सुचिता के जीवन मे रमन का वापस आना उसके लिय बहुत उतार-चढ़ाव भरा समय होता हैं।
नए जीवन की ओर (भाग २)
ना जाने सुचिता की प्रार्थनाओं में क्या ताकत थी कि जिस रेस्टोरेंट में सुचिता अपनी सहेलियों के साथ खाना खाने गयी, रमन भी वहीं अपने किसी दोस्त से मिलने आया हुआ था। जैसे ही सुचिता की नजर रमन पर पड़ी, उसकी भूख ही मर गयी। वो बार बार घर जाने की जिद करने लगी। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। सबको भूख लगी थी। सुचिता ने परिस्थिति समझकर बाहर इंतज़ार करने का निर्णय लिया। “ठीक है, तुम लोग खाना खा लो। मैं बाहर गाड़ी में हूँ।” ऐसा बोलकर सुचिता बिना किसी की तरफ देखे बाहर आ गयी।
बाहर आते ही सुचिता खुद को कोसने लगी। ना जाने उसका मन बात को कहाँ से कहाँ ले गया था। वह खुद को यह बोल कर कोसे जा रही थी कि जब उसे मालूम ही था कि एक बार गँगा मैया ने उसकी इच्छा पूरी की थी, तो फिर क्यों? क्यों उसने अपने पिता के एक्सीडेंट के समय घाट पर आकर प्रार्थना नहीं की? क्यों दादी के बीमार पड़ने पर भी वह घाट नहीं गयी? और जब आज गयी ही थी तो फिर माँ की परेशानी थोड़ा दूर हो ऐसा क्यों नहीं माँगा? भाई की तरक्की हो ऐसा भी नहीं माँगा। वह रमन जिसको उससे कोई लेना देना ही नहीं था, उससे मिलाने के लिए ही क्यों माँगा? उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। खुले में खड़े होने पर भी उसका दम घुट रहा था। ठंड में भी उसका चेहरा पसीना पसीना हो रहा था। वह जानती थी कि थोड़ी ही देर में उसकी सहेलियाँ बाहर आ जायेंगी और उसे ऐसे देखकर सवाल करेंगी। उसने तुरंत ही पसीना और आँसुओं से भरा अपना चेहरा पोछा और गाडी की तरफ आगे बढ़ी।
“सुचिता?” वो शायद दो ही कदम चली होगी कि पीछे से रमन की आवाज सुनाई पड़ी। उसके पैर ना चाहते हुए भी वहीँ थम गये। उसके दिल की धड़कन तेज हो गयीं। “आप ठीक तो हैं?” वही आवाज, वही सवाल। पर आज वह सवाल सुचिता के मन को चुभ गया। उसने भीगी हुई आँखों से रमन की तरफ मुड़ कर देखा। उसकी आँखों के सवाल को शायद रमन ने पढ़ लिया, इसीलिए उसने थोड़ी देर के लिए सुचिता के ऊपर से अपनी नजर हटा ली। पर सुचिता ने रमन के ऊपर से नजरें नहीं हटायीं। थोड़ी देर में रमन ने सुचिता की ओर वापस देखा और बोला “सुचिता, मुझे माफ़ कर दीजिये। मैंने जानबूझ कर उस समय आपके फोन और मैसेजेज का जवाब नहीं दिया था। मुझे तब आप नाबालिक लगीं। शायद कुछ ही दिनों का आकर्षण है, ऐसा सोचकर मैंने आपको अकेले छोड़ देने का निर्णय लिया।”
“अच्छा ही किया। वो सच में कुछ ही दिन का आकर्षण था। आपको और कुछ कहना है?” सुचिता ने बड़ी ही बेरुखी से जवाब दिया।
ऐसे बेरुखेपन की उम्मीद शायद रमन को नहीं थी। वह कुछ देर के लिए हक्का बक्का रह गया। सुचिता ने रमन के पीछे आती हुई अपनी सहेलियों को देखा और खुद गाडी की तरफ मुड़ी।
“अगर ऐसा ही है तो फिर ये आँसू किसलिए? इतना गुस्सा एक अनजाने इंसान पर क्यों?”
