लिबरल्स और मिशनरियों का गठबन्धन

राजीव मल्होत्रा और मीनाक्षी जैन के संवाद पर आधारित लेख - राजीव मल्होत्रा द्वारा वर्णित – भाग ३

ब्रिटिश संसद में, एडविन बर्क ने बहुत स्पष्ट रूप से यह कहा था कि कोई व्यक्ति थेम्स नदी के तटों से ओक वृक्ष को नहीं ले सकता है और इसे गंगा के किनारे नहीं लगा सकता है। भारतीय संस्थान उनकी आवश्यकताओं को बहुत अच्छी तरह से पूरी कर रहे थे और वे उन संस्थानों को पुनर्जीवित करना चाहते थे, बजाय उन्हें प्रतिस्थापित करने के। संसद में और भारत में ब्रिटिश अधिकारियों के बीच, एक बहुत मजबूत समूह था जो भारतीय संस्थानों को बहाल करना चाहता था। रुचिकर बात यह है कि जिस दौरान कंजरवेटिव्स इसे अकेले छोड़ने के बारे में गम्भीर थे, ये लिबरल्स थे जो भारतीय संस्थानों के साथ गड़बड़ करना चाहते थे।

हम ऐसा सोच सकते हैं कि व्यवहार करने के लिए लिबरल्स अधिक सरल हैं, कि वे हमारी ओर हैं परन्तु वास्तव में, यह लिबरल्स हैं जो भारतीय समाज के साथ छेड़छाड़ करना चाहते हैं, और जिनके पास मानव अधिकारों का यह बड़ा विचार है। मानव अधिकारों की आड़ में हस्तक्षेप करने की इस इच्छा का परिणाम धर्म-प्रचारकों (इवैंजिकल्स), अर्थात, वो जो लोग जो भारत का ईसाईकरण करना चाहते थे, और यूटिलिटियन्स या लिबरल्स, जिनमें जॉर्ज मिल और जॉन स्टुअर्ट मिल सम्मिलित थे, के बीच एक गठबन्धन में हुआ। इसलिए, ईसाई मिशनरियों और लिबरल वामपन्थ का गठबन्धन 1800 की सदी के मध्य से रहा है और इसलिए, उन लोगों का आज भी गठबन्धन कोई संयोग नहीं है। और यह बात बहुत रुचिकर है क्योंकि कंजरवेटिव्स पूंजीपति थे और केवल धन कमाना चाहता थे । उनकी रुचि हस्तक्षेप और अन्य सभी बातों में नहीं थी। हमारे लोग अच्छी तरह से पढ़े-लिखे नहीं हैं और स्वयम् को मूर्ख बनाते हैं, जब वे ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत में ईसाई धर्म या मिशनरी की गतिविधि के फैलाव के साथ बराबर करते हैं ।

ऑक्सफोर्ड के पहले बोडेन प्रोफ़ेसर के रूप में वापस जाने के बाद, एच. एच. विल्सन, राम कमल सेन के साथ सम्पर्क में रहें, जो केशब चन्द्र सेन के दादा थे। उनकी राय यह थी कि भारतीयों को संस्कृत के लिए माँग को जारी रखने की आवश्यकता थी क्योंकि हमारी राष्ट्रीयता और हमारी पहचान संस्कृत के साथ कटिबद्ध थी । उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा को बढ़ावा देने और राष्ट्रीयता के आन्दोलन को कुण्ठित करने के लिए कई भारतीयों को प्रोत्साहित किया।

इसलिए हमें यह समझना है कि बहुत सारी ऐसी चीजें जिनके लिए हम वामपन्थ को दोष देते हैं, वास्तव में हमारे अपने लोगों द्वारा इसकी माँग की गयी थी और उसके बाद वे चीज़ें लागू की गई थीं।

स्वतन्त्रता-पश्चात, अनेक भारतीयों ने यह सोचा कि यदि उन्होंने पश्चिम की नक़ल करना प्रारम्भ की, तो वे महत्वपूर्ण हो जाएँगे। इसलिए एक ‘गोरा साहिब’ बनना सम्मान का एक बिल्ला था क्योंकि गोरा आदमी होने से अगली सबसे अच्छी बात, किसी गोरे आदमी की तरह सोचना है। इसलिए, यह हमारे स्वयम् के लोग हैं जिन्होंने इन विदेशी विचारों का भारत में आयात किया।

