गज, ज्ञान और गणेश

गणेश उत्सव में गज, मूषक और दूर्वा हमें हर प्राणी और हर वस्तु का स्थान और महत्व समझने की प्रेरणा और ज्ञान देता है।

गज, ज्ञान और गणेश

श्री भगवान ने गीता में कहा है कि मनुष्य अपनी भौतिक इच्छाओं के कारण भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करता है, वास्तव में वो मेरी ही अराधना करता है लेकिन वो यह त्रुटिपूर्ण ढंग से करता है। मेरी भक्ति उनकी श्रद्धा को उनके इष्ट में स्थिर करती है और उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शित करती है। जैसे विष्णु वो अध्यात्म है जो कभी परब्रह्म से गर्भनाल का सम्बन्ध विच्छेद नहीं करता और शिव-पार्वती ऐसे अध्यात्म और भौतिक संतुलन की आदर्श जीवन शैली का दर्शन।

अब प्रश्न उठता है, तो फिर गणेश कौन हैं, क्यों और कैसे वो हर कार्य का आरम्भ हैं। गणेश शिव-पार्वती की जीवन शैली का आरंभ आधार भी हैं और उस जीवन शैली की निरंतरता भी। गणेश वो ज्ञान है जो शारीरिक उत्पत्ति नहीं मानसिक पालन पोषण है।

गणेश मानस पुत्र है, क्योंकि जिज्ञासा, ज्ञान, व्यव्हार कुशलता, व्यापार कुशलता, ऋद्धि, सिद्धि, संतोष, शुभ, लाभ, मानसिक गुण हैं। ज्ञान वही आकार लेता है जैसा मानसिक सक्षमता का पोषण मिलता है।

फिर शिव पुत्र गणेश गजकाय कैसे हैं। एक जिज्ञासु का ज्ञान वकोदर है, वो कभी तुष्ट नहीं होता। ज्ञानी गज की तरह शांत अपने मार्ग चलता रहता है लेकिन वो निर्बल नहीं। उसे राजा भी शिकार नहीं करता। न ही गज अपना वर्चस्व बनाने के लिए किसी का शिकार करता। वो अपने सामाजिक, पारिवारिक दायत्व निभाते हुए, कीचड़ में लोटते हुए भी अपने मार्ग पर मस्त है। एक ज्ञानी के आँख, नाक, कान सब अन्य मनुष्यों से अधिक क्षमता रखते हैं।

गणेश एक दन्त हैं क्योंकि ज्ञान में कभी पूर्णता नहीं होती ज्ञान के स्रोत में पूर्णता नहीं तो ज्ञान गृहण करने वाले में तो कैसे ही होगी। जहाँ पूर्णता का भ्रम हुआ वहाँ गणेश का प्रस्थान हुआ। वो मूषक पर सवार हैं, सृजन और संहार के बीच जीवन चक्र में कोई तुच्छ अथवा हेय नहीं। ज्ञानी तो सदैव नम्रता पर ही सवार होता है और ज्ञान का वाहन विचार है जब तक वो एक स्थूल ठोस परिणाम का आकार नहीं ले लेता, कई सूक्ष्म विचार तीव्र गति में कितने ही भूतल खोद रहे होते हैं।

गणेश को दूर्वा अति प्रिय है। कोई भूमि बंजर नहीं तो सबसे पहले इसका संकेत उसपर उगने वाली घास ही देती है, जहाँ भी जीवन की संभावना दिखती है वहाँ से स्वतः उग आती है। जिज्ञासा वो घास अथवा दूर्वा है जो मानसिक भूमि के उपजाऊ अथवा बंजर होने को इंगित करती है। किन्तु ज्ञान के लिए केवल उपजाऊ मानसिकता पर्याप्त नहीं, उसमे विचारों के अनियंत्रित झाड़ झंखाड़ अथवा जड़े पकड़ बैठ जाने वाला पेड़ न बनना भी उतना ही आवश्यक है। ज्ञान तो अति कोमल, नम्र, लचीला घास सदैव एक शिशु अवस्था में जिज्ञासु और सीखने को लालायित रहेगा।

गणेश गणनायक हैं। हमारे भूत की स्मृतियाँ, भावी की चिंताएं, वर्तमान संघर्ष सब प्रेत और गण हैं जो सदैव हमें घेरे रहते हैं और शिव कहते हैं कि ज्ञान ही इनको नियंत्रित रख सकता है। ज्ञान ही है जो गज की भाँति हर विघ्न को जड़ से उखाड़ सकता है। जिस मंगल की कामना है वो भी ज्ञान से ही अर्जित किया जा सकता है।

