गुरु शिष्य परम्परा हिन्दू धर्मं की एक अचल कड़ी है जिस पर आक्रमण करके भारत विरोधी शक्तियां हमारी प्राचीन सभ्यता के ताने बाने को नष्ट करना चाहती हैं
गुरुओं की संरक्षा महत्वपूर्ण है
हिंदू धर्म के विधायक लक्षणों में से सबसे महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि उसके सुदीर्घ इतिहास में समय-समय पर जीते-जागते महापुरुष व्यापक पैमाने पर प्रकट होते रहे हैं। इन्हीं महापुरुषों ने सनातन धर्म को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे नए संजीवनी विचारों, अंतर्दृष्टियों और व्याख्याओं से ताज़ा भी किया और बदलते समयों के लिए प्रासंगिक भी बनाया। मेरी पुस्तक, बीइंग डिफेरेंट (हिंदी में इसका शीर्षक है, विभिन्नता), समझाती है कि सत्-चित्-आनंद या सच्चिदानंद वाली वैदिक तत्व-मीमांसा ही वह शक्ति-स्रोत है जो विभिन्न परिस्थितियों में ऐसे महापुरुषों के अवतरण को संभव बनाती है। गुरुओं ने सभी समयों में सनातन धर्म के उन्नयन में अत्यंत प्रभावशाली भूमिका निभाई है।
संस्थागत “किताब पर टिका” धर्म नाजुक होता है क्योंकि उसकी भौतिक संस्थाओं, संरचनाओं आदि को नष्ट करके और उसकी पवित्र किताब को जलाकर या निषिद्ध करके उस धर्म को मिटाया जा सकता है। किंतु, हिंदू धर्म के संबंध में उसे नष्ट करने की इस तरह की कोशिशें नाकाम रहती हैं क्योंकि उसके जीवित महापुरुष उसे निरंतर पुनरुज्जीवित करते रहते हैं। साधु-संतों, महात्माओं और आचार्यों पर जन-साधारण की गहन आस्था को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि जब तक हमारे गतिशील गुरु विद्यमान हैं, हम उन्नति करते रहेंगे।
यही कारण है कि हिंदू धर्म से नफरत करने वाली ताकतों ने हमारी परंपरा को कमजोर करने के लिए अक्सर हमारे गुरुओं पर निशाना साधा है।
हाल के दशकों में, हमने अमरीका में ओशो पर नृशंस प्रहार होते हुए देखे, यहाँ तक कि उन पर हत्या जैसे जघन्य अपराधों के आरोप भी लगाए गए। स्वामी मुक्तानंद पर, उनके दिवंगत होने के एक दशक बाद, यौन दुर्व्यवहार के आरोप लगाए गए। विंडबना यह है कि यह आरोप एक ऐसी महिला ने लगाया जो उनके जीवनकाल में उन्हीं की उत्साही शिष्या थी। स्वामी प्रभुपाद के निधन के बाद, अमरीका में इस्कॉन पर यौन उत्पीड़न के लिए मुकदमे चले। योगी अमृत देसाई को, जो 1970 के दशकों से ही श्वेत अमरीकियों को योग सिखाने वाले सबसे कर्मठ आचार्य रहे हैं, अचानक अपनी ही संस्था, कृपालु सेंटर, से इसी तरह के आरोपों का सहारा लेकर हटाया गया। जब महर्षि महेश योगी अपनी सफलता के पराकांष्ठा पर थे, तब उन्हें भी गिराने की कोशिश की गई थी। स्वामी प्रकाशानंद सरस्वति एक अन्य गुरु हैं जिन पर अमरीका में बच्चों के यौन शोषण के लिए तब आरोप लगाए गए जब वे 82 वर्ष के थे। इन आरोपियों ने दावा किया कि इन्होंने लगभग एक दशक पहले बच्चों को अवांछित रूप से स्पर्श किया था। न जाने इन आरोपियों ने इसकी शिकायत करने में इतनी देर क्यों लगा दी। इस मामले से संबंधित अतिमहत्वपूर्ण वीडियो रिकोर्डिंगों को इन आरोपियों ने “खो” दिया। फिर भी मुकदमे को निपटा रहे जजों को उन्हें 50 साल तक की कैद की सजा दिला सकने वाले आरोपों में दोषी ठहराने के लिए 50 मिनट ही लगे।
