एक युवा लड़के पर गणेश भगवान का प्रभाव उसकी पूरी जिंदगी बदल देता है।
विषम अनुग्रह
“सुनो विनायक, कल की अपनी साधना का निर्णय तुम बदल दो | कल तुम मंदिर मत आओ |” ये शब्द विनायक के कानों में गूँज रहे थे। वो नींद से उठ तो एक घंटे पहले ही गया था, पर वो सपना और वो आवाज अब तक उसे सता रही थी।
विनायक छब्बीस साल का था और पिछले कुछ महीनों से हर दिन वो गणपति की साधना कर रहा था। ये साधना का शौक ना जाने उसे कैसे लगा। बस एक दिन अचानक ही उसे किसी ऑनलाइन वेबसाइट में हवन करने की विधि मिल गयी और उसका मन किया कि जरा वो भी हवन कर के देखे कि होता क्या है? तो वो बाजार गया, एक हवन कुंड और बाकी जो जो सामग्री चाहिए थी ले आया। पर फिर सवाल उठा कि साधना करे तो किसकी करे? तो उसने गणपति को चुना। शायद इसलिए क्योंकि वहीँ एक थे जिनको वो थोड़ा बहुत मानता था। और वो गणपति को मानता था ऐसा निष्कर्ष उसने इसलिए निकाला, क्योंकि जब हर रोज सुबह वो अपने कॉलेज जाता तो रास्ते में पड़ने वाले एक छोटे से गणपति मंदिर के सामने अपनी स्कूटी रोककर दर्शन जरूर करता। ये उसका एक नियम सा था। वो मंदिर उसे बहुत पसंद था। शायद इसलिए कि छोटा होने के कारण वहाँ कभी भीड़ नहीं इकठ्ठा होती थी और दर्शन आराम से हो जाते थे। तो ऐसा करने का मतलब तो यहीं हुआ ना कि उसे गणपति पर श्रद्धा थी? तो इस तरह से उसकी साधना का सिलसिला शुरू हुआ था।
जब से विनायक ने रात को अपने उस छोटे से कमरे में हवन करना शुरू किया, उसने एक आदत और बना ली। वो हर दिन कॉलेज थोड़ा जल्दी निकलता और मंदिर में जाकर कुछ देर बैठता। वहाँ बैठकर वो ध्यान करने की कोशिश करता। पहले तो कुछ सेकंड्स भी वो नहीं बैठ पाता था, बार बार आँखें खोलता, मूर्ति देखता, और फिर आँखें बंद कर एक और कोशिश करता। पर फिर धीरे धीरे अब वो कुछ मिनट्स का ध्यान कर ही लेता था। लेकिन इससे पहले उसने कभी गणपति को सपने में देखा हो, ऐसा नहीं हुआ। और फिर उनकी उस छवि के धुंधले होते समय उसके कानो में उन शब्दों का गूंजना उसे और भी अजीब लगा।
असल में अगला दिन गणेश चतुर्थी का था और विनायक ने निश्चय कर लिया था कि सारा दिन वो उसी मंदिर के प्रांगण में बैठकर जाप और ध्यान करेगा। मंदिर के पुजारी सुमुखदास से जब उसने आज सुबह इसके लिए पूछा था तो उन्होंने मना तो नहीं किया पर वो उसकी बात पर हँस जरूर दिए थे। जाहिर सी बात है, गणेश चतुर्थी के दिन मंदिर में भीड़ होगी, ऐसे में वहाँ बैठकर सारा दिन ध्यान करना संभव तो नहीं ही लग रहा था। पर फिर भी विनायक ने सोचा था कि वो कोशिश जरूर करेगा। वैसे भी घर में रहने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी।
विनायक अपनी दीदी और जीजा जी के साथ पुणे में उनके घर की छत पर बने कमरे में रहता था। अपनी पढ़ाई के चक्कर में वो यहाँ आया हुआ था। विनायक के जीजा जी को बात बात पर उसे टोकने की आदत थी जो उसे अच्छी नहीं लगती थी। तो इस कारण वो ज्यादातर समय अपने दोस्तों के साथ बाहर ही बिताता था। और जब से उसने ये हवन का शौक पाला था, तब से उसके जीजा जी और भी गुस्सा रहने लगे थे। उन्हें लगता था कि विनायक यह सब सिर्फ अपने आप को समाज से बेहतर दिखाने की कोशिश में करता था।
आज भी शाम को कॉलेज से वापस आने के बाद विनायक की उसके जीजा जी से बहस हुई थी। असल में उनकी और उसकी दीदी, दोनों की बात गलत भी नहीं थी। वो दोनों चाहते थे कि विनायक चतुर्थी के दिन उनके साथ रहे, पूजा की तैयारी में उनकी मदत करे और पूजा भी साथ में ही करे। विनायक तो शायद अपनी मंदिर जाने की इच्छा को किनारे कर भी देता पर फिर उसके जीजा जी फिर से हवन वाली बात बीच में ले आये और उसे बोलने लगे कि अगर उनके घर पर रहना है तो ये सब अघोरपंथी वाली बातें छोड़ दे। इस बात को सुनकर विनायक को बहुत गुस्सा आया और इसके चलते रात को अपने कमरे में आने के बाद उसने एक बड़ा हवन सिर्फ और सिर्फ अपने जीजा जी को चिढ़ाने के लिए किया। और हवन करने के बाद वो वहीँ जमीन पर ही सो गया। और तभी उसे ये सपना आया।
रात के दो बज रहे थे और विनायक यह सोच रहा था कि उसे क्या करना चाहिए? स्वभाव से बहुत जिज्ञासु होने के कारण उसका मन बार बार कह रहा था कि अगले दिन सुबह मंदिर जरूर जाए और अपनी निर्धारित साधना भी करे। देखे तो सही कि होता क्या है? पर दूसरी तरफ उसे यह भी लग रहा था कि ये बात गणपति ने ही उससे कही थी। तो भगवान की कही बात टालने जैसी बेवकूफी करना क्या सही भी था?
