कृष्ण से भगवान तक

श्री कृष्ण की भक्ति, ज्ञान और योग के सिद्धांतों को सहजता प्रदान करती है और आधुनिक युग में विशेषतः सहायक

कृष्ण से भगवान तक

कुंडल केश, मधुर मुस्कान, मेघ वर्णम्, कमल नयनं, मोर मुकुट धारी, कटि पीताम्बर… भगवन निराकार है तो ऐसा रूप का वर्णन क्यों। जैसा गीता में कहा गया है कि बात तो हमेशा अनादि और अनन्त भगवान के बारे में ही हो रही है लेकिन अल्प-ज्ञानी, ज्ञान की सीमा की सुविधा के लिए, उसे मानवीय अवतार की परिधि में बांधने का प्रयास करता है।  यह रूप तो उससे जुड़ने का पहला चरण कहा जा सकता है, उसको अपने जैसा अपने बीच महसूस करने का एक ढंग। उसके प्रति मोह जगाने के लिए जैसा आप सुंदरता को परिभाषित करें वैसा सही , आपके लिए सबसे सुन्दर की कल्पना  tall, dark, handsome नायक है तो ऐसा ही सही ,वो अपनी धुनों पे वश में कर लेने वाला वंशीधर है तो ऐसा ही सही। जब आप उससे प्रेम जगाते हैं तो धीरे धीरे आपको उसकी विराटता का एहसास होता है, इससे भी विराट ,और विराट और फिर आप विस्मित हो “नेति” ,”नेति” (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कह समर्पित कर देते हो। और परतें खुलती हैं उन सभी रूपों से जिससे ऋषि मुनियों ने भगवन को समझने समझाने की चेष्टा की। कल्पित-अकल्पित  सारी सुंदरता से सुन्दर जिसकी  चारों दिशाओं में फैली भुजाएं उसके चहुँ ओर  प्रसार को दर्शाती हैं । एक हाथ में सागर की अथाह गहराईओं से निकला शुद्ध नैसर्गिक शंख जिसे साँस अंदर खींच अंतर प्राण से साँस छोड़ते हुए फूँको तो स्वाभाविक ध्वनि “ओमः ” उत्पन्न होती है और समस्त प्रकृति में प्रतिध्वनित होती है। यही तो प्राणायाम का आधार है। श्वासक्रम का योग और स्वस्थ पोषण।  दूसरे हाथ में चक्र क्योंकि वही चक्रधारी तो है सारे घटना-चक्र को घुमाने वाला विधाता। । तीसरे हस्त में गदा- एक भारी-भरकम हथियार बिना सामर्थ्य के नहीं उठ सकता लेकिन भगवान तो स्वयं सामर्थ्य हैं। एक हाथ वरद मुद्रा में उसके आशीष के बिना तो कुछ भी संभव नहीं। वो पूरे जग में वयाप्त हैं लेकिन उसमे संलिप्त नहीं वो तो दलदल में कमल के ऊपर विराजमान हैं उनको दलदल छू नहीं सकता। जहाँ भगवान वहां उनकी सहचारिणी समस्त वैभव की देवी श्री लक्ष्मी ।

