करवा चौथ का व्रत सामुदायिक, पारिवारिक और पति-पत्नी के रिश्ते को प्रगाढ़ करने का सुन्दर प्रयास है।
करवा चौथ की सामायिक प्रासंगकिता
जैसे ही कोई हिन्दू त्योहार आता है उसको रूढ़िवादी और अप्रासंगिक बता उसमे बदलाव लाने की या न मनाने की माँग ज़ोर पकड़ने लगती है। करवा चौथ आते ही इस व्रत के बारे में भी रूढ़िवादी और पुरुष प्रधान व्रत होने की भ्रांतिया फैलने लगती हैं। सबसे पहली बात तो समझने की यह है की हिन्दू त्यौहार धर्म से नियंत्रित नहीं हैं। धर्म हर त्यौहार के केंद्र में ज़रूर है क्योंकि लोग ईश्वर को त्यौहार में भागीदार होने के लिए आमंत्रित करते हैं और समापन पर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं। धर्म न तो हर हिन्दू को हर त्यौहार मनाने के लिए बाधित करता है न ही किसी त्यौहार के लिए नियम-कानून तय करता है। हिन्दू त्यौहार प्रांतीय लोगों की भावनाओं से प्रेरित हैं और वो कोई भी त्यौहार अपनी इच्छानुसार, सामर्थ्यानुसार मनाने के लिए स्वछन्द हैं। आजकल जिस तरह दुनिया छोटी हो गई है, सभी प्रान्तों के लोग सब जगह बस गए हैं तो उनकी परंपराएं भी जगह जगह बस गई हैं, जिससे प्रांतीय त्यौहार व्यापक धार्मिक त्यौहार लगता है और सभी समुदाय उसे अपना-अपना रंग दे अपने ढंग से सजा लेते हैं। इसलिए किसी भी त्यौहार को धार्मिक रीति-कुरीति के कटघरे में लाना ही आधारहीन है।
अब बात करवा चौथ व्रत की। इसको अप्रासंगिक या नारी विरोधी बताने वाले केवल वो ही हो सकते हैं जो या तो बस विरोध करना चाहते हैं या पुरानी परम्परा को आज के परिवेश के साथ मिलाकर समझ नहीं पा रहे। यह व्रत असल में रिश्तों में संतुलन लाने का त्यौहार है। तो चलिए हम यहाँ पर पारंपरिक विधि को आधुनिकता के समानान्तर रखने का प्रयास करते हैं।
इस व्रत का आरम्भ एक दिन पहले सास के बहु को सरघी देने से होता है। पति अपनी पत्नी को श्रृंगार का सामान देता है। पौ फूटने से पहले पूरा परिवार जाग कर बहु को मनुहार कर खाना खिलाता है तो पूरा घर चहक जाता है। दिन भर व्रती औरत के लिए मनोरंजक गतिविधियां रखी जाती हैं ताकि उसका ध्यान भूख की तरफ न जाये। सूर्य-अस्त से पहले कथा होती है। कथा के समय आस-पास की सारी व्रती औरतें इकठ्ठा हो कर एक गीत पर करवा बटाती है। बीमार स्त्री, गर्भवती स्त्री और दुधमुँहे बच्चे की माँ को इस व्रत से छूट है। वो चाहें तो बिना व्रत कथा सुन सकती हैं। आज कल की दिनचर्या को देखते हुए व्रती औरतें कथा के बाद चाय ले लेती हैं। रात को चंद्रमा को अर्घ्य दे पति के हाथों जल पी कर व्रत का समापन होता है। और सब मिल कर भोजन करते हैं।
व्रत की कथा – एक लड़की जिसका नाम वीरो था अपने भाईओं की लाडली बहन थी। शादी के बाद पहले करवा चौथ पर भाईओं से बहन की भूख देखी नहीं गई और उन्होंने जंगल में आग लगा कर आगे काली चादर तान कर बहन को नकली चंद्रमा दिखा दिया और बहन ने व्रत खोल अन्न ग्रहण कर लिया। अधूरे व्रत के कारण पति के सर में सुइयाँ चुभ गई और वो निद्रा में सो गया। उसके बाद वो निष्ठा से व्रत करती रही और पति की सुइयां निकालती रही। आखिरी सुई दासी ने निकाली तो पति ने निद्रा खुलने पर दासी को पत्नी समझ लिया और पत्नी को दासी। जब पति व्यापार के लिए गया तो उसकी पत्नी जोकि असल में दासी थी, ने आभूषण मंगाए और वीरो नें एक गुड़िया मंगाई। वो गुड़िया को अपनी कहानी सुनाने लगी जो पति ने सुन ली और उसे अपनी गलती का आभास हुआ। उसने अपनी पत्नी को गले लगा लिया। जो पत्नी थी वो पत्नी हो गई , जो दासी थी वो दासी हो गई।