पर ये भी तो हो सकता था कि जो सपना उसे आया वो सिर्फ उसके दिमाग का एक खेल था। गणपति भला उसके सपने में क्यों आयेंगे? ऐसा भी कौन सा बहुत बड़ा साधक था वो? और अगर आयेंगे भी तो ऐसा क्यों कहेंगे कि मंदिर मत आओ? वैसे भी वो आवाज उसके कान में तब गूंजी थी जब गणपति की छवि धुंधली हो रही थी, तो हो सकता है कि ये एक दूसरा ही सपना रहा हो। आखिरकार उसके मन में त्यौहार के दिन अपनी दीदी की बात टालकर मंदिर जाने के अपने निर्णय को लेकर अपराधबोध तो था ही। तो इस वजह से उसके दिमाग में ऐसी बात गूँज गयी होगी।
आखिर में अपने तर्क वितर्कों के साथ विनायक की जिज्ञासु प्रवृत्ति ही जीती और वो अगले दिन सुबह तड़के ही तैयार होकर बिना अपने दीदी जीजा से कुछ कहे मंदिर चला गया। मंदिर पहुँचने पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिससे उसे लगा हो कि उसे मंदिर नहीं आना चाहिए था। हाँ, इतना जरूर था कि उसके जाप और ध्यान करने की इच्छा कुछ ख़ास पूरी नहीं हो पायी। ना जाने किस बात का डर उसके दिमाग में भर गया था। जब भी वो आँखें बंद करता उसके दिमाग में एक आवाज गूँज जाती “जाओ, यहाँ मत रहो। कहीं दूर चले जाओ।”
विनायक पहले कुछ घंटों तो इस आवाज को नजरअंदाज करता रहा। फिर उसने निर्णय किया कि शायद यहीं सही था कि वो घर जाए और आराम करे। पर जब वो घर जाने के लिए निकला तो उसके कानों में गूंजने वाली आवाज अचानक ही तेज हो गयी। ना जाने कहाँ विनायक ने अपनी स्कूटी फेकीं। ना जाने कब वो सड़क किनारे बैठ गया। उसका सर फटा जा रहा था, उसके कानों में दर्द हो रहा था। वो बार बार अपने कान बंद करने की कोशिश करता पर आवाज कहीं बाहर से तो आ नहीं रही थी कि वो उसे रोक पाता। अब विनायक को ना घर जाने की सुध रही और ना ही खाने पीने की। वो दर्द और उलझन में वहीँ फुटपाथ पर पड़ा रहा। रात तक उसकी हालत और बुरी हो चुकी थी। किसी भी तरह की आवाज उससे वर्दाश्त नहीं हो रही थी। उसे लग रहा था कि वो पागल हो जाएगा। क्यों वो मंदिर गया? क्यों उसने गणपति की बात नहीं मानी? विनायक के लिए एक एक पल काटना मुश्किल होता जा रहा था। क्यों ना जाने वो इस सब साधना वगैरह के झमेले में पड़ा? अच्छी भली जिंदगी जी रहा था। एक गलती, और अब उसके जीवन पर आ बनी थी।
शायद उसे घर जाना चाहिए था। अपने जीजा जी को बोलेगा तो वो उसे डॉक्टर के पास ले कर जायेंगे। उसने उठकर जाने की कोशिश की पर अब उसकी वर्दाश्त करने की सीमा पार हो चुकी थी। उसे जैसे कोई पागलपन सवार हो गया। वो उठा, पर उसे दिशा का कोई बोध नहीं रहा। वो बस किसी ऐसी चीज की तलाश में था जो उसे उसकी तकलीफ से मुक्ति दे दे। अपनी उलझन में उसने ना जाने कब अपने कपड़े तक फाड़ दिए थे। दर्द के कारण वो अपने बालों को बार बार खींच रहा था और किसी शराबी की तरह गिरता पड़ता यहाँ वहाँ डोल रहा था।
विनायक को तो खुद की भी सुध नहीं थी, तो जाहिर सी बात है कि आसपास क्या था, क्या नहीं, इससे उसे कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था। अपनी बेसुधी में लड़खड़ाते हुए वो एक लड़की से जाकर टकरा गया। अब उस लड़की को तो विनायक की हालत का कुछ अंदाज था नहीं, तो ऐसे में विनायक की हरकतें देखकर उसे लगा कि वो शायद उसे छेड़ने की कोशिश कर रहा है। वो जोर जोर से चिल्लाने लगी। विनायक को उसका चिल्लाना वर्दाश्त नहीं हुआ।