गणेश ही प्रथम पूज्य है। किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पूर्व विवेक का आवाहन अति आवश्यक है। केवल शारीरिक चेष्टा और परिश्रम किसी कार्य को सफ़ल नहीं बना सकते। उस कार्य का विवेकपूर्ण नियोजन और लक्ष्य केंद्रित आरम्भ होना अति आवश्यक है। एक सुनियोजित आरम्भ आंशिक लक्ष्य की प्राप्ति है।

अगर सर्वोच्च लक्ष्य परम आत्मा का ज्ञान है तो क्या फिर गणेश पूजन, विसर्जन मिथ्य है। यह कहना वैसा ही है जैसे अगर एक विधा की डिग्री लेनी है तो इतने विषयों की पढ़ाई क्यों। आत्म साक्षात्कार, अध्यात्म और परमात्मा क्या बिना जिज्ञासा और ज्ञान प्राप्त होंगे। भगवान गीता में ज्ञान की सनातनता के विषय में बताते हैं कि यह ज्ञान तब भी था जब कृष्ण और अर्जुन नहीं थे। यह ज्ञान गुरु-शिष्य की परम्परा से निरंतर बहता रहता है।

गणेश वो आध्यात्मिक अनुशासन है जो विचारों को दिशा देकर ज्ञान बनाता है। गज की तरह निर्भय होना भी सिखाता है और पूर्ण समर्पण भी सिखाता है। साष्टांग प्रणाम गज की पूर्ण समर्पण मुद्रा पर ही आधारित है। गणेश की स्थापना का अर्थ है ज्ञान का अर्जन और विसर्जन का अर्थ है ज्ञान को शिष्यों और जिज्ञासुयों में विसर्जित कर उस ज्ञान के चक्र की निरंतरता को सुनिश्चित करना। जैसे जल चक्र की निरंतरता के लिए वर्षा, विसर्जन, वाष्पीकरण आवश्यक है बिल्कुल वैसे ही। इसी कारण ज्ञान को सावन से अगले माह में स्थापित किया जाता है, क्योंकि ज्ञान चेतना के सृजन का अगला चरण है और सावन सृजन के उत्स्व का माह है। और भाद्रपद में पहले गीता ज्ञान के गुरु योगेश्वर श्री भगवान का  प्रकाट्य उत्स्व मना कर ज्ञान प्रकाश के स्थापन और विसर्जन का उत्स्व मनाते हैं।

नित्यकर्म हमें अनुशासित जीवन शैली सिखाते हैं।  नित्यकर्म वो कर्म हैं जो हम भगवान को समर्पित कर एक निश्चित दिनचर्या में करते हैं। हम कोई भी और कार्य में आलस कर सकते हैं, लेकिन जो कार्य हम प्रेम अथवा भय से करें उसमें आलस नहीं करते। तो ईश्वर के प्रति किये कार्य भी हम प्रेम अथवा भय वश ही करते हैं। यह कार्य  अनुभवी जीवन शोध पर आधारित स्वस्थ जीवन के लिए बनाए गए हैं क्योंकि हम सोचते हैं कि स्वस्थ होंगे तो उठेंगे लेकिन वास्तव में हम उठेंगे उद्धम करेंगे तो स्वस्थ रहेंगे। लेकिन भय किसी भी कार्य करने का उत्साह मिटा देता है और उसके तार्किक आधार को मिथ्या प्रमाणित करने में मन को उलझा देता है।

आध्यात्मिक समर्पण और उत्सव प्रेम पूर्ण जिज्ञासा को जगाता है, वो कार्य में उत्साह जगाता है। उत्साह से किया कार्य उसके पीछे छुपे तर्क को उजागर करता है जहाँ से आत्मसाक्षात्कार और परम ज्ञान की राह प्रशस्त होती है।

हमारे वेदों में जीवन चक्र के प्रतेयक चरण और जीवन की आवश्यकताओं को ईश्वरीय कृपा समझाने के लिए ही हर कार्य को दैवीय कार्य बताया गया है ताकि मनुष्य अन्य प्राणियों की ही तरह स्वयं को ईश्वरीय सृजन मानें स्वयं को कर्ता अथवा कारण नहीं माने। प्रत्येक दैवीय कार्य में कोई पशु और कोई वनस्पति भी पूजनीय है। मनुष्य को सब ईश्वरीय रचना में समकक्ष रखने के लिए और छोटी से छोटी रचना का भी ब्रह्माण्ड में महत्व समझने के लिए। गणेश उत्सव में गज, मूषक और दूर्वा हमें हर प्राणी और हर वस्तु का स्थान और महत्व समझने की प्रेरणा और ज्ञान देता है।

About Author: Anju Juneja

Anju Juneja is a homemaker, who loves to write about topics related to Hinduism in a simple language that is understood by all. This is one way in which she fulfills her Dharmic responsibilities towards the society.

Leave a Reply

Your email address will not be published.