सुचिता फिर रुक गयी। रमन के सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था। उसकी सहेलियाँ अब बहुत पास आ चुकी थीं। वह किसी तरह का तमाशा नहीं चाहती थी इसलिए तुरंत अपने आँसूं पोंछ कर अपनी सहेलियों की तरफ मुड़ी और बोली “अच्छा हुआ तुम लोग आ गए। बहुत देर हो गयी है। जल्दी चलो, भैया का फ़ोन आया था, गुस्सा कर रहे थे।”
अँधेरे की वजह से सुचिता की सहेलियों ने उसकी लाल हुई आँखों पर ध्यान ही नहीं दिया। “सॉरी सुचि। तुमने खाना नहीं खाया और हम सब ने तुम्हारे बिना खाया, यह बात किसी को भी जँची नहीं, इसलिए तुम्हारे लिए पकोड़े पैक करवाये है। थोड़ा ही सही गाडी में खा लेना।” राधा बोली।
सुचिता कुछ भी नहीं बोली। वह इस बात पर खुश थी कि थोड़ा ही पीछे खड़े रमन पर किसी का ध्यान नहीं गया। सब गाडी में बैठे। सुचिता किनारे खिड़की की तरफ बैठी जहाँ से उसे गाडी के साइड मिरर में अभी भी पीछे खड़ा रमन दिखायी दिया। सुचिता ने एक गहरी साँस ली। उसे तब अहसास हुआ कि रमन अब भी उसके मन में उतना ही गहरा बसा था जितना कि दो साल पहले।
रमन से हुई उस मुलाक़ात ने सुचिता के अंदर दबी हुई तकलीफ को फिर से उभार दिया। वह फिर से परेशान रहने लगी। रेस्टोरेंट के बाहर जब उसने रमन की आँखों में देखा था तो उसका दिल किया कि उसकी बाँहों में समा जाए और उस दिन के बाद उसके जीवन में जो जो तूफ़ान आये सब बोल दे। पर उसकी किस्मत अच्छी थी कि उसकी सहेलियाँ समय पर आ गयीं, नहीं तो ना जाने बाद में पछताने के लिए वह क्या उल्टा सीधा कर बैठती। वह जानती थी कि इस बार उसे पिछली बार से ज्यादा समय लगने वाला था रमन को भुलाने को, क्योंकि इस बार तो वह बिल्कुल ही अकेली थी। घर में तो उससे बात करने वाला भी कोई नहीं था और बाहर किसी से अपने मन की बात करने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी। सुचिता ने अपने आप को सँभालने की शायद शुरुआत ही की थी कि कुछ दिन बाद उसके फ़ोन पर एक मैसेज आया। लिखा था “आपका गुस्सा शान्त हुआ?” सुचिता अपने फ़ोन से बहुत पहले ही रमन का नंबर डिलीट कर चुकी थी, इसलिए उसे समझ नहीं आया कि मैसेज किसने भेजा। उसने मैसेज किया “कौन?”
“रमन” जवाब आया।
सुचिता दंग रह गयी। एक समय पर जिसने सुचिता के मैसेजेज का जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा उसने आज भी उसका नंबर सेव कर रखा था। वह सोचने लगी कि क्या करे। वापस मैसेज करे या फिर उसके मैसेज को नजरअंदाज कर दे। इतने में उसे एक और मैसेज आया “क्या मैं फ़ोन कर सकता हूँ?”
“क्यों?” सुचिता ने मैसेज पर ही पुछा।
जवाब में रमन का फ़ोन आ गया। फ़ोन उठाते ही सुचिता बोली “मैंने फ़ोन करने की इजाजत तो नहीं दी थी।”
“पर आपने मेरा फ़ोन उठा लिया। इसका मतलब आपको कोई परेशानी नहीं थी मेरे कॉल करने से।”
“ठीक है। फ़ोन किया ही है तो जल्दी बताइये कि बात क्या है। मेरे पास बहुत काम हैं। “
“ऐसा है तो हम बाद में बात करते हैं। मुझे पता होता कि आप व्यस्त हैं तो फ़ोन नहीं करता। वैसे भी मुझे जो बात करनी है वो फ़ोन पर करना ठीक नहीं। क्या हम मिल सकते हैं? कोई दबाव नहीं है। अगर मैं आपको परेशान कर रहा हूँ तो सिर्फ एक बार कह दीजिये। विश्वास कीजिये मैं आपको दुबारा कभी परेशान नहीं करूँगा।”
सुचिता कहना चाहती थी कि यही सही रहेगा कि वह उसे दुबारा फ़ोन ना करे। पर रमन के फ़ोन करने और ये सब कहने का मतलब उसे समझ नहीं आ रहा था। और फिर रमन का व्यवहार, उसके बातचीत करने का ढंग और उसकी बातों में झलकती उसकी सोच ही ऐसी थी कि सुचिता सही और गलत को भूल बोल उठी “ठीक है। कहाँ मिलना है।”
“क्या हम उसी घाट पर मिल सकते हैं? अगर कोई परेशानी हो तो फिर आप जहाँ बोलेंगी वही आ जाऊँगा।”
सुचिता रमन से अगले दिन घाट पर मिलने के लिए मान गयी। दोनों कुछ देर वहीँ सीढ़ियों पर दूर कहीं नजर गड़ा कर बैठे रहे। फिर रमन ने ही बात शुरू की।
“आपकी दादी कैसी हैं?”
सुचिता ने रमन की तरफ ऐसे देखा जैसे पूछ रही हो कि यह क्या पूछ लिया।
रमन बोला “क्यों क्या हुआ?”
