सावन, समर्पित, मान्य, पवित्र प्रेम का उत्सव है। वो प्रेम जो अमरनाथ की कन्धरा में अमर है।
सावन और सृजन
सावन अर्थात सृजन का माह, जब सम्पूर्ण प्रकृति सृजन में रत हो। शिव-पार्वती जो सृजन के आदि देव हैं उनको यह माह कैसे प्रिय न हो। पुरुष और प्रकृति के सम्मिलन का उत्सव है सावन। उसी सम्मिलन का उद्देश्य-ज्ञान भी है सावन। जब समस्त प्रकृति कहीं प्रेम की कोंपल स्फुटित कर रही हो, कहीं नव-सृजन कर रही हो ,वनस्पति सावन से पोषित हो भरी-भरी, मदमत्त प्रतीत होती है। पशु पक्षी प्रेम उत्साह में उश्रृंखल उद्दंड हुए जाते हैं। सावन पूजा प्रेमियों के अपने प्रेम से मिलने की याचना है, तो किसी के मन में एक आदर्श जीवन साथी मिल जाने की प्रार्थना है। शिव-पार्वती की पूजा एक पवित्र युगल-बंधन में बंध जाने के लिए ही की जाती है। जो याची अपनी प्रार्थना के सम्पूर्ण होने की याचना करता है वो भला क्षणिक भावनाओं के आवेग में अमान्य, अमर्यादित सम्बन्ध में कैसे बंधेगा। वो तो अपनी चाह को पवित्र बंधन में बाँधने के लिए तप, व्रत के अनुशासन में बंधा है। वो अपने भावी जीवन की स्थिरता और शांति के प्रयोजन से प्रयासरत है। शिव उत्तेजक कामदेव को भस्म कर विवाह के पश्चात् गृहस्थी के पवित्र आश्रम में प्रवेश करते हैं। शिव के अर्धांगनी को दिए वचन ही पुरुष प्रकृति के समकक्ष योगदान का आधार हैं।
शिवलिंग – लिंग का आधार योनि – एक प्रतीक है ब्रह्माण्ड के संतुलन का। शिवलिंग की पूजा अर्चना एक उत्पत्ति के यज्ञ की ज्योति के प्रतीक स्वरुप की जाती है। क्योंकि सभी कर्मों का प्रारम्भ उत्पत्ति से है, इसीलिए यह आदि यज्ञ है और जितना गंभीर उतना ही प्रसन्नता से परिपूर्ण यज्ञ है। एक नए जीव के सृजन की चेष्टा कोई निम्न और परिहास का विषय हो ही नहीं सकता। यह एक दम्पति का सजग मानसिक, शारीरक निर्णय ही होना चाहिए।
शिव पुराण एक गृहस्थ जीवन के लिए सम्पूर्ण मार्ग दर्शन है। यह दाम्पत्य संबंधों, विभिन्न चेष्टाओं से संतान उत्पत्ति, गृहस्थ दायत्वों और संतान के लालन-पालन पर सम्पूर्ण ज्ञान है। यह एक पुरुष विशेष, स्त्री विशेष की कथा नहीं बल्कि समस्त दम्पतियों के विषय में पढ़ा समझा जाना चाहिए। एक समर्पित प्रेम केवल मानसिक नहीं, शारीरक सम्मिलन भी है। स्वस्थ जीवन के लिए कामेन्द्रियों का दमन नहीं नियंत्रण आवश्यक है। इसी नियंत्रित समर्पण को विवाह कहा गया, जिसमें पुरुष और स्त्री प्रेम समर्पण में सहज हो सकें। उनका सम्मिलन मान्य हो, उनके नाम और संतुलित सहयोग से वंश बढ़े।
जब संतान उत्पन्न होती है तो वो एक जीवन का उद्देश्य लेकर आती है। पुरुष-स्त्री केवल दम्पति न रह कर माता-पिता बन जाते हैं। उनका दायत्व संतान और समाज के लिए बढ़ जाता है। ऐसे में उनको संतान के लिए कई कठोर निर्णय भी लेने पड़ सकते हैं। कार्तिकेय की तरह माता-पिता के संरक्षण से पृथक वातावरण में रखना पड़ सकता है। उस संतान को अल्पायु में अपने सृजनकर्ता के निर्णय से व्यथा हो सकती है, उलाहने भी हो सकते हैं, किन्तु जब वो लौट कर माता-पिता के पास आए तो उसकी व्यथा, उसकी शंकाओं का पूर्णतया निवारण कर उसे महत्वपूर्ण अनुभव करवाना और उसके कष्ट के वास्तविक उद्देश्य से अवगत करवाना अति-आवश्यक है।
