गँगा के घाट पर बैठी सुचिता ने जब अपनी पुरानी जिंदगी को याद किया तो उसे कोई तकलीफ नहीं हुई।
नए जीवन की ओर (भाग ३)
सुचिता पानी में अपनी आखिरी साँसें ही ले रही थी कि उसे लगा की कोई उसका हाथ पकड़ कर उसे बाहर निकाल रहा है। ऐसा सच में हो रहा था या उसका भ्रम था, उसे नहीं पता था। अचानक से अब वह पानी में डूबने के वजाय तैर रही थी। उसके आसपास कोई नहीं था। हाँ, थोड़ी दूर घाट पर कुछ साधू लोग जरूर उसे देख रहे थे। उनमें से एक पानी में कूदा और तैरते हुए उसके पास आया। उस साधू ने सुचिता का हाथ पकड़ा और उसे किनारे की ओर खींच लाया। किनारे पर दूसरे साधू लोगों ने उसे बाहर निकालने में मदद की। इतनी देर पानी में रहने के बाद भी सुचिता के ऊपर उसका कुछ असर नहीं दिख रहा था।
“गँगा मैया ने बच्ची को जीवन दान दिया है।” उनमें से एक साधू बोल पड़ा। इतने में एक दूसरे साधू ने अपने शाल से सुचिता को ढक दिया और बड़े प्यार से बोला “कोई जाकर बच्ची के लिए गरम चाय ले आओ।” तब तक एक तीसरा साधू उसके बाल अपने एक फटे हुए कपडे से पोछने लगा। और पहले दो साधू लोग उसके पैरों के तलुवे अपने हाँथों से मसलने लगे। यह सब सुचिता को बहुत अजीब सा लग रहा था। वह कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कहने के लिए उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। सुचिता को ऐसे बाबा लोगों से डर लगता था। जब वह छोटी थी तब उसकी माँ कहा करती थी कि ऐसे बाबा लोग बच्चों को उठा ले जाते हैं और बाद में उनसे भीख मँगवाते हैं। यह सुनकर ही सुचिता काँपने लग जाती थी। जब वह बड़ी हुई तो छोटे का वह डर तो कम हुआ, पर फिर भी ऐसे लोग उसे बहुत अजीब लगते थे। शायद थोड़ा डर और थोड़ी घृणा सी थी सुचिता को बाबा लोगों से।
“मैं ठीक हूँ।” थोड़ी देर बाद सुचिता कुछ हिम्मत बाँध कर बोली। तब तक चाय आ गयी। उसके हाथ में गर्म चाय पकड़ा कर सारे साधू लोग आसपास ही बैठ गए। ये सब क्या हो रहा था? उसे बाहर किसने निकाला? सुचिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वह घाट जहाँ सुचिता बैठी थी, बिल्कुल त्रिवेणी ही लग रहा था। पर ऐसे कैसे सम्भव था? उसे तो लगा था कि वह कहीं दूर बह गयी थी। और फिर जब वह बाहर निकली तो वह होश में कैसे थी? इतनी देर पानी में रहने के बाद भी वह ठीक कैसे महसूस कर रही थी? और इस सबसे बढ़कर इतनी देर रात इतने साधू लोग अचानक से इसी घाट पर कैसे आ गए? और इन लोगों को उससे इतनी हमदर्दी क्यों? एक के बाद एक सवाल उसके मन में आये जा रहे थे।