“दादी को गुजरे हुए एक साल हो गया।” सुचिता रमन के चहरे से नजर हटाते हुए बोली।
“ओह, सॉरी। मुझे मालुम नहीं था। असल में उस दिन उन्हें देखकर अचानक से मेरे मन में ख्याल आया था कि मेरी दादी भी शायद ऐसी ही होतीं अगर वो जिन्दा होतीं। दादी का प्यार मुझे कभी मिला ही नहीं। इसलिए ही शायद उन्हें देखकर उनसे एक लगाव सा महसूस हुआ था। वैसे तब तो देखने में एकदम चुस्त दुरुस्त थीं, फिर अचानक कैसे?”
“फिर कभी मिले तो बताऊँगी। आपने मिलने के लिए पूछा था। कोई जरुरी बात थी?” सुचिता ने बात का रुख बदल दिया।
“फिर मिलें और बार बार मिलें ऐसा ही चाहूँगा।” उसकी यह बात सुनकर सुचिता उसकी तरफ प्रश्न भरी निगाहों से देखने लगी। वह बोला “सुचिता, उस दिन यहाँ इस घाट पर आपके लिए मेरे मन में भी वही भावनाएँ आयी थीं जो आपके मन में थीं। पर मेरी परिस्थिति उस समय कुछ ठीक नहीं चल रही थी और साथ ही मुझे लगा कि शायद आपकी उम्र कच्ची थी और ऐसे में आपके बारे में ऐसी सोच रखना सही नहीं। मुझे डर था कि आपका मन कुछ ही समय में बदल जाएगा और मुझसे यह वर्दाश्त नहीं होगा। ऐसे में मेरा अपने आप को भटकने देना मुझे सही नहीं लगा। पर सच तो यह है कि मैं आपको कभी भूल ही नहीं पाया। आपका चेहरा मेरी आँखों में ऐसा बसा कि उस दिन से हर दिन इस घाट पर उसी समय आना मैंने अपनी आदत बना ली। मन में एक उम्मीद थी कि गंगा मैया फिर कभी ना कभी आपको देखने का एक मौका दे ही देंगी। दो साल पहले उस दिन जब आपका फ़ोन आया, मेरा बहुत मन था कि आपसे बात करूँ। आपके मैसेज ने मुझे इतनी ख़ुशी दी जिसको मैं शब्दों में बता नहीं सकता। पर फिर भी मुझे तब विश्वास नहीं था कि आपके मन में मेरे लिए जो था वह प्यार ही था। अपने इस शक और बेवकूफी में मैंने आपको बहुत तकलीफ दी। मुझे लगा समय के साथ आप मुझे भूल जायेंगी। लेकिन जब उस दिन आप मुझे देखकर उस रेस्टोरेंट से बाहर चली गयीं तब मुझे अहसास हुआ कि आपके मन में अभी भी शायद……..पर अगर ऐसा नहीं है, तो बस एक बार कह दीजिये, आपको वचन देता हूँ, दुबारा कभी आपके सामने नहीं आऊँगा।”
रमन की उस दिन इसी घाट पर उससे कही इन बातों को याद कर सुचिता फूट फूट कर रोने लगी। काश कि समय उस दिन ठहर जाता। उसके जीवन का वह सबसे ख़ूबसूरत पल था। थोड़ी देर बाद सुचिता अपने आँसुओं को पोछ उठ खड़ी हुई और गँगा की ओर देखकर बोली “सब कुछ यही शुरू हुआ था आपके सामने, और अब सब यही ख़त्म भी होगा।”
ऐसा कहकर वह गँगा की सीढ़ियाँ उतर कर आगे बँधी रस्सी को पार कर गयी। गँगा का प्रवाह तेज था। अगले ही पल उसका अपने ऊपर से नियंत्रण खो गया और वह डूबने लगी। उस समय उसकी नज़रों के सामने रमन के साथ बिताये हर अच्छे बुरे पल तैरने लगे। वह दिन जब रमन ने उसे बताया कि वह उससे प्यार करता था। वह दिन जब रमन अपने परिवार के साथ उसके घर उसका हाथ माँगने आया था। वह दिन जब उसके भाई के मना कर देने पर उन दोनों ने मंदिर जा कर शादी कर ली। और फिर रमन के ऊपर कुछ गुंडों का हमला, सुचिता का अपने भाई के ऊपर दोष डाल कर उनसे झगड़ा करना, रमन का अचानक बीमार पड़ना, और अचानक ही उसका चल बसना, रमन के परिवार का सुचिता को रमन की मौत का दोषी ठहराना, सब कुछ, कुछ ही पलों में सुचिता के आँखों के सामने से निकल गया और फिर रहा तो सिर्फ अँधेरा, जिसमें उसकी जिन्दगी धीरे धीरे विलीन होती जा रही थी।
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