संतान उत्पत्ति का अर्थ केवल पुत्र-उत्पत्ति कतई नहीं। पुत्री का जन्म भी प्राकृतिक संतुलन के लिए उतना ही आवश्यक है। प्रत्येक जीव-जन्म उत्सव है। हर पुत्री का लालन-पालन, 9 दैवीय-अवतारो के जीवन चरणों के अनुरूप हो। हर पुत्री स्त्रियोचित गुणों से परिपूर्ण और शिक्षित हो। जिस परिवार के साथ जुड़े उसमें अशोक रहे। एक अशोक सुंदरी, केवल अपने पति ही नहीं अपने पिता के कुल का नाम भी बढ़ाती है, अपनी माता के प्रकाश का उजाला फैलाती है।
दम्पति में से कोई एक भी दाम्पत्य की अवहेलना कर अपने दायत्वों से च्युत होता है तो अवाँछित संतान पैदा होती है। उस अवाँछित संतान का व्यक्तित्व एक महान वीर्य से सृजित हो सकता है लेकिन अगर उसे संतुलित स्वस्थ पालन-पोषण नहीं मिलता तो वो जालंधर बन सकता है। उसकी परवरिश उसके आचरण को आकार देती है, उसका आचरण उसके कर्मों को नियंत्रित करता है और उसके कर्म उसके भाग्य को निर्धारित करते हैं।
एक स्त्री का दीर्घकालिक एकाकीपन उसे कुंठाओं में धकेल सकता है। ऐसे में उसका प्रेम कोई निष्कासन ढूँढता है, वो मानस पुत्र बना उस पर वात्सल्य उंडेलती है। केवल वात्सल्य उस बालक को निरंकुश और उद्दंड बना देता है। यह असंतुलित पालन है।
एक मानस सन्तान, जिसका उत्पन्न निम्न-योनि का भी क्यों न हो, एक वातसल्य पूर्ण मातृत्व और अनुशासित पितृत्व का संतुलन उसके मूल स्वरुप को काट कर उसमें से गणेश का सृजन कर देते हैं।
कार्तिकेय और गणेश दो पुत्र हैं तो एक को शस्त्र और एक को शास्त्र ज्ञान के लिए समर्पित करना आदर्श पालन है। योद्धा और ज्ञानी दोनों ही सांसारिक व्यवस्था के सुचारु परिचालन और निरंतरता के लिए आवश्यक हैं।
जीवन की निरंतरता के लिए संतान उत्पत्ति उतनी ही आवश्यक है जितना वृक्षारोपण। किसी कारणवश जैविक सृजन संभव न हो तो मानस संतान अथवा संतान गोद लेने का प्रावधान भी सुझाया गया है। ध्येय यह होना चाहिए कि कोई भी जीव अवाँछित न हो, पहले तो ऐसा जीव संसार में आये ही नहीं और जो है उसे स्वस्थ पारिवारिक वातावरण मिले। हर प्राणी आगे के लिए एक स्वस्थ, जीवन मूल्यों से सुसज्जित नागरिक का रोपण और पोषण करे। विवाह और संतान पालन व्यर्थ मोहपाश या झंझट नहीं यह प्राकृतिक, पितृ, ज्ञानार्जन के ऋण हैं जिससे उऋण होने की चेष्टा हर प्राणी को अपने जीवन में करनी ही चाहिए अन्यथा निरुद्देश्य भटकाव की सम्भावना रहती है और प्राकृतिक संचालन और संतुलन बाधित होता है।
सावन में नाग पूजा का भी महत्त्व है। नाग जो इन्द्रियों के प्रतीक माने गए हैं उनका बिल में नियंत्रित पोषित रहना ही उचित है। वो भटकाव का प्रयोजन न बने, पूजित उद्देश्य में ही भागीदार बने।
इस ब्रह्माण्ड की शान्ति के लिए, प्रकृति का संतुलन आवश्यक है। प्राकृतिक संतुलन के लिए स्वस्थ सृजन आवश्यक है। स्वस्थ सृजन के लिए सुमधुर दाम्पत्य आवश्यक है जिसका प्रतीक है अर्धनारीश्वर। जब दम्पति एक दूसरे का पूरक हों तभी वो स्वस्थ सामाजिक निर्माण में योगदान दे सकते हैं।
सावन, समर्पित, मान्य, पवित्र प्रेम का उत्सव है। वो प्रेम जो अमरनाथ की कन्धरा में अमर है। वो प्रेम शास्त्र जो विवाह का संस्थान भी है माणक भी।वो प्रेम जो प्रेमियों के सान्निध्य और मिलन के माधुर्य की पराकाष्ठा है और दांपत्य की गंभीरता भी।
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