पानी से बाहर आने के लगभग दस या पंद्रह मिनट बाद ही सुचिता ने उन बाबा लोगों की ओर ठीक से देखा। उनमें से एक कद के थोड़े छोटे थे और उम्र में शायद सबसे बड़े। उनकी बड़ी बड़ी ढाड़ी और मूछें थी जो पूरी तरह से सफ़ेद हो चुकी थीं। उनकी आँखें के नीचे गहरे गड्ढे थे और उनके गाल पिचके हुए थे। उन्होंने अपने सारे शरीर पर भभूत लगायी हुई थी। देखने में वह बहुत कमजोर लगते थे पर उनकी आवाज में जो तेजी थी उसके सामने उनके देह की कमजोरी कुछ भी नहीं थी। शायद इसीलिए वह इस साधुओं की टोली के मुखिया जैसे लगते थे। उनके सर पर जय भोले छपा एक पुराना भगवा कपड़ा बँधा हुआ था। उनके गले में तीन चार रुद्राक्ष मालायें थीं और उनके हाथ में भी रुद्राक्ष की मालायें बंधी थी। उनके पास में रखे झोले से एक बजाने वाला चिमटा बाहर झाँक रहा था। और उस झोले में क्या था कुछ कहा नहीं जा सकता। ये वही बाबा थे जिन्होंने अपना शाल सुचिता को उढ़ाया था और उसके लिए चाय मंगाई थी।
सुचिता की नजर फिर उस बाबा पर गयी जो पानी में उसे बचाने के लिए कूदे थे। ये शायद इस टोली में सबसे छोटे थे। इनके सर के बाल अभी भी काले थे। पानी में भीगने की वजह से वो अपने बाल खोल रखे थे और सुचिता बड़ी हैरानी से उन बालों की लम्बाई को देख रही थी। उसने इससे पहले किसी आदमी के इतने लम्बे बाल नहीं देखे थे। आदमी की तो छोड़िये उसने तो किसी लड़की के भी इतने लम्बे बाल नहीं देखे थे। ये बाबा देखने में थोड़ा गुण्डे जैसे लगते थे। ऐसे कि कोई सीधी सादी लड़की देख ले तो डर के भाग जाए।
जिन बाबा ने कहा था कि गँगा मैया ने सुचिता को जीवन दान दिया है वो बाकि सभी बाबा लोंगो से मोटे और साँवले थे। उनके गोल चेहरे पर एक बड़ा सा मस्सा था और उनके हाँथ लगातार काँप रहे थे। वह थोड़ी थोड़ी देर में जोर से जय भोले बाबा बोल देते थे। उन्होंने भी अपने सारे शरीर पर भभूत लगायी हुई थी। बाकी बचे दो बाबा लोगों को सुचिता ठीक से देख नहीं पायी क्योंकि वो थोड़ा दूर अँधेरे में खड़े थे।
बूढ़े बाबा ने सुचिता से सवाल किया “अभी कैसा लग रहा है बिटिया?”
सुचिता की दादी के अलावा उसे कभी किसी और ने बिटिया कह कर नहीं बुलाया था। बाबा की आवाज के अपनेपन और उनके चेहरे पर खिली एक हल्की सी मुस्कुराहट ने सुचिता के सारे डर को भगा दिया। जिस प्यार से उन्होंने सुचिता को बिटिया बुलाया, सुचिता को तुरंत ही उनसे एक दादा-पोती जैसा लगाव हो गया। वह बोली “मैं ठीक हूँ। क्या आप बता सकते हैं कि यह कौन सा घाट है?”
“त्रिवेणी है बिटिया। तुम कहाँ की रहने वाली हो?” उन्होंने सवाल किया।
सुचिता का शक सही निकला। वह अभी भी त्रिवेणी में ही थी। तो क्या वह सिर्फ कुछ क्षणों के लिए ही पानी में थी? ऐसा कैसे संभव था?
“क्यों क्या हुआ बिटिया?” सुचिता के जवाब ना देने पर बूढ़े बाबा ने पूछा।
“नहीं कुछ नहीं। मैं यही ऋषिकेश की ही हूँ। आप लोग इतनी देर रात इस घाट पर क्या कर रहे हैं?”