मूर्तिभंजन

अब मैं मूर्तिभंजन के बारे में बात करना चाहूँगा जो मूर्तियों को तोड़-फोड़ देने, मूर्तियों को जला देने या चोरी करने की ईसाई और इस्लामी आदत और विचारधारा है और मीनाक्षी जैन ने एक बहुत रणनीतिक तरीके से इस मुद्दे पर कार्य किया है। भारत में वामपन्थी इतिहासकार सामान्य तौर पर मूर्तिभंजन को कम करके दिखाते हैं और क्षति और बर्बरता की सीमा को कम से कम करते हैं। अनेक पश्चिमी इतिहासकारों ने भी उनके दृष्टिकोण का समर्थन किया है। उनके अनुसार, मन्दिरों का “तथाकथित” विनाश ब्रिटिश द्वारा गढ़ा गया एक मिथक था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि हिन्दू और मुसलमान एक समुदाय के रूप में रहें। रिचर्ड ईटन ने एक लेख “भारतीय-मुस्लिम राज्यों में मन्दिर का विनाश” लिखा जिसमें उन्होंने कहा कि एक हजार वर्षों के दौरान, अधिक से अधिक 80 मन्दिर नष्ट किए गए थे। रिचर्ड डेविस जिन्होंने एक पुस्तक “भारतीय छवियों के जीवन” लिखी, यह उल्लेख करते हैं कि तुर्कों के आने से पहले, भारत में मूर्तियों को चोरी करने या तोड़-फोड़ देने का पहले से ही एक स्थापित अभ्यास था और तुर्क स्थापित अभ्यास का केवल पालन कर रहे थे। अन्य लोगों के बीच, शेल्डन पोलक तक इस कथा से सहमत हैं और इसका निहितार्थ यह है कि हिन्दुओं को मुसलमानों द्वारा अपनी मूर्तियों को नष्ट करने के बारे में शिक़ायत नहीं करनी चाहिए क्योंकि मुसलमानों से पहले, हिन्दू स्वयम् ऐसा करते रहते थे।

मीनाक्षी जैन ने इन वामपन्थी विद्वानों द्वारा उद्धृत किए गए स्रोतों की व्यवस्थित रूप से परीक्षा की है और उनका तात्कालिक अवलोकन यह रहा है कि जिन स्रोतों को वे उद्धृत करते हैं, उनके बीच व्यवहारिक रूप से कोई हिन्दू स्रोत नहीं हैं। वह कहती है कि हिन्दू स्रोतों को ढूँढने के बजाय, उन्होंने किसी चढ़ाई या आक्रमण से पहले मूर्तियों को हटाए जाने और बाद में, जब धमकी ग़ुज़र गई थी, फिर से बहाल किए जाने के उदाहरणों का शोध किया है।

“सारी बातों के बाद, यदि हिन्दुओं पर इतना अधिक क़हर ढाया जा रहा था तो कहीं न कहीं पर इसके बारे में कुछ रिकॉर्ड अवश्य होना चाहिए। हिन्दुओं ने इसे आधुनिक इतिहासकारों के रूप में नहीं लिखा हो सकता है, परन्तु उन्होंने अपने अनुभव को कहीं न कहीं रिकॉर्ड किया होगा। और मैंने उस प्रमाण को ढूँढना प्रारम्भ किया और उसके बाद मैंने सोचा, तो मैंने खोजा कि इस विषय से निपटने का एक बेहतर तरीका यह पता करना है कि मूर्ति का क्या हुआ। क्योंकि मन्दिर विशाल संरचनाएँ थे, इसलिए उन्हें संरक्षित करना सम्भव नहीं था। परन्तु मूर्तियों को संरक्षित किया जा सकता था। इसलिए, क्या छवि, मूर्ति को संरक्षित करने के लिए कोई प्रयास किया गया था? और मुझे पता चला कि कुछ विद्वानों ने इस पर काम किया है परन्तु मैंने पाया कि कितनी सावधानी से हिन्दुओं ने अपने देवताओं को संरक्षित करने का प्रयास किया और उन्हें संरक्षित करने के लिए वे किस सीमा तक गए। और इतनी शताब्दियों के बाद, उन्होंने छवियों को एकदम उन्हीं मन्दिरों में पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया।”

