राजीव मल्होत्रा और मीनाक्षी जैन के संवाद पर आधारित लेख - राजीव मल्होत्रा द्वारा वर्णित – भाग १
भारतीय इतिहास पर वामपंथ का प्रभुत्व
इस व्याख्यान में, मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास और राजनीति विज्ञान की एक रीडर, मीनाक्षी जैन, के काम पर चर्चा करना चाहता हूँ। मैं मीनाक्षी जैन को दो दशकों से जानता हूँ और उन्हें भारतीय इतिहास और राजनीतिक मामलों के सबसे श्रेष्ठ विद्वानों में से एक मानता हूँ। उन्होंने शेल्डन पोलक पर दिल्ली में स्वदेशी इण्डोलोजी 2 सम्मेलन में भाग लिया था और एक उत्तम पेपर प्रस्तुत किया था। हम दोनों में एक बात उभयनिष्ठ है, कि हम दोनों ने भारत में वामपन्थी लोगों के काम की आलोचना की है, जो या तो हमसे लड़ते हैं या फिर हमें अनदेखा करते हैं या फिर हमें अजीब नामों से बुलाते हैं। मेरा अनेक वर्षों से मीनाक्षी जैन जी के साथ सम्पर्क नहीं रहा था और मैंने सोचा कि यह इस अन्तराल में हुई घटनाओं को जानने के लिए एक अच्छा समय होगा |
भारतीय शिक्षाविदों में वामपन्थी-विचारकों की पकड़, अयोध्या बाबरी मस्जिद विवाद, सती, मूर्तिभंजन के बारे में ग़लत धारणाओं और शोध के भावी स्वदेशी इण्डोलोजी क्षेत्र जैसे विषयों पर हमारी एक अद्भुत चर्चा हुई।
भारतीय शिक्षाविदों पर वामपन्थी-प्रभुत्व
वामपन्थ के युग के दौरान, जो इरफ़ान हबीब और रोमिला थापर जैसे विद्वानों के प्रभुत्व की अवधि में है, भारत के शिक्षाविदों में प्रचलित विद्वता पर चर्चा करते हुए, वो उल्लेख करती हैं कि भारतीय शिक्षाविदों पर उनकी मज़बूत पकड़ पूरी तरह से थी। वो वित्तपोषण करने वाली सभी एजेन्सियों पर पूरे नियन्त्रण का अभ्यास करते थे और जो भी छात्र शोध करना चाहते थे, उन्हें इन लोगों के तहत और इन लोगों के दृष्टिकोण से शोध करना पड़ता था। इसलिए जो व्यक्ति उन लोगों की विचारधारा या सोचने के तरीके का विरोध करता था, ऐसे किसी व्यक्ति के लिए इतिहासकार के रूप में या किसी विद्वान के रूप में कोई स्थान बनाना बहुत कठिन था। इसलिए यदि किसी भी व्यक्ति का कोई अलग या विपरीत दृष्टिकोण था या वो अपने स्वयम् के पथ को निर्धारित करना चाहता था, उसके लिए यह एक बहुत ही अकेला रास्ता था और वे बस अपने बूते पर थे।
भारतीय शिक्षाविदों के वामपन्थी-प्रभुत्व प्रारम्भ तब हुआ था जब कांग्रेस पार्टी की सरकार अल्पमत में आ गई थी। उस समय पर, कांग्रेस सरकार को गठबन्धन के साझेदारों की आवश्यकता थी और उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) को चुना था। जब उनकी विचारधारात्मक स्थिति को आगे बढ़ाने का सम्बन्ध है, तब वामपन्थ सदैव बहुत कुटिल रहा है, और भारतीय इतिहास की विशिष्ट वामपन्थी कहानी को आकार देने के लिए एक औज़ार के रूप में, शिक्षा मन्त्रालय के महत्व का एहसास करते हुए, उन्होंने शिक्षा मन्त्रालय की बागड़ोर संभाली और इसे प्रोफ़ेसर नूरूल हसन को सौंपा गया जो सीपीआई के एक कार्ड धारक सदस्य थे। यह पद सँभालते ही जो पहला काम प्रोफ़ेसर नूरुल हसन ने अपने दल के साथ किया था, वह था – ऐसे सभी इतिहासकारों को ब्लॉक करना या अवैध करना, जो इतिहास को देखने के वामपन्थी लेन्स को स्वीकार नहीं करते थे। आर सी मजूमदार और यदुनाथ सरकार जैसे अनेक प्रसिद्ध गैर-वामपन्थी इतिहासकारों के योगदान को दरकिनार कर दिया गया था।
