श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम, मानवता और आध्यात्मिकता के बीच के गहरे सम्बन्ध को दर्शाता है।
कृष्ण प्रेम (Krishna's love)
भगवान ने गीता में कहा है कि मैं उनकी समझ में आता हूँ जो मुझ पर बिना शंका, अटूट प्रेम और अनन्य भक्ति रखते हैं। निश्चित ही किसी छोटे से सिद्धांत को समझने के लिए भी पहले अपने पूर्वाग्रह त्यागने पड़ते हैं, फिर यह तो आध्यात्मिक प्रेम को समझने की बात है। आज कल की प्रचलित कृष्ण-प्रेम की व्याख्या उनसे ईर्ष्या भी करती है और उनका उपहास भी करती है। इस गहराई तक तो हम पहुँच ही नहीं पाते कि आध्यात्मिक प्रेम लोकतंत्र का आधारभूत ढांचा है। सबसे पहली चूक हम तभी कर देते हैं जब हम आध्यात्मिकता को मानवता का दूर का सम्बन्धी मान बैठते हैं जिसका केवल सुविधानुसार आवाहन किया जा सके, जबकि वास्तव में आध्यात्मिकता मानव व्यवहार को बाँध कर रखने वाला कवच है, बिल्कुल ऐसे ही जैसे काया बाकी शारीरक अंगों के लिए है। किसी मानव की प्रकृति-प्रवृति इस पर निर्भर करती है कि उसने मानव व्यव्हार से आध्यात्मिकता को ढँका है या आध्यात्मिकता से मानव-व्यव्हार को।
अपने प्रेम में भगवान सबको अपनी समानता पर ला खड़ा करते हैं जहाँ उनके साथ वो हंसी, ठिठोली, लड़ाई, झगड़ा, ताना, उलाहना सब कर सकते हैं। कोई भी राजपुत्र या मुखिया का पुत्र जो बलशाली होने के साथ-साथ और योग्यताओं से भी संपन्न हो तो अहँकार से भर कर अपने आप को अपने लोगों से ऊपर मान सकता है और ऐसे दृष्टांत रावण, कंस, दुर्योधन में मिलते भी हैं। परन्तु कृष्ण एक ऐसे नायक हैं जो गाँव के मुखिया के पुत्र हैं, अति सुंदर भी हैं और अतिमानवीय गुणों से संपन्न होते हुए भी अहंकार से दूर हैं। उनके आस-पास सब लोगों को ज्ञात है कि उनके ऊपर आने वाले किसी भी संकट से अगर कोई उनकी रक्षा कर सकता है तो वो हैं कृष्ण जिसके साक्ष्य उनको समय-समय पर मिलते भी हैं। कृष्ण के यह सारे गुण उनके और उनके आस-पास के लोगों के बीच अधीनता की दूरी बना सकता था। कृष्ण के अनुसार परमात्मा गुण-अवगुण से ऊपर है, समभाव है, तटस्थ है। यह ईश्वरीय गुण भी उनमे और उनके लोगों के बीच भगवान्-भक्त या दूसरे अर्थों में याचना-समाधान का सम्बन्ध बना देते। उन्होंने इन सब से ऊपर प्रेम-भाव को चुना। नन्द बाबा, यशोधा माँ, ग्वाले, गोपियाँ, सब से श्री कृष्ण प्रेम बंधन से बंधते हैं। और भी जो कोई उनसे प्रेम करता है वो भी उससे प्रेम ही करते हैं क्योंकि प्रेम में भक्ति से कहीं अधिक समर्पण है, परस्पर सम्मान है। कृष्ण किसी भी नायक के आदर्श हैं। उनके प्रेम में ऊँच-नीच, निकट-दूर, सुन्दर-असुंदर, यहाँ तक कि बड़े-छोटे के भेद का भी स्थान नहीं। सब से नटखट प्रेम न करें तो दूसरे को अधूरापन लगे और प्रसन्न हो एक बार मिल लें तो पूरा दिन भर जाए। वो नेतृत्व कर नेता नहीं बनते, सबके जैसा सबके बीच में रहते हैं।
भगवान तो भगवान हैं, जानते हैं कि समाज में अगर कोई भावना मुक्त रख कर बँधन में बाँधती है, तो वो है केवल प्रेम। क्रोध, अपमान प्रत्युत्तर के ऋण में बाँधते हैं। कृष्ण-प्रेम समर्पण सिखाता है, अधिकार जताना नहीं। कदाचित वो शरूपनखा के परिणय-निवेदन का भी ऐसा ससम्मान प्रेम-पूर्वक उत्तर देते कि वो सारा जीवन उनसे प्रेम करते हुए अपने संसार में लगी रहती। उनका प्रेम तो पा लेने से कहीं अधिक व्यापक है, शरूपनखा भी सभी में उनको देख लेने के नेत्र पा जाती, एक गोपी हो जाती ।
अपने मोह बंधन में बाँधे रखे और सभी अपने-अपने घर संसार में सुख-शांति से मगन रहने के लिए मुक्त हैं। कोई भी अपने आप में, अपने संगी में उनके जैसे होने की कल्पना कर सकता है। प्रेम भावनाओं की मर्यादित-अमर्यादित की श्वेत-श्याम परिधि से आगे निकल सोच की जटिलताओं और व्यक्तिगत असमानता का सम्मान करना सिखाता है। फिर वो राधा का प्रेम हो, उनकी पत्नियों का प्रेम अथवा किसी भी और गोपी का। भगवान किसी के प्रेम का अनादर नहीं करते वो तो प्रेम करने वाले को अपने ऊपर सारे अधिकार दे देते हैं।