अपने बिन्दु को समर्थन देने के लिए, वह कोल्हापुर में 9वीं शताब्दी के महालक्ष्मी मन्दिर के उदाहरण को उद्धरित करती हैं, जिस स्थल पर, संयोग से, शक्ति माता या माता देवी की पहले की गई पूजा का प्रमाण भी है। जब दक्षिणी भारत पर इस्लामी चढ़ाई प्रारम्भ हुई, तब छवि मन्दिर से गुम हो गई और मन्दिर के परिसर का उपयोग स्थानीय प्रशासन के कार्यालय के रूप में किया जाना प्रारम्भ हुआ। उसके बाद, शताब्दियों बाद जब सम्भाजी द्वितीय 18वीं शताब्दी में कोल्हापुर के शासक थे, तब उन्होंने व्यक्त किया कि हिन्दू मूर्ति को फिर से स्थापित करने की स्थिति में थे और उन्होंने मूर्ति को ढूँढना प्रारम्भ किया। उन्हें मूर्ति किसी भक्त के घर में मिली और उसके बाद छवि को उस मन्दिर में फिर से स्थापित किया गया और इसकी पूजा किया जाना आज भी जारी है। इसलिए, यह कहने के बजाय कि मन्दिर के विनाश और मूर्ति के अपवित्रीकरण और बर्बरता के कोई हिन्दू रिकॉर्ड नहीं हैं, कोई व्यक्ति एक विपरीत प्रस्ताव रख सकता है कि यह तथ्य कि मूर्तियों को भक्तों द्वारा छुपाया गया था या स्थानान्तरित किया गया था एक स्थापित सत्य है ।

इसके अलावा, जब वामपन्थी इतिहासकार यह कहते हैं कि यह हिन्दू राजाओं के लिए भी एक अभ्यास था कि वे मन्दिरों पर चढ़ाई करे तब उनका निहितार्थ यह है कि हिन्दू राजा वास्तव में उन छवियों को नष्ट कर रहे थे। परन्तु राजा वास्तव में जो कर रहे थे, वह इसे स्थानान्तरित करना, इसे अपने अधिकार में लेना या इसके सम्मान में अपना स्वयम् का मन्दिर बनाना था। हिन्दू राजाओं द्वारा मूर्तियों को अपने अधिकार में लेने के शायद केवल आधा दर्जन ऐसे उदाहरण हैं और, अधिक महत्वपूर्ण रूप से, मूर्तियों को बहुत उच्च सम्मान में, अत्यधिक पूजनीय और शक्तिशाली आध्यात्मिक शक्ति के साथ रखा जाता था। उन्हें अत्यन्त पूजनीयता और भक्ति के साथ फिर से स्थापित किया जाता था। यह मुस्लिम शासकों के अभ्यासों के एकदम विपरीत था जो टूटी हुई मूर्तियों को मस्जिद की सीढ़ियों पर फेंकते थे ताकि श्रद्धालु उन्हें रौंद सके और पीस सक धूल में मिला सकें। इसलिए, किसी मूर्ति को हिन्दू राजाओं द्वारा अपने अधिकार में लेने और किसी मुस्लिम आक्रमणकारियों के मूर्तियों को नष्ट करने के बीच की तुलना एक झूठा सादृश्य है और दोनों को ऐसे बराबर करना जैसे कि उनके बीच में कोई अन्तर नहीं है, अकादमिक रूप से अनुपयुक्त है।

विपरीत-साहित्य की अनुपस्थिति

मैं विभिन्न प्रकार के विरोधियों के साथ व्यवहार करता हूँ, जिनमें सम्मिलित हैं – पश्चिमी विद्वानों, उनके जाने-पहचाने क्षेत्र पर और भारतीय वामपन्थी जो उन्हें समर्थन दे रहे हैं और, वास्तव में, दोनों एक साथ काम कर रहे हैं। हिन्दू बुद्धिजीवियों के मामले में मुझे शैक्षणिक कठोरता का अभाव, ईर्ष्या और ख़राब अकादमिक मानकों जैसी समस्याएँ मिली हैं। हम अनेक सम्मेलनों, मन्थनों और शिखर सम्मेलन करवाते रहते हैं और बहुत से लोग अन्दर आ जाते हैं और राय देते हैं और ठोस शोध को प्रस्तुत करने की बजाय, भावनात्मक विस्फोटों का सहारा लेते हैं। बहुत सारे लोग इन जगहों पर जमे रहते हैं, एक मेले से अगले मेले तक जाते हैं और वे वास्तव में कुछ भी उत्पादन नहीं कर रहे हैं। मीनाक्षी जैन भी इस दृष्टिकोण से सहमत हैं और कहती हैं कि तथाकथित हिन्दू बुद्धिजीवियों के बीच, नारेबाज़ी, वास्तविक शोधों अधिक महत्वपूर्ण है। वह कहती है:

 “क्या आपको पता है कि अनेक बार जब मैंने शोध करना प्रारम्भ किया, तब मैं कुछ पश्चिमी विद्वानों से मिलूँगी और वे कहेंगे कि आप हमारे लेखन और वामपन्थी लेखन के बारे में इतना विक्षुब्ध हैं, कृपया हमें ऐसा विपरीत साहित्य दें, जो हम पढ़ सकें, और कोई विपरीत साहित्य नहीं है।”

नई सरकार ने इस सम्बन्ध में सहायता नहीं की है क्योंकि मैं पा रही हूँ कि पुराने सिपाही जो किसी पार्टी या राजनेता के प्रति वफादार रहे हैं, उन्हें इन प्रकार के पद मिलते हैं और, वास्तव में, उनके प्रवचन के मानदण्ड काफ़ी घटिया हैं। इसके अलावा, हिन्दु निकायों ने किसी भी विशिष्ट मुद्दे पर महत्वपूर्ण शोध नहीं किया है और न ही उन्होंने शैक्षिक आउटपुट का उत्पादन या इसे सुविधा देने में सहायता की है। इस प्रकार, किसी व्यक्ति को वामपन्थी बुद्धिजीवियों के लेखन पर भरोसा करना पड़ता है क्योंकि उन्होंने विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक और साँस्कृतिक मुद्दों पर बहुत लेखना का उत्पादन किया है। इसलिए, ये मीनाक्षी और मेरे जैसे फ्रीलांसर्स हैं जिन्होंने विश्वसनीय ध्यानकेन्द्रित शोध का उत्पादन किया है। ऐसा नहीं है जैसे कि हिन्दू संगठनों ने हमारी सहायता की है।

धार्मिक परिप्रेक्ष्य से बहुत सा लेखन केवल तभी आएगा जब हिन्दू पक्ष में अच्छे विद्वान होंगे और अब तक उन्होंने अच्छे विद्वानों का उत्पादन नहीं किया है। विद्वानता का गर्भकाल लम्बा होता है और इसे संसाधनों और समय के सन्दर्भ में भारी निवेश की आवश्यकता होती है। अनेक विद्वानों में पर्याप्त प्रतिस्पर्धात्मकता का अभाव है और तार्किक तर्क करने की उनकी क्षमता नहीं है, परन्तु वे तपस्या किए बिना, प्रसिद्धि पाना चाहते हैं। मीनाक्षी जैन सहमत हैं और उनका अवलोकन है कि शोध करने की इच्छा को स्वयम् के भीतर से आना पड़ता है और एक व्यक्ति को अपनी स्थिति के औचित्य के बारे में बहुत क़ायल होना पड़ता है और एक उपयोगी लेखन का उत्पादन करने के लिए, अपने जीवन के अनेक वर्षों का बलिदान करने के लिए इच्छुक होना पड़ता है। कड़ी मेहनत के साथ जुड़ी हुई कोई महिमा और ग्लैमर नहीं है।

अनेक विद्वान ऐसे लगते हैं जैसे उन्हें ऐसे बौद्धिक काम के बारे में कुछ भी पता नहीं है जो किया जा रहा है जिसका उन्हें खण्डन करना पड़ता है। वे प्रतिद्वन्द्वी का पर्याप्त पूर्व-पक्ष नहीं करते हैं। उनमें से कुछ बस आलसी या अयोग्य हैं और आगे बढ़ने के लिए राजनीतिक प्रतिष्ठानों की अच्छी किताबों में शीघ्रतापूर्वक जाने में अधिक रुचि रखते हैं। उनमें से कुछ बस यहाँ से विचारों का अनधिकृत शिकार करते हैं, और साहित्यिक चोरी करते हैं और फूलों की तरह चुनते हैं और एक नया ब्लॉग या एक लेख लिखते हैं। भले ही हमारे पास पोलक के कामों पर 10 ट्रैक्स और 10 पैनल्स हैं, और हम यह व्यक्त करते हुए कि हम प्रोत्साहित करने और छात्रवृत्ति देने के लिए तैयार हैं, पेपर के लिए एक आह्वान होता है, तब भी अधिकतर प्रतीकी स्वयम्-घोषित हिन्दू विद्वान उनके काम को नहीं पढ़ते हैं और नहीं पढ़ना चाहते हैं। फिर भी वे रायों से भरे हुए हैं। मीनाक्षी जैन कहती हैं:

“तो मैंने उनमें से एक को बताया, मैंने कहा कि आप इरफ़ान हबीब, आदि के बारे में जानते हैं, परन्तु मुद्दा यह है कि पश्चिमी विद्वानों की अगली पीढ़ी के बारे में क्या जो इन लोगों के काम को जारी रख रहे हैं। मैंने कहा कि भारत में वामपन्थी विद्वानों की दूसरी पीढ़ी इस वैचारिक लड़ाई से बाहर निकलने का विकल्प चुन रही और विशुद्ध रूप से शैक्षणिक विषयों पर कठोर शोध कर रही हो सकती है, परन्तु पश्चिमी विद्वानों की एक नई पीढ़ी है जिन्होंने इतने अधिक काम का उत्पादन किया है। क्या आप ऐसा नहीं सोचते हैं कि आपको उसका विरोध करना है? परन्तु उन्हें नामों तक का पता नहीं है।”

मेरे बहुत से काम का उपयोग, किसी भी सन्दर्भों या देय क्रेडिट को दिए बिना, उनके स्वयम् के नाम में, इन्हीं (हिन्दू विद्वानों) द्वारा किया गया है। ज्ञान की भुखमरी वाले राजनीतिक ढाँचे में आगे निकलने के लिए, वे मेरे काम की बस प्रतिलिपि करते हैं। वर्तमान हिन्दू राजनीतिक ढाँचा बहुत ज्ञान की भुखमरी वाला और शोध की भुखमरी वाला है, और इसलिए, ऐसे लोग हैं जो आगे निकलने के लिए उस निर्वात को भरना चाहते हैं, और वे अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए बेईमान साधनों का उपयोग करते हैं। तो यह एक समस्या है।

जैसा मीनाक्षी जैन सही तौर पर इंगित करती हैं, यह आश्चर्यजनक बात है कि हिन्दू बौद्धिक रूप से कितने दुर्बल बन गए हैं। सबसे अधिक प्रतिकूल परिस्थितियों और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों तक में, हिन्दु गतिशील थे, विरोधियों का पर्याप्त पूर्व पक्ष किया करते थे, यह जानते थे कि हर परिस्थिति को कैसे सँभालना है और अपनी पहचान और उनकी संस्कृति को संरक्षित किया करते थे। वे उसके बारे में बहुत ही जागरूक और गर्वयुक्त थे जिसे वो अपनी संस्कृति या अपनी विरासत के रूप में मानते थे। अब हिन्दू मन का दुर्बलीकरण नियम है और मैं इसे हिन्दुओं का मोरॉनीकरण कहता हूँ, एक ऐसी स्थिति जहाँ बौद्धिक रूप से अधिक जागरूकता नहीं है।

भावी स्वदेशी इण्डोलॉजी श्रृंखला

हम रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, उनके छात्रों, जो विचारों का एक विशिष्ट स्कूल है, की तरह के इतिहासकारों का खण्डन करने पर एक भावी स्वदेशी इण्डोलॉजी श्रृंखला को विकसित कर रहे हैं और पेपर के लिए आह्वान करेंगे और उसे लेने के लिए नए, युवा विद्वानों को इसके अन्दर लाएँगे और प्रोत्साहित करेंगे। यदि हम विद्वानों का निर्माण करना चाहते हैं, तो हमें लक्षित विषय होने की आवश्यकता है और हम भारत के युवा इतिहासकारों और राजनीतिक विचारकों के सबसे अच्छे मस्तिष्कों को पाना चाहते हैं। हम एक ध्यानकेन्द्रित दृष्टिक

About Author: Rajiv Malhotra

Rajiv Malhotra is an Indian–American researcher, writer, speaker and public intellectual on current affairs as they relate to civilizations, cross-cultural encounters, religion and science. Rajiv has conducted original research in a variety of fields and has influenced many other thinkers in India and the West. He has disrupted the mainstream thought process among academic and non-academic intellectuals alike, by providing fresh provocative positions on Dharma and on India.

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