प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसी घटनाएं होती हैं जब वो विस्मित होता है “यह कैसे हुआ ” तब  उसकी सोच दो तरह से प्रतिक्रिया कर सकती है , एक-“मैंने ही किया और कौन कर सकता है “, दूसरा -“यह मैं नहीं कर सकता , यह कौन है जिसने ऐसा किया “। दूसरी तरह की सोच अंतर् में मथनी डाल देती है। भगवन कृपा से (क्योंकि भगवन ही व्यक्ति का चुनाव करते हैं ) उसके बाद हर घटना उस मथनी से अंतर् बिलोती है और ईश्वर-तत्व का मक्खन बंधने लग जाता है। मक्खन है तो भगवन कहाँ दूर रहने वाले। वो तो आपकी मटकी फोड़ कर ही रहेंगे। फिर दर्शन होते हैं आपके अंदर क्षीर सागर में, आपके भय, आशंकाओं और इच्छाओं के नागों की शैय्या पर विश्राम करते वो भगवन और भौतिक वैभव उनके पांव दबाते हुए। इस स्थिति में अपना आप लुप्त हो जाता है क्योंकि आत्मा-परमात्मा एक हो जाते हैं और आप “अहम ब्रह्मास्मि “की स्थिति में पहुँच जाते हो। आप लुप्त हों और ब्रह्मा तो स्वयं आपकी आत्मा है तो मंदिर कैसे और किसका होता? ऐसी स्थिति को प्रणाम।  ऐसी स्थिति में पावन हुए मन के हंस पे सवार, धवल, उज्ज्वल, शांत, सरस बुद्धि की उत्पत्ति होती है और उस बुद्धि से सदैव आप प्रार्थना करना चाहते हैं कि वो आपकी वाणी पर नियंत्रण रखे और पथ-भ्रष्ट हो आपको फिर से अंधकार में जाने से बचाए। इस स्थिति और ऐसी बुद्धि के सहचार्य से ही समस्त ज्ञान की उत्पत्ति होती है।  इन ब्रह्म-विचारों से आपके भीतर ईश्वर-तत्व पोषित होता है ठीक वैसे ही जैसे गर्भ में नाभि से बालक पोषित होता है। ईश्वर आपको सामान्य जीवन जीते हुए शिव-व्यव्हार की प्रेरणा देते हैं। कर्म करते हुए योगी बनने की। और आपके शिव-व्यव्हार आपको प्रत्येक कार्य में ईश्वर में ध्यान-मग्न रखते हैं और कर्म-फ़ल से मोक्ष दिलाते हैं। बीच-बीच में बहम्य-समाचारों के मानस-नारद विचलित करते हैं परन्तु ईश्वर का ध्यान आते ही शांत हो बीणा बजाने लगते हैं। जीवात्मा  ब्रह्म हैं और उत्पत्ति का साधन। ईश्वर का जगत में होना जीव के माध्यम से है। वो प्रत्येक जीव में है लेकिन उसके अधीन नहीं और न ही पूर्णतयः जीव है।  जीव के शिव-व्यवहार पर ईश्वर- तत्व का पोषित होना और जीव का  कर्म-फ़ल से मोक्ष प्राप्त करना  निर्भर है। 

फिर जन्म कथा, बाल लीलाएं किसकी ? जटिल तथ्यों को मिथ्यक बना छोड़ देने से बचाने के लिए कथा का सहारा लिया गया। जब साम, दाम, दण्ड, भेद, तंत्र, मन्त्र, जप सब निर्मूल हो जाएं तो निराशाओं की काल कोठरी तोड़, आशंकाओं के तूफ़ान के बीच नन्हे बालक की तरह ईश्वर-नाम का जन्म  होता है।  आप सोये होते हैं और आपके मन में कोई वासुदेव चुपके से उस शिशु को छोड़ जाता है। हम जल-जीवन से जीवन-श्रृंखला आरम्भ होने की थ्योरी मानते हैं लेकिन मत्स्य, कच्छ्यप अवतार की तह तक नहीं जाना चाहते। हम जैव-विवधता के संरक्षण की चर्चा करते हैं लेकिन मनु को नौका में प्रत्येक प्रजाति के जीव रखने के भगवन-आदेश को विस्मृत कर देते हैं। शिकारी और मृत माँस भक्षी पक्षियों के पर्यावरण-स्वच्छ्ता में महत्तव को अब समझते हैं लेकिन जग के पालक देव का गिद्धराज पे सवार होना हमे चेता नहीं पाता। उनका औषधीय-गुणों की खान तुलसी-पत्र को अपना प्रिय बता प्रतिदिन सर्वप्रथम प्रसाद ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना तो हमारे हित के लिए ही है न। जब प्रजा ज्ञान-विज्ञान से ऐसी जागृत हो कि कोई भी दो पग में पूरी धरती नाप ले तो राजा को एक बालक के प्रति भी अपने उत्तरदायत्व को कम आँक कर नहीं लेना चाहिए उसका भी अगला चरण राजा के शीश  पर हो सकता है। जब किसी समस्या का हल आपकी बुद्धि से बाहर है तो ईश्वर से मार्ग-दर्शन के लिए प्रार्थना करें और भरोसा रखें क्योंकि हल वैसा नहीं होगा जैसा आप कल्पना करते हैं या अपेक्षा करते हैं। ईश्वरीय सहायता तो नरसिम्हा की तरह पूर्णतया अविश्वसनीय हो सकती है और आप अचम्भित हो बस सोचते रह जाओगे “यह कैसे, कहां से, कब हो गया।” कृष्ण लीला के अर्थ को ही कब समझ पाए हम। अब हम गम्भीरता से वन और पर्वत सरंक्षण की चर्चा करते है लेकिन अपने ग्रंथों में गोवर्धन-पूजा की कथा के मर्म को नहीं समझते। कैसे तब प्राकृतिक आपदाओं से बचने का तरीका समझाया था। हमें तन-मन को स्वस्थ रखने वाले धरती से उपजे खाध्य-पदार्थों, दूध और दूध-उत्पादनों के वैकल्पिक आहार से अवगत कराया।  कालिया नाग से युद्ध कर उसे और उसके परिवार को यमुना छोड़ अन्यंत्र जा बसने को कहने के पीछे नदियों में विष न घोलने का छुपा सन्देश नहीं समझ पाते। गौ-हत्या से रोकने के पीछे उनका उद्देश्य मानव को पाषाण-हृदय बनने से रोकना था। जो मनुष्य पोषण करने वाले, निष्ठा से सेवा-कर्तव्य का पालन करने वाले पालतू पशु का, चाहे धार्मिक-अनुष्ठान के लिए ही क्यों न हो , वध कर सकता है उसमे किसी के लिए भी दया-ममता कहाँ जीवित रहेगी। जो लोग सुबह जिस कुत्ते को सैर के लिए ले के जाते है और शाम को उसी का मांस खाते किंचित ग्लानि का अनुभव  नहीं करते, जो अपने ही पालतू भेड़-बकरी, मवेशी, उनकी भयातुर निरीह आँखों में देखते हुए, उनका क्रन्दन सुनते हुए काट डालते हैं उनकी बर्बरता की परकाष्ठा का प्रमाण अब दुनिया को देने की आवश्यकता नहीं। अब सब प्रत्यक्ष सामने है।