भगवन अपने प्रेम में सब संकोच मिटा देते हैं। विधुर की पत्नी को उसकी नग्न अवस्था का आभास भी नहीं होने देते। कुब्जा को अपने तन पर लेप लगाने से धिक्कारते नहीं। सुदामा के संकोच का तो ऐसा निवारण करते हैं कि उसे अपना दुःख बोल कर मित्र के सामने छोटा नहीं होने देते और अपने से भी ऊपर स्थान देते हैं।
भगवन तो देव-प्रेत पूजा से हट कर प्रकृति से प्रेम करना सिखाते हैं। गाय ही क्यों, मोर, पक्षी, फसलें, पर्वत, कंदराएं, यमुना, जो भी भरण-पोषण करे, आपको संरक्षण दे, उसको प्रेम करना और उसके होने का सम्मान करना सिखाते हैं। वो इतने विराट हैं कि उनका प्रसार – विशाल से विशाल और सूक्ष्म से सूक्ष्म, ऐसा कुछ भी जो मानव कल्पना के भीतर हो अथवा उससे भी बाहर -सबमें है। ऐसा ही वो अपने ऐश्वर्या का परिचय देते हुए बताते हैं। अगर हम प्रकृति में पाई जाने वाली जैविक विविधता से प्रेम नहीं करेंगे , किसी भी जड़-चेतन सम्पदा का तिरस्कार करेंगे तो हम उसमें परमात्मा के होने का अपमान कर, प्राकृतिक वरदानों से वंचित हो जायेंगे। जैसा भगवान् कहते हैं वो जड़-जंगम सबमें हैं। तो इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्माण्ड में कुछ भी बिना प्रयोजन नहीं है। हमारी सीमित समझ हो सकता है वर्तमान में किसी वस्तु-जीव का उद्देश्य न भाँप पाए लेकिन भविष्य में उसका विनाश हमारे लिए अभिशाप बन जाएगा और भरपाई के लिए बहुत विलम्भ हो जाएगा, ठीक वैसे ही जैसे कि अब हमे जंगलों में प्राकृतिक वन-सम्पदा को हटाकर अपनी समझ से अधिक लाभदायक चीड़ के वृक्ष लगाने का हाणिकारक परिणाम दिख रहा है। अगर हम किसी भी वस्तु को व्यर्थ जान उसकी उपेक्षा करने के स्थान पर उसके वहां होने के अर्थ को समझने की चेष्टा करेंगे, तो हम अपने आप को आध्यात्मिक प्रेम के उस स्तर पर पाएंगे जहाँ प्रकृति के माध्यम से सीधा भगवान्-मानव संवाद संभव है। तो क्या यही कलयुग का अंत नहीं और उस सत्युग का पुनारम्भ जब मानव-पशु-पक्षी-पेड़-पौधे सब आपस में बात समझते थे।
भगवान् शिक्षा को भी प्रेम के स्तर पर ले कर आते है। अर्जुन को सबसे महान उपदेश देते हुए कहीं भी उन्होंने आचार्य का स्थान नहीं लिया। वे शुरू से अंत तक एक सखा ही रहे और शिक्षा को मैत्रीपूर्ण संवाद में ढाल दिया। उन्हे यह ज्ञात है कि बड़ी से बड़ी शिक्षा भी मित्र से ग्रहण करना कितना सरल है और सदा स्मृत रहती है। जब अर्जुन को उनके सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी भगवान होने का बोध हो भी जाता है तो भगवान जल्द ही सामान्य मानव रूप में लौट, भगवान और भक्त के रिश्ते की असहजता को मिटा देते हैं।
कृष्ण ऐसी किसी भी पूजा पद्धति को अस्वीकार करते हैं जिसमे आडम्बर, भय और सम्प्रुभता हो। वो अपनी भक्ति में अभय देते हैं। वो अपने भक्त को कहते हैं कि वो कुछ नहीं बस उनको समर्पित कर अपने कर्म करे और शंका, चिंता, भय सब त्याग दे। उनको समर्पित कार्य में किसी को शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित की दुविधा पालने की आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि भगवान सदैव उसके मार्ग-दर्शन का, उसके हित का वचन देते हुए अपने आप को भक्त के प्रेम में समर्पित करते हैं।
भगवान के प्रेम को समझने के लिए पूर्वाग्रह त्याग उनपर अनन्य विश्वास रखने के इतर कोई मार्ग नहीं। उनको समझने के लिए उनके रंग में रंग, उनके जैसा होना पड़ता है। जब भगवन-प्रेम के बंधन में बंध जाओ फिर आप अपने संसार में मग्न रहने के लिए मुक्त हो। वे आपके सारे कर्मों को अपने मोह में बांधे रखेंगे और यही तो है उनके कर्म-योग के सिद्धांत का मूल। उनके भक्त में मानवता-आध्यात्मिकता का रिश्ता हर दम सजग रहता है।
Banner Image: Gîtâ-Govinda-Manuskript, Szene: Krishna und Gopîs im Walde. Copyright held by Zenodot Verlagsgesellschaft mbH and licensed under the GNU Free Documentation License
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