इस तरह के आक्रामक मुकदमे वाली कूटनीति भारत में भी आयातित की गई। हमने देखा कि कांची के शंकराचार्यों पर हत्या के मिथ्या आरोप लगाए गए – जो बाद में झूठे साबित हुए, लेकिन तब तक मीडिया ने रात-दिन काम करके उनकी सार्वजनिक छवि को अधिकतम नुकसान पहुँचा दिया था। जब इन शंकराचार्यों को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया, तब मीडिया ने उनके प्रति माफी का एक शब्द भी नहीं कहा, उनके द्वारा इन शंकराचार्यों की गरिमा को जो चोट पहुँचाई गई थी, उसे दूर करने की कोशिश करना तो बाद की बात है। साधवी प्रज्ञा और आशुतोष महाराज कुछ अन्य लोग हैं जिनके अनुयायियों को दृढ़ विश्वास हो गया है कि इन पर दुर्भावना से आरोप लगाए हैं और मीडिया ने उनके साथ अन्याय किया है।
इसी प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी नित्यानंद पर लगाए गए आरोप गलत सिद्ध हो चुके हैं, पर मिडिया ने उनके प्रति न्याय करने की जरा भी कोशिश नहीं की है। बिदादी (बैंगलूर) और वाराणसी में स्वामीजी के आश्रमों में मैंने साधना के जो अनुक्रम पूरे किए, उनके अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि उनसे हजारों लोगों को बड़े-बड़े लाभ पहुँच रहे हैं। इनके अनुयायी बहुत ही विज्ञ युवक-युवतियाँ हैं जो अपने अधिकारों के प्रति पूरी तरह से सजग हैं और अपने अधिकारों के लिए लड़ना अच्छी तरह जानते हैं। उनके बारे में मेरी यह धारणा नहीं बन पाती कि ये ऐसे लोग हैं जिन्हें जल्दी ठगा जा सकता है, या जो किसी अनैतिक कार्य को होते हुए देखकर चुप्पी साध लेंगे।
मुझे एक सेवानिवृत्त मनोचिकित्सक ने स्वामी नित्यानंद से मिलाया था। ये महाशय अनेक वर्षों से मेरे कामों से अपने आपको अवगत रखते आ रहे थे। इसने धीरे-धीरे मेरा विश्वास जीता। (मैंने यह जरूर देखा कि यह व्यक्ति अत्यंत महत्वाकांक्षी है और यह नित्यानंद संगठन में तेज़ी से तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ने का उत्सुक है।) जब इसने स्वामी नित्यानंद के विरुद्ध मेरे कान भरने की कोशिश की, मैंने इसकी बातों पर यकीन कर लिया। बाद में मुझे विदित हुआ यह बस तुच्छ ईर्ष्या और वैमनस्य का मामला था क्योंकि नित्यानंद संगठन में महत्व का कोई पद अर्जित करने की इसकी अभिलाषा फलीभूत न हो सकी थी। इसलिए वह नित्यानंद संगठन का घोर शत्रु बन गया था।
तबसे, मैंने स्वयं पूछताछ करके अपनी राय कायम करने की नीति अपनाई। मैंने नित्यानंद संगठन से जुड़ी अनेक महिलाओं के साथ इन आरोपों की चर्चा की, और इसके परिणामस्वरूप मैं आश्वस्त हो गया हूँ कि यदि इन आरोपों में दम होता, ये सुशिक्षित, आत्म-विश्वासी महिलाएँ अपने गुरु के प्रति वफादार और समर्थक नहीं रहतीं। इसके अलावा, अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैंने कुछ वकीलों की मदद से नित्यानंद के विरुद्ध पेश किए गए कानूनी प्रमाणों की भी छानबीन की। मैंने देखा कि स्वामी नित्यानंद के विरुद्ध चलाया गया कानूनी अभियान राजनीति से प्रेरित है और उसमें पारदर्शिता का संपूर्ण अभाव है। दरअसल एक स्वतंत्र, ख्यातनाम कानूनगो ने मुझे बताया कि यह मकदमा झूठे प्रमाणों के आधार पर स्वामीजी को कानून के फंदे में फँसा लेने के स्पष्ट उद्देश्य से चलाया गया है, हालाँकि यह प्रयास बिलकुल भी सफल नहीं हो पाया।
दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि कानूनी मुकदमों में कोई दम न होने पर भी, वे सालों तक खींचे जा सकते हैं ताकि संबंधित पक्ष पर अधिकतम मात्रा में कीचड़ उछाला जा सके। मेरा मानना है कि आपराधिक मामले की सुनवाई शुरू हो जाने के बाद, अपराध सिद्ध करने के लिए कोई समय-सीमा होनी चाहिए और यदि इस समयावधि में अपराध सिद्ध न किया जा सके, तो आरोपित व्यक्ति को सादर बरी कर देना चाहिए और मामले को रद्द कर देना चाहिए। आखिर अधिकारियों को किसी व्यक्ति के निजी जीवन को अप्रमाणित आरोपों के जरिए नष्ट तो नहीं करना चाहिए, जैसा कि यदि ये मामले दसियों वर्षों तक सुलगते रहने पर निश्चित रूप से होगा।