“चुप हो जाओ, चुप हो जाओ, प्लीज चुप हो जाओ।” कहते हुए उसने उस लड़की को रोकने की कोशिश की।
लड़की की चिल्लाने की आवाज सुनकर आसपास अपनी अपनी ऑटो में सोये कुछ ऑटोवाले दौड़ते हुए आये। सबने विनायक को उसी नजर से देखा जिस नजर से उस लड़की ने देखा था। सबने पकड़ कर उसे बहुत मारा पर फिर शायद उसे पागल समझ कर छोड़ भी दिया। यूँ इस तरह पीटे जाने के कारण विनायक की हालत अब और बदतर हो गयी। काफी देर वो वहीँ सड़क पर पड़ा रहा। उसका सारा शरीर दर्द कर रहा था। उसके अन्दर उठ खड़े होने की भी हिम्मत नहीं थी। वो वहीँ बीच सड़क पर बेहोश हो गया।
सुबह तक किसी ने विनायक को घसीट कर सड़क के किनारे फ़ेंक दिया था। आने जाने वाले लोग उसे अजीब सी नज़रों से देख रहे थे। कुछ ने उसके सामने कुछ सिक्के भी फ़ेंक दिए। पर विनायक को इस सबसे कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था। उसके कानों में गूंजने वाली आवाज अब भी उसे सता रही थी। जितनी बार वो उठकर अपने घर जाने की इच्छा करता, वो आवाज और तेज हो जाती। विनायक कभी अपनी हालत पर रोता, तो कभी अपनी बेवकूफी पर हँसता। जाहिर सी बात है कि लोगों की नजर में वो एक पागल बन चुका था, और इस बात पर भी उसे हँसी ही आ रही थी।
समय बीतता गया। धीरे धीरे विनायक अपने आप को भूलने लगा। उसे बस एक ही चीज याद थी वो ये कि उसके साथ जो भी हो रहा था वो गणपति के कारण था। गणपति कौन थे, उन्होंने उसके साथ ऐसा क्यों किया, जब भी वो ये याद करने की कोशिश करता उसके कानों में गूँजने वाली आवाज तेज हो जाती। तो वो हर पल बिना कुछ सोचे समझे अपनी एक अलग ही भाषा में गणपति को गाली देता रहता। अगल ही भाषा इसलिए क्योंकि वो शायद बात करना भी भूल गया था। वो क्या बोलता था, क्या नहीं, उसे खुद भी मालूम नहीं था। अपने सामने से गुजरने वाले लोगों में से कौन सा इंसान गणपति था ये तो उसको पता नहीं था, इसलिए कभी कभी वो लोगों के ऊपर पत्थर फेंक दिया करता था और फिर मार भी खाता था।
दिन रात विनायक के अब यूँ ही गुजरने लगे। सड़क पर उसके सामने पड़े पैसों को कभी कभार उठाकर वो कुछ खा लेता था। पर ज्यादातर वो भूखा ही रहता था। खाने पीने की उसकी इच्छा पूरी तरह से मर चुकी थी। दिन में कभी कभार वो एक जगह से उठता और कहीं और चला जाता, फिर कहीं फूटपाथ पर बैठ जाता और यूँ ही अजीब अजीब सी हरकतें करता; गणपति को गाली देने लगता और फिर ठहाके मार कर हँसने लगता।
विनायक का शरीर ठीक से ना खाने पीने के कारण बहुत कमजोर हो गया था। ऐसी कमजोरी और दिमागी हालत में अक्सर ही वो बेहोश हो जाता था। वो धीरे धीरे अपनी उस पुरानी जिंदगी को पूरी तरह से भूल गया था। ना जाने कितना समय बीत चुका था। वो कब उठता था, कब सोता था, दिन क्या था, रात क्या था, उसे कुछ अंदाज नहीं था। वो तो जैसे किसी चीज के नशे में रहने लगा था। उसके कानों में गूँजने वाली आवाज अब उसके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी। वहीँ एक चीज थी जो अब तक उसके साथ थी। बाकी उसके कपड़े तो ना जाने कब फटकर उतर चुके थे, उसके बाल जैसे जटाएं बन चुके थे, उसके पैरों के चप्पल ना जाने कहाँ छूट गए थे, उसका वो हष्ट पुष्ट शरीर अब एक हड्डियों का ढांचा बन चुका था।
