवान् हमारी कामना पूर्ण करनेवाले हैं, इस कारण उन्हें भोग्य मानना, (2) हमारी कामनाओंकी पूर्तिके अनुबन्धमें भगवान्को बांधे बिना अर्थात् स्वतन्त्र रखते हुए उन्हें भोग्य मानना, (3) भगवान्ने जो कुछ हमारे लिए सुलभ बनाया हो, उसे भक्तिभावके साथ भगवान्को समर्पित कर उसके भोक्ता भगवान्को मानना, (4) जैसे हम विषयोंका भोग करते हैं; वैसे ही भगवान् भी हमारा भोग या हमारे विषयोंका भोग करनेवाले हमारे जैसे क्षुद्र भोक्ता हैं। उत्तररूपेण भगवान आज्ञा करते हैं (1) प्रथम प्रकार तो सर्वथा भजनके स्वारसिकभाव या स्वभावका ही विनाशक होता है। क्योंकि भगवान्का स्वरूप कितना भी दिव्य क्यों न दरसाया जाये, पर विषयतया स्वीकारनेपर उन्हें कालमें परिच्छिन्न अल्प ही मानना पडेगा; भूमा(व्यापक) नहीं। (2) भगवद् इतर वस्तुविषयक हमारी कामनाओंको भगवान् पूर्ण करें या न करें; पर हमें तो भगवान्का भजन केवल भक्तिरसके अनुभवार्थ ही करना हो, तदर्थ भगवान्को भोग्य मानना पडता हो तो कोई दोेष नहीं। (3) इसी तरह ऐसी भक्तिके वश निज आत्मात्मीयको भगवान्को समर्पित करते हैं, उनके भोक्त भगवान्को माननेमें भी कोई दोेष नहीं। (4) परंतु भक्तिभावके भोक्ता मानना भगवान्के आत्मरमणके स्वभावके बारेमें नितान्त अपरिचयको उजागर करना होता है।
एतावता सिद्ध होता है कि प्रेम-आसक्ति-व्यसन-निरोध-सर्वात्मभावके पेहलुओंमें भक्तिके उत्तरोत्तर अभिवृद्ध होते रूपोंमें जैसे गोपीजनोंकी शृंगारात्मिका रति विकसित हुई, वैसे ही श्रीनंद-यशोदाकी वात्सल्यभावात्मिका रति भी विकसित हुई, तथैव गोपसखाओंकी सख्यभावात्मिका रति भी विकसित हुई, अन्य व्रजके गृहदास-दासियोंकी दास्यभावात्मिका रति भी विकसित हुई। अनके भावोंका हमारी भक्तिभावात्मिका रतिमें संचारिभावतया भावन करनेसे हमारी भक्ति ही संयोग-विप्रयोगात्मिका एवं प्रकट/गूढ भोग्य-भोक्तृ-साक्षिभावोंमें भी विकसित हो पायेगी। अतः भक्तिकी नव विधाओंमें श्रवण-कीर्तन-स्मरण-पादसेवन-अर्चन-वन्दन-दास्य-सख्य एवं आत्मनिवेदन अन्तर्गत भक्त अपने सभी लौकिक एवं पारलौकिक भावोंका अपने इष्टदेवके प्रति समर्पण करता होनेसे भगवान श्रीकृष्ण उनकी आत्मा सहित देह-इन्द्रिय-मन-बुद्धि आदि सभीके स्वामी होनेसे भक्त हेतु उसके सर्वस्व हैं। सर्वभावोंके समर्पणमें अतएव जीव द्वारा किसी एक भावमें स्थायी होनेकी अवस्था फलावस्थामें आती है; न कि साधनावस्थामें। भगवान द्वारा फलदान किये जानेपर ही आपके द्वारा प्रदत्त किसी भावमें स्थिर हो पाना संभव है; अन्यथा नवधाभक्तिके विविध पेहलुओंके अन्तर्गत सर्वभावका समर्पण ही भक्तिके आदर्श स्वरूपतया कर्तव्यरूपेण प्राप्त होता है।