इतना ही नहीं, मीडिया को ऐसा व्यवहार करने का कोई भी अधिकार नहीं है कि वही न्यायाधीश बने, मानो उसे ही किसी को दोषी ठहराने या न ठहराने के ठेका मिला हुआ हो। कानूनी कार्रवाई से जितना नुकसान होता है (यदि अंततः ये आरोप बेबुनियाद साबित होते हैं) उससे कहीं अधिक व्यापक विनाश मीडिया माफिया द्वारा मचाया जाता है। ऐसा लग रहा है कि इस माफिया ने हर उस हिंदू समर्थक को, जो अपने पक्ष को प्रभावशाली ढंग से पेश कर रहा है और सफल हो रहा है, जमीन चटाने की कसम खा रखी है । ऐसे प्रावधान होने चाहिए कि यदि मीडिया किसी पर ऐसे आरोप उछाले जो बाद में बेसिरपैर के आरोप सिद्ध होते हैं, तो उस मीडिया को माफी माँगने वाले वक्तव्य प्रकाशित करने के लिए अपने अखबारों और पत्रिकाओं में कीचड़ उछालने के लिए उसने जितना स्थान दिया था, उससे तीन गुना स्थान देना होगा, या जितना प्रसारण समय कीचड़ उछालने में उसने खर्च किया था, उससे तीन गुना समय माफी माँगने में खर्च करना होगा। इस तरह के दंडात्मक प्रावधान होने पर ही मीडिया जवाबदेह बनेगा और सरासर गैरजिम्मेदाराना कवरेज देने से बाज आएगा।
मेरी पुस्तक, ब्रेकिंग इंडिया (हिंदी में यह भारत विखंडन के नाम से प्रकाशित हुई है), में मैंने भारतीय सभ्यता के ताने-बाने को नष्ट करने के लिए देश-विदेश में अपनाए जा रहे हथकंडों का ब्योरेवार विवरण दिया है। स्वामी नित्यानंद के मामले में मैंने दिखाया है कि वे दक्षिण भारत में, विशेषकर तमिलनाड में, चर्चों द्वारा लोगों को ईसाई बनाने के प्रयासों के विरुद्ध बहुत सक्रिय रहे हैं। मैं निजी अनुभव से जानता हूँ कि भारत को तोड़ने में लगी ताकतें किस तरह से उनके लिए खतरा समझे गए लोगों और संस्थाओं के विरुद्ध बड़े ही सुनियोजित ढंग से और दृढ़तापूर्वक षडयंत्र करती हैं। इसमें सभी प्रकार की नैतिकता को वे ताक पर रख देती हैं। मैं यह बात पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ क्यों मैंने स्वयं इन ताकतों के हमलों का सामना किया है।
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हर हिंदू आग्रह करे कि उनके नेताओं को बेहतर रीति से न्याय मिले, खासकर उन नेताओं को जो सनातन धर्म को बचाने के लिए अपने आपको जोखिम में डालते हैं। मैं जिस नीति पर चलता हूँ वह यह है कि मैं मीडिया के बजाए स्वयं अपने गुरुओं का ही पक्ष लेता हूँ और उन पर लगाए गए आरोपों को सिद्ध करने का भार उन लोगों पर डालता हूँ जिन्होंने ये आरोप लगाए हैं। कानूनी प्रक्रिया की भी ठीक यही आवश्यकता है। मैं मीडिया द्वारा पेश किए गए नजरिए को आँख मूँदकर स्वीकार नहीं करूँगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अब हिंदुओं को आंतरिक रूप से विभाजित रहना छोड़ देना चाहिए। अपने से भिन्न किसी गुरु के विचारों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं को गलत सिद्ध करने पर बहुत अधिक जोर दिया जा रहा है। हम पर अस्तित्व का संकट मँडरा रहा है और अब हम छोटी-छोटी बातों पर इस तरह की अनंत बहसों में समय नहीं गँवाते रह सकते हैं। इतनी गंभीर चुनौति के रहते हुए भी हम एकजुट नहीं हो पा रहे हैं, यह मुझे बहुत ही अधिक निराश कर देती है। अधिकतर हिंदू नेता स्वार्थ-प्रेरित होकर जरा सा खटका होने पर ही अपनी जान बचाने की फिक्र में लग जाते हैं। वे परस्पर हाथ मिलाकर भारत को तोड़ने की मंशा रखने वाली ताकतों के विरुद्ध संगठित सैद्धांतिक मोर्चा नहीं खड़ा करते।
Hindi translation: Balasubramaniam Lakshminarayan
Leave a Reply