लोग जब इस तरह के लोगों को सड़क पर देखते हैं तो उनके साथ क्या घटा होगा ये सवाल कभी उनके मन में नहीं आता। वो तो बस ऐसे लोगों को घृणा भरी नज़रों से ही देखते हैं। कभी कभी उनके साथ मार पीट भी कर देते हैं। विनायक ने भी कई बार ऐसी मार पीट का सामना किया। पर एक दिन तो हद ही हो गयी। हुआ ये कि जब विनायक अपनी ही धुन में शहर के किसी कोने में भटक रहा था तब उस जगह पर किसी बड़े प्रोग्राम के होने की तैयारी चल रही थी। विनायक तो ये सब नजरअंदाज करके जा ही रहा था पर अपनी कमजोरी के कारण वो किसी पुलिस वाले के सामने अचानक ही गिर पड़ा और फिर अपने ही गिरने पर जोर से हँसने लगा। शायद उस पुलिस वाले को लगा कि विनायक कोई शराबी है और उसने बिना सोचे उसकी वहीँ पिटाई करनी शुरू कर दी।
विनायक अपनी ही भाषा में कुछ बडबडाते हुए वहाँ से किसी तरह से भागा। उसके शरीर में बहुत चोट लगी थी। जगह जगह से खून बह रहा था। ऐसे में भागते हुए वो उसी मंदिर के सामने आ पहुँचा जहाँ से इस सबकी शुरुआत हुई थी। उस मंदिर और वहाँ बैठे गणपति को देख उसे अपना अतीत याद आने लगा। यहीं, यही वो गणपति है जिसने उसका जीवन बर्बाद किया। ऐसा विचार उसके मन में आया। इस विचार के आते ही उसे बहुत तेज गुस्सा आया। उसने एक पत्थर उठाया, मूर्ति की ओर फेंका और कुछ गालियाँ बकने लगा। वो पत्थर सीधे जाकर गणपति की मूर्ति को लगा था। विनायक को इस बात का ना तो कोई अंदाज था और ना ही होश कि वो समझता कि वो दिन गणेश चतुर्थी का था और मंदिर के बाहर जो छः साथ लोग खड़े थे वो वहाँ दर्शन करने आये थे। उसकी ऐसी हरकत देख वो लोग भड़क गए और उन्होंने भी उसे मारना शुरू कर दिया।
मंदिर के पुजारी आज भी सुमुखदास ही थे। उन्होंने विनायक को पहचाना या नहीं ये तो पता नहीं, पर उन्हें उसकी हालत पर तरस जरूर आया। उन्होंने उन लोगों को डांटकर विनायक को किसी तरीके से बचा लिया। जब लोगों ने उसे छोड़ा तो सुमुखदास ने उसको सहारा देकर उसी जगह बैठा दिया जहाँ बैठकर विनायक एक समय पर ध्यान करता था। जैसे ही विनायक को ये बात याद आई, वो घूमकर अन्दर बैठे गणपति को पीठ दिखाते हुए बैठ गया। वैसे तो उसकी की हुई हरकतों पर सुमुखदास को गुस्सा आना चाहिए था, पर ना जाने क्यों उनके चेहरे पर एक मुस्कान छा गयी। उन्होंने विनायक को एक पत्तल में रखकर कुछ मोदक दिए। विनायक फिर गाली बकने लगा।
“खा लो बेटा। गुस्सा बाद में कर लेना।” सुमुखदास बहुत प्यार से बोले।
विनायक ने एक नजर उन्हें घूरा। उसने लगभग तीन दिन से कुछ भी नहीं खाया था। इस कारण उसने सुमुखदास से वो पत्तल छीन लिया। फिर वो ऐसे उस पत्तल को छुपा छुपा कर मोदक खाने लगा जैसे कि अगर गणपति को दिख गया तो वो उससे ये मोदक छीन लेंगे। शायद ये डर उसे इसलिए था क्योंकि उसके जीवन में जो कुछ भी अच्छा था वो तो वैसे भी उन्होंने उससे छीन ही लिया था। उसका जीवन ही पूरी तरीके से नष्ट कर दिया था।