“क्या पता? सब कैलाशनाथ की लीला है। हमने तो इस तरफ आने की सोची भी नहीं थी। हरिद्वार से सीधा कैलाश मानसरोवर जाने का विचार था। फिर अचानक ही हमारा मन ऋषिकेश आने का हुआ। अभी कुछ देर पहले ही पहुंचे और रात इस घाट में गुजारने की सोच यहाँ आ गए। जब यहाँ पहुँचे तो इस रामदास को पानी में कुछ है ऐसा संदेह हुआ और फिर अचानक से तुम नजर आयीं और ये पानी में कूद तुमको खींच लाया। सब कैलाशनाथ का रचा है। शायद तुमसे कोई ऋणबंध रहा होगा इसीलिए ही मेरा मन बार बार ऋषिकेश आने का हो रहा था।”
“पर ये तो बताओ की तुम पानी में कूदी क्यों?” अँधेरे में खड़े हुए दो बाबाओं में से एक ने पूछ दिया। सुचिता ने उसकी तरफ देखा। अब वह अँधेरे से थोड़ा रोशनी की ओर आया था। इस वजह से सुचिता उसे ठीक से देख पायी। वह भी रामदास की ही उम्र का लग रहा था। उसने सर पर एक भगवा कपड़ा बाँध रखा था। एक पीले रंग का पुराना कुर्ता और सफेद रंग की धोती पहने वह लगातार चिलम फूँक रहा था। उसके चेहरे पर हल्की दाढ़ी और मूंछ थी। उसके माथे पर एक कटने का निशान था, उसका चेहरा सपाट और आँखें छोटी थीं। शायद वह पहाड़ी था। सुचिता ने उसके सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। वह कहती भी तो क्या? वैसे भी यूँ अनजान लोगों को अपनी जिंदगी की रामलीला सुनाकर मिलना भी क्या था?
शायद रामदास को लगा कि ऐसा सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए, इसलिए वह गरजते हुए बोला “तुम्हें कैसे पता कि वो कूदी थी? गलती से फिसल गयी हो तो?”
“वाह रे मेरे रामदास, ऐसे तो बड़े बुद्धिमान बनते हो, अभी क्या अकल घास चरने गयी है तुम्हारी? इतनी रात को अकेली लड़की ऐसे सुनसान घाट पर कूदने नहीं तो क्या गाना गाने आएगी?” वह लड़का कुछ ताना मारने के अंदाज में बोला और हँस दिया।
“माधव, कई बार कहा है कि थोड़ा कम बोला करो।” बूढ़े बाबा ने बात को वहीँ रोक दिया और फिर सुचिता की तरफ देखकर बोले “बिटिया, कहाँ जाओगी? रामदास तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आएगा।”
घर का जिक्र होते ही सुचिता की आँखें भर आयीं। अपने आँसुओं पर रोक लगा कर वह बोली “मैं….मेरा कोई घर नहीं। अभी दो दिन पहले ही मेरे पति गुजर गए। उनके अलावा और मेरा कोई नहीं था।” पर जो काम करने से उसने अपनी आँखों पर रोक लगायी थी, वह उसकी दर्द भरी आवाज ने कर दिया। उसका गला भर आया और फिर आँखों ने भी रुकने से मना कर दिया। वह छोटे बच्चे सा रोने लगी। अचानक उसे लगा जैसे उसका सारा दर्द अभी ही बाहर निकलने को बेचैन हो रहा था।
“इतनी छोटी सी उम्र में इतना बड़ा कष्ट ! ना जाने कैलाशनाथ लोगों की कैसी कैसी परीक्षायें लेते हैं। पर बिटिया, तुम्हारे मायके में तो कोई होगा ना?”
“नहीं, कोई नहीं।” सुचिता किसी तरह से अपने आँसुओं पर नियंत्रण करते हुए बोली।
बूढ़े बाबा उठ खड़े हुए। और उसके पास आ कर बैठ गए। फिर उसके सर पर धीरे से हाथ फेरते हुए बोले “नहीं बिटिया, खुद को रोको मत। रो लेना अच्छा है। पर ऐसा मत सोचो कि तुम्हारा कोई नहीं। ये गँगा मैया, ये भी तो तुम्हारी ही हैं। क्या इन्होंने तुम्हारी इच्छाएं पूरी नहीं कीं?”