पाण्ड़वों के पक्ष में कौरवों से पक्षपात करने में क्या सीख हो सकती है? यहीं तो समझ की चूक है। भगवान सबको विकल्प देते हैं जैसा आरम्भ में कहा उसकी प्रतिक्रिया में व्यक्ति स्वयं को श्रेय दे या भगवान को सर्वस्व सौंप सारथि बना ले। जब भगवान चुनाव करेंगे तो विकल्प के त्रुटिपूर्ण या अन्यायपूर्ण होने का तो प्रश्न ही नहीं। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि फिर कुछ भी करना व्यर्थ है, क्योंकि भगवान सारथि तब बनेंगे जब आप रथ पर सवार हो धनुष उठा कर बाण चलाएं। भगवन आपके बाणों को सही निशाने पर लगाने के लिए घटना-चक्र (सुदर्शन-चक्र) घुमाएंगे और बल, पराक्रम (हनुमान) आपकी विजय-पताका पर सवार होंगे। अपने भीतर भगवान की पहचान ही आपको अकर्म (कर्म न करना) की स्थिति से खींच कर्म-योगी बनाती है और आपको विकर्म (बुरे कर्म) से बचाती है।

तो फिर उनकी इतनी रानियां, इतनी पटरानियां कैसे ? “वो करें तो रासलीला है , हम करें तो … करैक्टर ढीला है ” क्योंकि बाबू आपका प्रेम प्रदर्शित करने के बारे में है और उनका प्रेम समर्पित होने के बारे में। जितना कोई उनसे प्रेम करता है उससे कहीं अधिक वो उसके प्रेम में समर्पित हो जाते हैं। राधा-कृष्ण प्रेम हो , सुदामा-कृष्ण प्रेम हो या विधुर की पत्नी का प्रेम में नग्न अवस्था में फल की जगह केले के छिलके खिलाने और उनके भी मग्न हो छिलके ही स्वाद से खाने का प्रसंग। असंख्य उनसे प्रेम करें और असंख्य को प्रतीत हो कि प्रभु पर केवल उनका अधिकार है, वो सिर्फ उनकी सुनते हैं, असंख्य को भरोसा हो कि जब भी जहाँ भी पुकारेंगे प्रभु उनके पास ही आएंगे यह ईश्वरीय पति के ही बस की बात हो सकती किसी मानव के बस की नहीं।

About Author: Anju Juneja

Anju Juneja is a homemaker, who loves to write about topics related to Hinduism in a simple language that is understood by all. This is one way in which she fulfills her Dharmic responsibilities towards the society.

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