सुमुखदास फिर आने जाने वाले लोगों को प्रसाद और तीर्थ बांटने में लग गए। विनायक मोदक खाकर वहीँ किनारे बैठे बैठे सो गया। शाम को आरती के समय घंटी की आवाज से उसकी नींद खुली। ना जाने उसे क्या सूझा कि अचानक ही वो बहुत जोर जोर से रोने लगा। वहाँ खड़े लोग उसकी इस हरकत से थोड़ा असहज हुए, पर सुमुखदास पर जैसे इस बात का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ा। आरती समाप्त हुई। लोगों को दी गयी। जब सुमुखदास आरती लेकर विनायक के पास आये तो जोर जोर से सर हिलाते हुए वो मना करने लगा। सुमुखदास से खुद ही अपने हाथों से उसे आरती देकर एक बार उसके सर पर हाथ रखा और फिर वापस बाकी लोगों को आरती दे कर अपने काम में लग गए।
विनायक अचानक ही शांत पड़ गया और यूँ ही बैठा मूर्ति को घूरता रहा। बैठे बैठे वो अपने अतीत के बारे में सोचने लगा। कितनी बेपरवाह जिंदगी थी उसकी। हर रोज कॉलेज जाना, दोस्तों के साथ मस्ती मजाक, कॉलेज बंक करके मूवी जाना, छुट्टियों में ट्रेकिंग्स पर जाना, कितनी अच्छी जिंदगी जी रहा था वो? फिर कैसे उसके जीवन ने ये अजीब सा मोड़ ले लिया? क्यों आखिरकार उसे हवन और ध्यान जैसी चीजें करने की सूझीं? उसे तो यह भी नहीं पता था कि कितने महीने उसने यूँ पागलों जैसा जीवन बिता दिया था।
आज बहुत दिनों बात विनायक को खुद के होने का अहसास हो रहा था। इतनी भीड़ के बीच में भी उसे ऐसा लग रहा था मानो जैसे बहुत शान्ति सी छा गयी हो। पर ऐसा क्यों था? विनायक सोचने लगा। अचानक उसे अहसास हुआ कि जब से वो जागा था उसके कानों में गूँजने वाली वो आवाज अब बंद हो गयी थी।
क्यों ये आवाज अब तक उसका पीछा कर रही थी और क्यों आज अचानक ही ये बंद हो गयी? विनायक का ध्यान अपने खुद के ऊपर गया। ये किस शरीर में रह रहा था वो? उसका शरीर तो ऐसा नहीं था और उसके कपड़े, उसके कपड़े कहाँ थे? ना जाने कितने दिनों से वो बिना कपड़ों के रह रहा था पर आज इस बात का अहसास होने के कारण उसे अजीब लग रहा था। वो थोड़ा सिकुड़ कर बैठने लगा। शायद सुमुखदास जी को उसके ऐसा करने से उसकी असहजता का अहसास हुआ। उन्होंने उसे मंदिर में ही रखी एक पुरानी धोती दे दी। विनायक ने खुद को उस धोती से ढक लिया।
देर रात जब लोगों का आना जाना बंद हुआ तो सुमुखदास विनायक के पास आकर बैठे और उन्होंने पूछा “अच्छा बेटा, ये तो बताओ, क्यों तुम गणपति से इतना गुस्सा हो? ऐसा क्या हो गया कि तुमने इनको पत्थर मार दिया?”
“मुझे नफरत है इनसे।” कई महीनों बात शायद आज विनायक के मुँह से कुछ समझ सकने लायक शब्द निकले थे।
“हाँ, वो तो मैंने देखा ही, पर मैं पूछ रहा हूँ कि क्यों?” सुमुखदास ने पूछा।
“क्यों? क्योंकि इन्होंने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी। ना जाने किस बात का बदला लिया मुझसे।”
उसकी बात सुनकर सुमुखदास हँस पड़े। विनायक ने उन्हें घूरा।
“अरे बेटा, इन्हें किसी से कोई दुश्मनी थोड़े ही है जो ये बदला लेते घूमेंगे।” उन्होंने समझाने की कोशिश की।
“नहीं, बदला ही लिया। गणेश चतुर्थी के दिन ये बोले थे मुझे कि यहाँ मत आना; मैं आया और उसके बाद से मेरा जीवन नर्क बन गया। पागलों वाली जिंदगी जी रहा हूँ मैं।”
“तो तुम यहाँ पहले भी आये हो?” सुमुखदास ने पूछा।
“हाँ, मैं विनायक हूँ। आपको याद नहीं, मैंने आपसे यहाँ गणेश चतुर्थी के दिन बैठकर साधना करने की इजाजत मांगी थी? उस रात से ही मेरा जीवन इन्होंने बर्बाद कर दिया।”
“अच्छा, तो तुम विनायक हो? इसलिए ही मुझे लगा कि मैं शायद तुम्हें जानता हूँ। पर तुमने कहा कि इन्होंने तुम्हें मंदिर आने से मना किया था, कैसे भला?”