“क्या हर चीज मुँह से कह कर माँगेंगे, तभी मिलेगी? हाँ, इन्होंने मुझे रमन से मिलाया। रमन से शादी की इच्छा भी पूरी की। पर जो मुँह खोल कर नहीं माँगा तो मेरे पापा और दादी को इन्होंने नहीं बचाया। मेरे भाई और माँ से मुझे दूर कर दिया। मेरे रमन को भी नहीं बचाया। ये कैसी माँ हैं?” सुबकते हुए सुचिता बोली।
“पर आज तुम्हें तो बचाया।” बूढ़े बाबा उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोले।
“पर क्यों? क्या वह नहीं जानतीं कि मुझमें जीने की कोई इच्छा नहीं।”
“वह सब जानती हैं। तुम्हारा दुःख भी समझती हैं। शायद वह तुम्हें अपनी गोद में समा भी लेने देतीं अगर तुम्हारा जीवन अभी बाकी ना होता।”
“पर ऐसे जीवन का मैं करूँ क्या? मेरे ससुराल वालों ने मुझे घर से निकाल दिया। मेरे मायके से मेरा रिश्ता तो कब का खत्म हो गया था। मेरे पास जाने के लिए अब कोई जगह नहीं। फिर क्यों, क्यों उन्होंने मुझे बचाया। अगर वह सच में मेरी माँ होतीं तो जीवन होता या ना होता, वह आज मुझे अपने आप में समा जाने देतीं।”
“पर बिटिया, ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम उनकी ममता को समझ ही नहीं पा रही हो। एक बार मेरी बात सुनकर उस दिशा में भी सोचो। जब तुमने इस गँगा मैया में समा जाने के बारे में निश्चय किया तब तुम बिल्कुल अकेली थी, दुःखी थी, दिशाविहीन थी। जब तुम पानी में उतरी, तब इन्होंने तुम्हें रोका नहीं। अपने अंदर समाने दिया। हो सकता है कि माँ ने ऐसा तुम्हारे उस पुराने दिशाविहीन जीवन को तुमसे ले, तुम्हें एक नया जीवन देने के लिए किया हो। कितने लोग गँगा में डूब जाते है और फिर कभी नहीं मिलते। तो क्या तुमने सोचा कि उसी गँगा में डूबती हुई तुम अचानक से बाहर कैसे आयी? गँगा मैया ने ही तुम्हें बाहर निकाला। एक नया जीवन दिया। और तुम्हारे इस नए जीवन में तुम अकेली ना रहो इसलिए ही शायद मेरा मन बार बार ऋषिकेश आने का हो रहा था। गँगा मैया अपनी इस लाड़ली बेटी को मेरे हाथों में सौंपना चाहती थीं। इसीलिये तो जब तुम पानी से बाहर आयी, तुम अकेली नहीं थी। ये सब इनकी ही लीला है।”
“आपको सौंपना चाहती थीं? मैं कुछ समझी नहीं।”
“समझना क्या है बिटिया? सीधी सी बात है, आज से तुम अकेली नहीं हो। आज से तुम मेरी बेटी हुई। मैं गँगादास इन गँगा मैया की कृपा से जो कुछ ज्ञान अर्जित कर पाया हूँ, वह तुम्हें सिखाऊँगा। इस जीवन में मिलने वाले सुःख दुःख से बिना विचलित हुए कैसे उस शिव में लीन होना है, उसे तुम्हें सिखा कर ही मैं अपने इस जीवन का त्याग करूँगा। और तुम्हारे जीवन की रक्षा करने में सहायक बना ये रामदास आज से तुम्हारा भाई हुआ।” बूढ़े बाबा ने रामदास की ओर देखा और बोले “इस बच्ची की हर तरह से रक्षा की जिम्मेदारी आज से तुम्हारी हुई। ठीक है ना?”
रामदास ने हाँ में सर हिलाया।
बूढ़े गँगादास ने सुचिता की तरफ देखा और फिर बोले “गँगा मैया ने हमें अपनी यह बच्ची दी है। यह इसका नया जीवन है; इसलिए एक नया नाम भी होना चाहिए। आज से इसका नाम गँगजा है। ठीक है ना गँगजा?”
गँगजा अभी भी सुचिता को भूली नहीं थी। उसका दुःख अभी भी उसके चेहरे पर झलक रहा था। उसने धीरे से हाँ में सर हिलाया। गँगादास बोले ” ठीक, अब तुम हमारे साथ चलो। हम लोग सुबह होते ही कैलाश की ओर निकलेंगे। ईश्वर सब दुःख हर लेता है। उनके दर्शन से तुम्हारे मन को भी शान्ति मिलेगी और वह स्थिर हो पायेगा। उस स्थिर मन से ही नए जीवन की आधारशिला रखी जा सकेगी। चलोगी ना?”