इस कथा पर हंसने से पहले आधुनिक परिवेश में समझने की कोशिश करते हैं। यह एक तरह की शिक्षा है कि कई बार लड़कियां मायके और ससुराल में सामंजस्य नहीं बिठा पाती। वो मायके के प्यार में पति और ससुराल की उपेक्षा करती हैं, तो शादी-शुदा रिश्ते में तटस्था की सुइयाँ चुभ जाती हैं और ऐसे में रिश्तों में भटकाव की सम्भावना बन जाती है। अगर आपके रिश्ते में दुःख के बादल छा भी गए तो घबराएं नहीं आप अपने रिश्ते को वापिस लाने के लिए निष्ठापूर्ण और धैर्यपूर्वक प्रयास करें तो सारे काँटे हट जाएँगे और आपका रिश्ता फिर से जिवंत हो उठेगा। पति के लिए भी सीख है कि कभी रिश्ते में ऐसी निद्रा न आने दे कि जो भी पास में है बिना परख उसको अपना समझ लें। निष्ठावान पत्नी की जगह कोई नहीं ले सकता।
औरतों के इकठ्ठा हो करवा बटाने का अर्थ है कि सभी एक ही तरह से व्रत रखें, किसी का भी व्रत अनजाने में अधूरा न रहे। दूसरा इकट्ठे हो हंस खेल कर सामुदायिक एकरसता बढ़ती है। करवा बटाने के गीत में निर्देश दिए जाते हैं कि व्रती औरत घर का कोई काम न करे। सात बार करवा बटाते वक़्त गीत गाया जाता है –
“ले वीरो कुड़ी करवा ,ले करवा वटाइये, चविंधा झोली पाइये , घूम चरखड़ा फेरी न ,कत्त्या अटेरी न , ह्वान पैर पाई न,सुत्या जगाई न ,रुठिया मनाई न ,ले करवड़ा, ले करवड़ा, ले वीरो कुड़ी करवड़ा।”
इस का अर्थ है –
“हे वीरो लड़की अपना करवा ले ले , चलो हम आपस में करवा बटाएं ,चुनी हुई बढ़िया वस्तुएँ अपनी झोली में डालें, आज चरखा न घुमाना, न ही काते हुए का सूत बनाना ,न चौके में पैर डालना ,न सोए हुए को जगाना , न रूठे को मनाना, चलो करवा ले लो, हे वीरो लड़की अपना करवा ले लो । “
करवे के सामान में सास को दिए जाने वाले तोहफे रखे जाते हैं। कथा के बाद बेटा-बहु सास को तोहफे देते हैं और उस से आशीर्वाद लेते हैं।
रात्रि में चंद्रमा को अर्घ्य देते हुए सर पर शादी की चुन्नरी ओढ़, दाएं पैर के नीचे मसाला कूटने वाला दंड रखा जाता है और चंद्रमा को मठरी और जल अर्पित करते हुए बोलते हैं -“सर धड़ी, पैर कढ़ी, हे चंद्रमा मैं सुहागन भागण तैनू अर्घ देंदी खड़ी ” जिसका अर्थ है -“मेरे सर पर पुरे कुनबे की ज़िम्मेदारी की गठरी है, पैर के नीचे घर की इज़्ज़त की दहलीज़ की कड़ी है। मैं ऐसी भाग्यवान सुहागन औरत आपको अर्घ्य दे रही हूँ।” और फिर छलनी से पहले चंद्रमा फिर पति को निहारती हैं जिसका अर्थ है – जब भी तुम मुझे चाँद की तरह शीतल और चमकते दिखाई देते हो, तो मेरी उलझने इस छलनी में आटे की तरह छन जाती हैं। और फिर पति पत्नी को जल ग्रहन करवाता है और उसका मुंह मठरी से जुठाता है। और सारा परिवार भोजन करता है।
यह सारा व्रत सामुदायिक, पारिवारिक और पति-पत्नी के रिश्ते को प्रगाढ़ करने वाला है। और अगर यह सवाल हो कि रिश्तों के लिए पत्नी ही कोशिश क्यों करे तो इस व्रत में अपने अपने स्थान पर सभी की कोशिश है। और अगर यह प्रश्न हो कि रिश्ते बनाए रखने के लिए इतने आडम्बर की क्या आवश्यकता है तो सोच कर देखें कि बिना उत्सव ज़िन्दगी कैसी होगी। यह अच्छा नहीं कि कुछ दिन उत्सव की तैयारी में, फिर उत्सव में, बाद में उत्सव की याद में काटें?
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