विनायक उनके इस सवाल पर चुप ही बैठा रहा।
“अच्छा, ठीक है। फिर कभी बताना। पर अब क्या करना है? यहीं बैठोगे या घर जाओगे?”
“कौन सा घर? हालत देख रहे हैं आप मेरी? मुझे तो अब कोई पहचानेगा भी नहीं।” विनायक चिढ़ते हुए बोला।
“तो फिर?” सुमुखदास ने पूछा और फिर कुछ सोचते हुए बोले “तुम चाहो तो मेरे घर चलो। यहीं पीछे ही है। नहाना चाहो, तो नहा सकते हो। मेरे कपड़े दे दूंगा, पहन सकते हो।” सुमुखदास इशारा करते हुए बोले।
“नहीं, आप जाइए। मैं यहीं रहूँगा।” विनायक थोड़ा हिचकते हुए बोला।
“अच्छा, ठीक है, पर हिचकना नहीं, मन करे तो आ जाना।” बोलते हुए सुमुखदास मंदिर बंद करके चले गए।
विनायक बैठा सोचता रहा कि क्या उसे एक बार घर जाकर देखना चाहिए? वो क्या कहेगा जब उसके दीदी, जीजा जी उसे इस हालत में देखेंगे? जिस दिन वो अचानक से गायब हुआ, उनके जीवन में तो उथल पुथल मच गयी होगी और अब जब वो उनके पास जाएगा तो एक बार फिर उनके जीवन में तूफ़ान आ जाएगा। क्यों आखिरकार उस दिन गणपति ने उसे मंदिर आने से मना किया? क्यों मंदिर आने के बाद उसकी हालत यूँ बिगड़ी? क्यों उसकी एक गलती की उसे इतनी बड़ी सजा मिली? कुछ घंटों यूँ हीं बैठने के बाद जब सुबह हुई तो विनायक अपने घर को निकल गया। कुछ भी हो, उसकी बहन को पूरा हक था ये जानने का कि उसके साथ क्या हुआ था? ना जाने कितने समय बाद वो उससे आज मिलेगा? जाहिर है कि वो तो उसे पहचानेगी भी नहीं। जैसे जैसे घर करीब आ रहा था. विनायक का दिल बैठा जा रहा था। जब विनायक घर पहुँचा तो अपने घर की हालत देखकर वो स्तब्ध खड़ा रह गया।
विनायक की बहन का घर पूरी तरह से जल चुका था। वहाँ अब किसी का रहना संभव ही नहीं था। वो घबरा गया। कुछ पल वो यूँ ही खड़ा रहा। फिर वहीँ पास में एक पान की दूकान को उसने खुलते देखा तो जाकर उससे पूछा “भैया, यहाँ क्या हुआ था? और जो परिवार यहाँ रहता था, वो कहाँ है?”
“क्या हुआ मतलब? देख नहीं रहे पूरा घर जल गया।”
“हाँ, पर कैसे?”
पान वाले ने एक नजर उसे ऊपर से नीचे तक देखा और पूछा “हो कौन तुम? क्यों पूछ रहे हो?”
“मैं विनायक…….” बोलते बोलते विनायक ने पान वाले के चेहरे के भाव बदलते देखे “विनायक जी को जानता था। उन्हीं से मिलने आया था।”
“विनायक जी?” कहते हुए वो पान वाला हँस दिया और फिर अपनी छोटी से दूकान में घुसकर आराम से बैठकर वो बोला “इतनी भी इज्जत मत दो उस लड़के को। ऐसा भयंकर कांड करके गया है कि पूरा मोहल्ला अगले बीस पच्चीस साल तक उसकी कहानियाँ गाता रहेगा।”
अपने लिए इस तरह की बात सुनकर विनायक तो पूरा हक्का बक्का ही रह गया था, पर फिर भी वो जानना चाहता था कि आखिर हुआ क्या। उसने पूछा “क्यों, ऐसा क्या किया उसने?”