सात साल बाद
आज वह फिर से गँगा के उसी घाट पर बैठी थी। पर आज उसके मन में कोई तूफ़ान नहीं था। आज तो उसका मन गँगा की तरह शाँत था। इन सात सालों में वह सुचिता से स्वामिनी गँगजा बन गयी थी। हालाँकि उसे लोगों का उसको स्वामिनी बुलाना कुछ खास पसंद नहीं था। उसे लगता था कि स्वामिनी पद उसके लिए बहुत बड़ा था। पर चूँकि उसके मुँहबोले पिता गँगादास जिन्हें वह प्यार से बूढ़े बाबा बुलाती थी, ने समझाया था कि लोग अगर कुछ प्यार से दें और उसे लेने पर उसके मन में किसी तरह का विचिलित भाव ना आये तो मना करना ठीक नहीं, इसलिए गँगजा ने खुद को स्वामिनी बुलाये जाने पर ज्यादा ऐतराज नहीं किया। गँगा के घाट पर बैठी गँगजा ने जब अपनी पुरानी जिंदगी को याद किया तो उसे कोई तकलीफ नहीं हुई। सच तो यह था कि उसे लगा कि वह दुःख तो उसका कभी था ही नहीं। सुचिता उसे कोई और ही लगी। वह जानती थी कि उस सुचिता का जीवन अगर दुःख भरा ना होता तो आज गँगजा का मन स्थितप्रज्ञ ना होता। ऐसा नहीं था कि इन सात सालों में गँगजा ने दुःख ना देखे हों। उसके सात साल के जीवन में ऐसे दिन भी आये जब उसे दो या तीन दिन भूखा भी रहना पड़ा, पर उस भूख में भी एक आनंद था। ऐसे दिन भी थे, जब लोगों ने उसे अकेली समझ उसे परेशान करने की कोशिश की, पर गँगा मैया के दिए भाई रामदास ने हमेशा उसकी रक्षा की। सबसे ज्यादा तकलीफ भरे दिन तो वह थे जब लोगों ने स्वामी गँगादास को एक लड़की शिष्या रखने पर कई गलत बातें सुनायीं, यहाँ तक कि उनके चरित्र पर भी उँगलियाँ उठायी गयीं, पर उन स्थितप्रज्ञ स्वामी की शरण में गँगजा ने खुद को संभालना सीख लिया।
तीन दिन पहले एकादशी के दिन सुबह संध्या कॉल के समय उसके बूढ़े बाबा ने इसी घाट पर अपने शरीर का त्याग किया था, ऐसा नहीं कह सकते कि गँगजा का मन विचलित नहीं हुआ पर अब वह दुःखी नहीं थी। वह जानती थी कि उसके बाबा उसे अब वापस गँगा मैया की शरण में छोड़ कर गए थे। और यही गँगा मैया अब आगे उसका मार्गदर्शन करेंगी। गँगजा उठ खड़ी हुई और पानी की गहराई में उतरने लगी। उसे पता था कि कुछ ही दूर पर बैठा हुआ रामदास अब उठ खड़ा हुआ था। वह जानती थी कि उसका भाई उसके लिए डर रहा था। पर गँगजा को कोई डर नहीं था। वह तो बस अपनी माँ की गोद में कुछ देर रहना चाहती थी। उसने रामदास की तरफ रुकने का इशारा किया और पानी में आँखें बंद करके बैठ गयी। पानी की गहराई इतनी थी कि वह उसके सर के ऊपर से बह रहा था। थोड़ी देर ध्यान के बाद वह उठी, उसने अंजलि में गंगाजल भरा, आँखें बंद की, मन में कुछ मंत्र बोला और पानी को वापस गँगा को समर्पित करके नमस्कार किया। पानी से बाहर निकलकर वह रामदास से बोली “चलिए भैया, सोमनाथ महादेव के दर्शन की इच्छा आयी है मन में।”
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