परमात्माके ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, आनंद, अनुग्रह और अद्वैतकी ऐसी दिव्यता सूक्ष्मरूपेण तत्त्वतया प्रत्येक स्थूलमें विद्यमान है। यह बात अपने शास्त्रोंके समीचीन अध्ययन करनेपर जानी जा सकती है; परमात्माके माहात्म्यज्ञानके खिल जानेपर यह बात समझी भी जा सकती है; और जीवात्मा तथा परमात्माके बीच विद्यमान सहज स्नेहको यदि असहज और उधार ली हुई धारणाओंसे ढांप न दिया जाए, तो मूर्तिके स्थूलरूपमें सूक्ष्मरूपेण विद्यमान इस दिव्यताकी अनुभूति भी प्राप्त हो सकती है।
उपसंहार
शृंगारात्मिका रति स्नेहका ही एक अन्यतम रूप होती है; अर्थात् नायक-नायिकाके बीच स्नेह शृंगारात्मिका रति कहलाती है परंतु माता-पिता आदिकी पुत्रादिमें रति अशृंगारात्मिका रति होती है। भगवद्विषयिणी शृंगारात्मिका, वात्सल्यात्मिका या आत्मपरमात्मभावात्मिका रति निरुपाधिक होनेके कारण अलौकिक होती है। अर्थात् परमात्माके बारेमें प्राणिमात्रका स्नेह या रति अज्ञानवश सोपाधिक होनेपर भी तत्त्वतः निरुपाधिक ही होता है। लौकिक विषय या व्यक्तिओंके बारेमें आविद्यक स्नेह अज्ञानवश निरुपाधिक लगता होनेपर भी तत्त्वतः त्रिगुणात्मिका प्रकृतिके गुणोंकी उपाधिसे प्रयुक्त ही होता है। भगवद्रति भगवद्-अनुग्रहजन्य होनेपर भगवान्की आत्मरतिका ही लीलाविस्तार होनेसे प्राकृतगुणोंकी उपाधिसे रहित मानी गई है।
सभी रसभावोंका मूल हमारी स्नेहमयी वृत्तियोंमें ही निहित होता है और वह स्नेह तो आनन्दरूप परमात्मामें ही आत्मरतिरूप धर्मतया अवस्थित होता है। ऐश्वर्यादि भगवद्गुणोंकी तरह ही वह भगवान्के आत्मानन्दके लीलाविस्तारके रूपमें हमारे ह्रदयमें भी भगवत्सम्बन्धवशात् भगवान्के निकट हम कितने पहुंच पाते हैं; उस अनुपातमें हमारे भीतर भी प्रकट होता है। उन अगणितानंद भगवानके आनंदकी अनुभूति करनेके लिए ही भागवतकार शृंगार, शांत, करुण, वात्सल्यादि अन्य सभी सर्वमान्य रसोंकी सूचिमें भक्तिरसको साग्रह जोडना चाहते हैं। इसमें निगूढ हेतु हमारे जीवनको भक्तिरससे भरपूर बनाना है। शास्त्रज्ञानविहीन, प्रेमविहीन, भक्तिभावविहीन क्षुद्र लौकिक दृष्टिसे लीलाविहारी श्रीकृष्ण एवं आपके अंतरंग अंशभूत भक्तोेंके संबंधको निहारनेवाले मनोंभावोंसे ऐसा आधिदैविक एवं अलौकिक भक्तिरस अस्पृष्ट ही रह जाता है; एवं परात्पर परब्रह्म एवं आपके निज भक्तोंकी आधिदैविक लीलाओंमें लौकिक भावोंका विचार करनेमात्रसे प्रकटित दोषोंका भी निवारण संभव नहीं रह जाता…!!
॥श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥
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