“क्या किया? अरे ये सब उसी का तो किया धरा है। एक साल पहले ना जाने किस खुन्नस में अपनी बहन के घर को आग लगा कर भाग गया वो। सुना है रात को किसी कारण उसका अपनी दीदी और जीजा से झगडा हुआ और इसलिए सुबह सुबह उन दोनों को मारने के उद्देश्य से उसने घर को आग लगा दी और फिर रफ्फूचक्कर हो गया।”
“क्या? क्या बकवास किये जा रहे हो?” विनायक ने एक पल को अपना आपा खो दिया। पर फिर जब उस पान वाले ने उसे जोर से घूरा तो उसने खुदपर काबू किया और बोला “नहीं, वो लड़का ऐसा तो नहीं दिखता था। मैं एक दो बार आया था यहाँ पर। काफी अच्छे लोग लगते थे।”
“अरे ख़ाक अच्छे थे। मैंने तो सुना है कि वो लड़का कुछ काला जादू वगैरह भी करता था। अक्सर ही रात को उसके वो ऊपर वाले कमरे से मन्त्र वगैरह की आवाजें भी आती थीं। और मैंने भी एक दो बार वहाँ से धुँआ निकलते देखा था। मुझे तो पहले से ही वो लड़का ठीक नहीं लगता था। बेचारे पति पत्नी उनकी चीखें तो आज भी मन में बैठीं हैं मेरे।”
“तो क्या वो लोग?” विनायक के चेहरे पर दहशत छा गयी।
“जिन्दा हैं। अब दूसरी जगह रहने लगे हैं। वैसे भी इतने सब के बाद यहाँ तो उनका रहना मुश्किल ही था। सब आसपास के लोग उस लडके की ऐसी हरकत पर बौखलाए हुए थे। अगर वो भागा ना होता तो शायद यहाँ के लोग ही उसे मार मार कर मार डालते। बेचारे गाँव से आये उसके माँ बाप तो किसी से नजरें उठाकर बात करने की भी हिम्मत नहीं रख रहे थे। भगवान ऐसा बेटा किसी को ना दे। वो तो उनकी बेटी थी जिसने उन्हें समझाया कि इस सबमें उनकी कुछ गलती नहीं थी वरना तो उनका रो रोकर बुरा हाल हो गया था।”
“तो क्या उन्हें भी विश्वास था कि उनके बेटे ने ऐसी हरकत की है?”
“अरे किसी माँ बाप को विश्वास होता है भला? पर फिर, उनकी बेटी झूठ भी तो नहीं बोलेगी ना। वो तो मरते मरते बची थी। ये तो बहुत बड़ी बात है कि उनके दामाद ने इतना कुछ होने के बाद भी उनकी बेटी से अपना रिश्ता नहीं तोड़ा। वरना उस लड़के ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी पूरे परिवार को बर्बाद करने में।”
“तो क्या इस सबके बाद किसी ने यह पता करने की कोशिश नहीं की कि वो लड़का गया कहाँ?”
“कोशिश तो की थी। पुलिस में रिपोर्ट भी कराई थी। पर जाहिर सी बात है कि वो कहीं दूर भाग गया है। अब ऐसी हरकत के बाद वो थोड़े ही मिलने वाला है। काश कि मिला होता। अगर मिल जाता तो मैं तो चप्पल लेकर मारता उसको। उसके चक्कर उस घर के पीछे बनी मेरी झोंपड़ी भी जलकर ख़ाक हो गयी। पर तुम काहे को इतने सवाल कर रहे हो? तुमको उस लड़के से क्या लेना देना?”
“वो, मैंने बताया ना मैं जानता था उसे।” विनायक थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला।
“क्यों भाई, श्मशान घाट पर कोई भुतही पूजा करने को मिले थे क्या? देखने को तो कोई अघोरी वघोरी लगते हो। क्या तुमको पता है कि वो कहाँ है आजकल?”
ना जाने उस पान वाले की बात का क्या असर हुआ विनायक पर, वो मुस्करा दिया और बोला “नहीं, यहीं पता करने तो आया था। देखना चाहता था कि उसके गायब होने के पीछे का राज क्या है। वैसे अगर वो सच में काला जादू करता है तो आपको उसे चप्पल से मारने का विचार त्याग ही देना चाहिए। क्या पता वो आपकी बातें सुन रहा हो तो?”
