श्रीराम जन्मभूमि के तथ्य (Facts about Ram Temple)

अयोध्या में मंदिर पर चलते विवाद के तथ्यों का अध्ययन कर यह निश्चित हो जाता है कि मंदिर का निर्माण ही इस विवाद का एकमात्र उपाय है।

श्रीराम जन्मभूमि के तथ्य (Facts about Ram Temple)

सर्वप्रथम इस शंका का निवारण करना अति आवश्यक है जिसमें कुछ धर्मों को भगवान् श्रीराम के अयोध्या में प्रकट होने पर संदेह है।

सहस्रधारामारभ्य योजनं पूर्वतो दिशि ।।

प्रतीचि दिशि तथैव योजनं समतोवधिः ।। ६४ ।।

दक्षिणोत्तरभागे तु सरयूतमसावधिः ।।

एतत्क्षेत्रस्य संस्थानं हरेरन्तर्गृहं स्थितम् ।।

मत्स्याकृतिरियं विप्र पुरी विष्णोरुदीरिता ।। ६५ ।।

सहस्राधारातीर्थ से पूर्व दिशा में एक योजन तक और सम नामक स्थान से पश्चिम दिशा में एक योजन तक, सरयूतट से दक्षिण दिशा में एक योजन तक और तमसा से उत्तर दिशा में एक योजन तक इस अयोध्या क्षेत्र की स्थिति है। यह भगवान् विष्णु का अन्तर्गृह है। यह विष्णुपुरी मछली के आकार वाली बतलायी गयी है। [64,65 अयोध्यामाहात्म्य, वैष्णवखण्ड, स्कन्दपुराण]

गतेषु पृथिवीशेषु राजा दशरथस्तदा।

प्रविवेश पुरीं श्रीमान् पुरस्कृत्य द्विजोत्तमान्।।1.18.5।।

उन राजाओं के विदा हो जाने पर श्रीमान् महाराज दशरथ से श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे करके अपनी पुरी अयोध्या में प्रवेश किया।

ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट्समत्ययु:।

ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ।।1.18.8।।

नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।

ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।1.18.9।।

प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृतम्।

कौसल्याऽजनयद्रामं सर्वलक्षणसंयुतम्।।1.18.10।।

यज्ञ समाप्ति के पश्चात् जब छः ऋतुएँ बीत गयीं, तब बारहवें मास में चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौसल्या देवी ने दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोकवन्दित जगदीश्वर श्रीराम को जन्म दिया। उस समय पाँच ग्रह अपने अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ बृहस्पति विराजमान थे। [सर्ग 18, बालकाण्ड, वाल्मीकि रामायण]

धर्मशास्त्रों से अयोध्यापुरी की भौगोलिक स्थिति एवं भगवान् श्रीराम का अयोध्या में ही प्रकट होना सुचारू रूप से स्थापित होता है।

जन्मभूमि पर मंदिर होने की प्रामाणिकता

अयोध्या में उनके जन्म स्थान पर एक मन्दिर स्थित था लेकिन यह आक्रमणकारी लुटेरों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया और उसी स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया जो ‘बाबरी मस्जिद’ के नाम से जानी गयी।

भारत, पश्चिमोत्तर तथा अवध के पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के दसवें अध्याय में यह वर्णित है कि बाबरी मस्जिद “मीर खान द्वारा सन् 1528 में उसी स्थान पर बनायी गयी जहाँ श्रीरामचन्द्र के जन्म स्थान का प्राचीन मन्दिर स्थित था।”

अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की निगरानी और सत्यापन में वर्ष 2002-2003 में जी॰पी॰आर॰एस॰ उत्खनन में, यह भलीभाँति स्थापित हो चुका कि जहाँ बाबरी मस्जिद का ढाँचा खड़ा था, वहाँ वास्तव में एक विशाल मन्दिर का अस्तित्व था। उत्खनन के समय पाये गये शिलालेखों में इस स्थान का वर्णन विष्णुहरि के मन्दिर के रूप में है जिन्होंने राक्षस राजा दशानन (रावण) को मारा था।

जन्मभूमि मंदिर को तोड़ने का विवरण गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा

निम्नलिखि प्रकरण गोस्वामी तुलसीदास जी के ग्रन्थ ‘दोहा शतक’ में वर्णित है। इसी का उद्धरण जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने इलाहाबाद हाइ कोर्ट(पृष्ठ संख्या 783) में दिया।

मन्त्र उपनिषद ब्राह्मनहुँ बहु पुरान इतिहास ।

जवन जराये रोष भरि करि तुलसी  परिहास ॥85॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया ।

सिखा सूत्र से हीन करि बल ते हिन्दू लोग ।

भमरि भगाये देश ते तुलसी कठिन कुजोग ॥86॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि ताकत से हिंदुओं की शिखा (चोटी) और यज्ञोपवीत से रहित करके उनको गृहविहीन कर अपने पैतृक देश से भगा दिया ।

बाबर बर्बर आइके कर लीन्हे करवाल ।

हने पचारि पचारि जन जन तुलसी काल कराल ॥86॥

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हाथ में तलवार लिये हुये बर्बर बाबर आया और लोगों को ललकार ललकार कर हत्या की । यह समय अत्यन्त भीषण था ।

सम्बत सर वसु बान नभ ग्रीष्म ऋतु अनुमानि ।

तुलसी अवधहिं जड़ जवन अनरथ किये अनखानि ॥87॥

(इस दोहा में ज्योतिषीय काल गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाते थे, सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1 अर्थात विक्रम सम्वत 1585 और विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 आता है ।)