उदाहरण के लिए, यदुनाथ सरकार ने प्रशासन, कृषि और इस तरह के अन्य जैसे विभिन्न पहलुओं को स्पष्ट रूप से चित्रित करके, भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में मुगल साम्राज्य का एक व्यापक अनुभवजन्य अध्ययन किया था। फिर भी, वामपन्थियों ने भारतीय इतिहास के इस साक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण को छोटा करने का प्रयास किया। जदुनाथ सरकार की एक हालिया जीवनी में, यह विद्वान इस बात को देखते हुए चकित है कि इरफ़ान हबीब अपनी किताब “मुग़ल भारत की कृषि प्रणाली” में जदुनाथ सरकार का एक बार भी उल्लेख नहीं करते है। एक प्रकार से, गैर-वामपन्थी इतिहासकारों को इतिहास के पन्नों से व्यवस्थित रूप से मिटा दिया गया है, ताकि वामपन्थियों को ऐसे असुविधाजनक तथ्यों से निपटना न पड़े, जो उनकी कहानी के अनुरूप नहीं बैठते हैं।
गैर-वामपन्थी विद्वानों के लिए, अकादमिक रूप से फलना-फूलना या अपने पेपर्स या पुस्तकों को प्रकाशित करवा पाना बहुत कठिन है। कोई व्यक्ति जिस किसी प्रकाशक के पास जाता है, उन प्रकाशकों को इन पेपर्स या पुस्तकों को समीक्षकों को देना होता है, और जो लोग महत्वपूर्ण होने के लिए ज्ञात हैं, भले ही वे अच्छे विद्वान हैं या नहीं, वे इस तरह के वामपन्थी-झुकाव वाले शिक्षाविद होते हैं जो पुस्तक की बस हत्या कर देते हैं।
मीनाक्षी जी इस सरल कारण से बच गयीं कि वे किसी भी व्यक्ति से कोई संरक्षण नहीं चाहतीं थीं। वे कोई नौकरी नहीं ढूँढ रहीं थीं। उनके पास एक साधारण नौकरी थी जो उनके खर्चे निकालाने के लिए पर्याप्त थी। क्योंकि उनकी पुस्तकों को प्रकाशित करवाना इतना कठिन था, तो उन्होंने इस पर कभी समय नहीं गँवाया। वे जानतीं थीं कि उनके द्वारा लिखा प्रालेख वामपन्थी विद्वानों के पास जाएगा और वे उसे अंततः अस्वीकार ही करेंगे, इसलिए उन्होंने कभी अपनी पुस्तकें छपवाने का गंभीर प्रयास नहीं किया। उदाहरण के लिए, एक पुस्तक जिसमें मध्यकालीन अवधि में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों पर एक बहुत विस्तृत अध्ययन था, उसे एक समीक्षक के पास भेजा गया और समीक्षक ने कहा कि यह एक बहुत ही गम्भीर काम है और यह ऐसी सभी बातों का उल्लेख करता है जो इस विषय पर लिखी गई हैं, परन्तु मैं प्रकाशक को यह लिखने की सलाह देता हूँ “यह हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का एक हिन्दू दृष्टिकोण है”। इसलिए, स्वाभाविक रूप से, प्रकाशक डर गया और उन्होंने कहा, “मुझे बहुत खेद है, परन्तु मैं इसे प्रकाशित नहीं कर सकता क्योंकि यह हिन्दू दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है”।
मीनाक्षी जी ने चार पुस्तकों के लिए चार प्रकाशकों को आज़माया और जिस-जिस व्यक्ति को प्रालेख भेजा, उनमें से हर एक ने कहा कि यह एक बहुत ही उच्च कोटि का काम है, परन्तु यह केवल एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसलिए इसे अस्वीकार कर दिया गया था। वास्तव में, अयोध्या पर उनका प्रालेख चार प्रकाशन गृहों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया और यह केवल भारतीय पुरातत्वविदों (जो उस स्थल की खुदाई करने में बहुत सक्रिय रूप से सम्मिलित थे) का हस्तक्षेप था, कि अंततः इसे प्रकाशित करवाया गया।Get monthly updates
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भारत, जैसा उन्होंने देखा
मीनाक्षी जैन ने “भारत, जैसा उन्होंने देखा” नामक, भारत का एक तीन खण्ड का अध्ययन किया है जो मध्य आठवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक भारत आए विदेशी यात्रियों का एक विवरणयुक्त खाता प्रस्तुत करता है। ये यात्री दुनिया के विभिन्न भाग, जैसे यूरोप, चीन, सुदूर पूर्व और मुस्लिम देशों से आए थे। वास्तव में, उनमें से बहुत सारे अरब और साथ ही फारसी लेखक थे। इस शोध के लिए स्रोत अधिकतर ऐसे लेख थे जिनका अनुवाद अंग्रेजी में किया गया था, और जिन्हें विश्व भर के पुस्तकालयों और संस्थानों से एकत्र किया गया था।