वो पान वाला हकबकाकर रह गया और विनायक वहाँ से चल पड़ा। हो सकता था कि उस पान वाले ने नमक मिर्च लगाकर सारी घटना का व्योरा उसे दिया था पर फिर भी विनायक के मन से अब अपने परिवार से मिलने की इच्छा पूरी तरह से ख़त्म हो गयी थी। जैसा कि उस पान वाले ने कहा, इस घटना को एक साल हो गया था। एक साल में तो लोग उनको भी भूल जाते हैं जिनके बिना वो सोचते हैं कि वो नहीं रह पायेंगे। जरूर उसके परिवार में भी सब अब इस घटना से उबर चुके होंगे। ऐसे में वापस उनके पास जाकर उनके जीवन में एक नया तूफ़ान खड़ा करना शायद सही नहीं था। विनायक के लिए इतना ही काफी था कि जो भी हुआ उसमें किसी की जान नहीं गयी।
तो क्या इस कारण से गणपति ने उसे मंदिर जाने से मना किया था? अगर वो मंदिर नहीं जाता तो क्या जो आरोप अब उस पर लगे थे, वो ना लगते? क्या तब किसी के मन में भी ऐसा शक नहीं पैदा होता? और अगर होता तो क्या उसका परिवार इस शक को मन में ही छुपाकर नहीं रखता? क्या इस तरह के शक का पात्र बनकर जीना, परिवार को खो देने के बराबर नहीं होता? और अगर उसका परिवार इस शक को जाहिर कर देता तो? तो क्या वो ऐसे आरोप के साथ अपना जीवन जी पाता? विनायक अचानक ही हँस पड़ा। वो ये सोच रहा था कि जब उस समय उसे पुलिस ने ढूंढना चालू किया होगा तो उन्हें कभी शक भी नहीं हुआ होगा कि वो सड़क के किनारे एक पागल की तरह घूमता फिर रहा था।
ना जाने विनायक का जीवन उसे कहाँ से कहाँ ले आया था। पर अब क्या? विनायक के मन में अचानक ही संसार के प्रति उदासीनता सी पैदा हो गयी थी। समाज और समाज के रिश्ते उसे अजीब से लगने लगे थे। एक दूसरे के प्रति मन में कडुवाहट को रखने के बाद भी लोग उन्हीं रिश्तों को निभाने में लगे हुए थे। छोटे से यहीं तो देखता आया था वो। ना चाहने पर भी रिश्ते निभाते रहना; लोगों का साथ इसलिए देना कि आगे चलकर वो भी वापस आपका साथ दें; सामने मीठी बातें करना और पीठ पीछे बुराई; बिना कारण ही अपमान के घूँट पीते रहना; यही तो समाज था। विनायक जानता था कि इस समाज के और भी रूप थे। ऐसा नहीं था कि सब कुछ बुरा ही था। उसे पता था कि उसके माता पिता अब भी कहीं ना कहीं उसके वापस आने की उम्मीद लगाते होंगे। कहीं ना कहीं उसकी बहन पुराने दिनों को याद करके दुखी होती होगी। पर फिर भी इनमें से कोई भी बात उसके मन में परिवार के पास वापस जाने की इच्छा नहीं जगा पा रही थी।
चलते चलते विनायक वापस मंदिर पहुँच गया। वहाँ बैठी गणपति की मूर्ति को देखकर उसे याद आया कि कैसे वो सोचता था कि गणपति उसके इष्ट हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वो दो पल को उनके सामने खड़ा हो जाता था। शायद उसके हर रोज उस दो पल खड़े होने भर से गणपति ने उसे अपना लिया था और उसे साधना का मार्ग दिखाया था। विनायक अब भी ये नहीं समझ पाया था कि क्यों गणपति ने उस दिन उसे मंदिर आने से मना किया था? क्या उन्हें नहीं पता था कि अपनी जिज्ञासावश वो जरूर मंदिर आएगा। तो गणपति असल में चाहते क्या थे? वो मंदिर आये या ना आये? विनायक एक बार फिर हँस दिया। उसे याद आया कि कैसे अपनी पागलपन वाली अवस्था में भी उसके दिमाग में गणपति लगातार घूमते रहते थे। वो हर दिन, हर पल उन्हें गाली ही बकने में लगा रहता था। तो अगर कोई उसकी बुरी से बुरी अवस्था में उसके साथ था, तो वो गणपति ही थे। पर क्यों? क्यों वो उसके साथ थे? क्यों उन्होंने उसकी ऐसी दशा बनाई? क्यों बिना बात के उसे इतने लोगों से मार खिलवाई? और क्यों वापस उसे अपने पुराने जीवन की याद दिलाई? ये सारे सवाल अब उसके मन में गुस्से से नहीं थे, वो तो बस इस लीला को समझना चाहता था। उसकी नजर सुमुखदास से मिली जो उसे देखकर मुस्करा दिए। विनायक भी मुस्करा दिया और जाकर उसी जगह ध्यान में बैठ गया जहाँ वो हमेशा बैठता था।
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