लगभग सभी विवरणों में, यह बात स्पष्ट है कि ये यात्री भारत को बहुत उच्च सम्मान दिया करते थे। भारत में उन्होंने जो कुछ भी देखा था, वे उस बारे में विस्मय से भर जाते थे, चाहे यह आर्थिक प्राण-शक्ति, समाज में महिलाओं का स्थान या लचीले दो-आयामी जाति-वर्ण प्रणाली की वास्तविक प्रकृति था, जिसे बाद में ब्रिटिश द्वारा एक पदानुक्रमित एक-आयामी जाति व्यवस्था में ढहा दिया गया था।
भारत की उनकी पहली यात्रा पर पिएत्रो डेला वैले के रूप में जाने वाले एक इटेलियन नोबलमैन दक्षिण भारत गए थे। ईरान के शाह का साक्षात्कार करने के बाद, उन्होंने फारस से भारत की यात्रा की थी। उनके साथ एक दुभाषिया था। उन दिनों, मातृवंशीय समाज दक्षिणी क्षेत्रों में प्रचलित था, और पिएत्रो ने जाना कि जिस गाँव का उन्होंने दौरा किया था, उसकी शासक एक महिला थीं। उन्हें यह सूचित किया गया था कि उस समय वह महिला एक खेत में एक नाली की खुदाई का पर्यवेक्षण करने में व्यस्त थीं। पिएत्रों ने खेत का दौरा किया और उस महिला को एक साधारण व्यक्ति की तरह कपड़े पहने और नंगे पैर चलते पाया। परन्तु पिएत्रों यह जानकर भौचक्के रह गए कि वह महिला विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के साथ पूरी तरह से परिचित थीं और उन्हें इस तरह के मामलों में ईरान के शाह की तुलना में कोई कम बोध नहीं था।
एक और बात जो विदेशी यात्रियों के लेखनों के किसी विवरणयुक्त अध्ययन से स्पष्ट है, वह भारतीय समाज में ब्राह्मणों का उच्च सम्मान है। यह किसी पदानुक्रमित जाति व्यवस्था और एक टूटे हुए बाल्कनाइज्ड समाज की मुख्यधारा की कहानी के विपरीत है, जहाँ ब्राह्मणों को तथाकथित निचली जातियों के उत्पीड़कों के रूप में चित्रित किया जाता है। 1766 के आसपास, मद्रास के एक अंग्रेजी कलेक्टर मद्रास से दूसरे गाँव तक यात्रा करना चाहते थे जो कुछ सौ मील दूर था। क्योंकि वह पूरी दूरी तक किसी घोड़े की सवारी नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने एक पालकी पर स्वयम् को पूरी तक ले जाने के लिए पालकी के कहारों को तय किया। जब वे उस गन्तव्य पर पहुँचे, तो सड़क यात्रा के कारण पालकी के कहार मिट्टी से सने हुए थे। कलेक्टर पालकी से उतरे और उनके ध्यान में आया कि गाँव में कोई भी व्यक्ति उन पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था। वे पालकी के कहारों को प्रणाम कर रहे थे, जो सभी ब्राह्मण थे, और भारतीय परम्पराओं और ज्ञान प्रणाली के पारम्परिक संरक्षक होने के लिए, उन्हें उच्च सम्मान दिया जाता था। कोई राजनीतिक शक्ति हुए बिना, उन्हें तत्कालीन भारतीय समाज में बहुत उच्च सम्मान दिया जाता था।
यह शोध का एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जो कुछ आश्चर्यजनक खोजों तक ले जा सकता है जो प्रचलित समझ को चुनौती देगा और भारतीय समाज और जाति की गतिशीलता के बारे में आज हम जो सोचते हैं, उसका खण्डन करेगा। इस विषय में भारत के बारे में विदेशी यात्रियों के मूल स्रोतों से ऐसे निष्कर्षों, जो किसी भी विशिष्ट विचारधारा या विद्वानों की झूठी बातों से छाने नहीं गए है, पर एक पैनल या एक गम्भीर सम्मेलन का आयोजन करने की आवश्यकता है । मैं समझता हूँ कि यह बहुत रोचक और अद्भुत तथ्यों को सामने लाएगा।
ध्यान दें: यह लेख इस श्रृंखला का पहला भाग है और इस विडियो पर आधारित है।
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