श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि सम्वत 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों अवध में वर्णनातीत अनर्थ किये । (वर्णन न करने योग्य) ।

राम जनम महि मंदरहिं, तोरि मसीत बनाय ।

जवहिं बहुत हिन्दू हते, तुलसी किन्ही हाय ॥88॥

जन्मभूमि का मन्दिर नष्ट करके, उन्होंने एक मस्जिद बनाई । साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की । इसे सोचकर तुलसीदास शोकाकुल हुये ।

दल्यो मीरबाकी अवध मन्दिर रामसमाज ।

तुलसी रोवत ह्रदय हति हति त्राहि त्राहि रघुराज ॥89॥

मीरबाकी ने मन्दिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया । राम से रक्षा की याचना करते हुए विदीर्ण ह्रदय तुलसी रोये ।

राम जनम मन्दिर जहाँ तसत अवध के बीच ।

तुलसी रची मसीत तहँ मीरबाकी खाल नीच ॥90॥

तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्या के मध्य जहाँ राममन्दिर था वहाँ नीच मीरबाकी ने मस्जिद बनाई ।

केवल हिन्दू संतों द्वारा ही नहीं, गुरु ग्रंथ साहिब के पृष्ठ संख्या 417 एवं 418 में बाबर का नाम लेकर उसकी बर्बरता को दर्शाया गया है और मंदिर तोड़ने की बात कही गयी है। [417-9, 417-18, 418-1]

जन्मभूमि पर मीरबाकी द्वारा ढाँचे का निर्माण

श्रीराम, राजप्रासाद में जिस स्थान पर प्रकट हुए थे, हिन्दू मानस में दृढ़तापूर्वक वह स्थान चिन्हित है तथा पवित्र माना जाता है। यही वह क्षेत्र है जहाँ बाबर के सेनापति मीरबाकी ने 1528 में (बाबरी मस्जिद) बनायी थी, तथा 6 दिसम्बर 1992 तक बाबरी मस्जिद के नाम से यहाँ ढाँचा खड़ा था। “ढाँचा” इस लिए कि इसे सुन्नी फरमान के अनुसार मस्जिद नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें मस्जिद के लिये आवश्यक व अनिवार्य मीनार तथा वजू (जल प्रबन्ध) नहीं था।

ढाँचे के नाम को लेकर भी कई बार प्रश्न आता है कि यह बाबर के नाम पर है या ‘बाबरनामा’ के पृष्ठ संख्या 121 में वर्णित 14 वर्ष का बालक जिसे बाबर प्रेम करता था और जिसका नाम बाबरी था।

वास्तव में, मीर बाकी एक शिया मुस्लिम था तथा उसका विचार इसे शियाओं के लिये नमाज पढ़ने का स्थान बनाना था। रोचक रूप से आजकल 1961 से सुन्नी वक्फ बोर्ड इस स्थान के स्वामित्व पर विवाद की कानूनी लड़ाई लड़ रहा है, जिस पर ढाँचा कभी खड़ा था। शिया वक्फ के अनुसार बाबर अयोध्या में केवल 7 दिन के लिये आया था और इतने कम दिनों में मंदिर तोड़ना, ढाँचा बनवाना और स्वयं वाकिफ बनना संभव नहीं है। इसी कारण केस सुन्नी वक्फ को नहीं, शिया को लड़ना चाहिये।

क्या मंदिर और मस्जिद अपने अपने धर्म के आधार पर बराबर हैं?

भारत में लोगों को यह विश्वास करने के लिये भ्रमित किया गया है कि एक मन्दिर तथा एक मस्जिद समान रूप से आदृत धार्मिक स्थान हैं। यही भ्रांति हमारी (इस विवाद को सुलझाने की) असफलता के मूल में हैं कि अभी तक हम आम सहमति से अयोध्या में श्रीराम मन्दिर, मथुरा में श्रीकृष्ण मन्दिर तथा वाराणसी में श्रीविश्वनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण तथा/अथवा पुनर्प्राप्ति नहीं कर पाये हैं।

एक मूलभूत सच्चाई यह है भारतीय विधि अथवा अंतर्राष्ट्रीय विधि अथवा शरीया न्याय शास्त्र में भी (जो मुस्लिमों के लिये कानून है), मस्जिद को ‘नमाज’ पढ़ने तथा उसके लिये एकत्र होने हेतु प्रार्थना भवन माना गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय [सुप्रीम कोर्ट] की संविधान पीठ ने फारूकी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया [(1994) 6 SCC 376] में निर्णय दिया है कि मस्जिद इस्लाम धर्म का आवश्यक भाग नहीं है और कि नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है।

इस्माईल फारूखी बनाम भारतीय संघ के प्रसिद्ध केस में [(1994) 6 एस॰सी॰सी॰ 360 पृष्ठ 416 के अनुच्छेद 80 से 86 देखें] सर्वोच्च न्यायालय ने मस्जिद की पवित्रता तथा ईश्वर के निवास की अवधारणा का अवलोकन निम्न प्रकार किया।


“यह दलील दी गयी है कि मुस्लिम विधि के अन्तर्गत मस्जिद को एक विशेष दर्जा प्राप्त है तथा एक मस्जिद की स्थापना होने तथा ऐसी मस्जिद में प्रार्थना होने के बाद यह स्थान सदा के लिये अल्लाह की सम्पत्ति हो जाता है और इस्लामी मत को मानने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा मस्जिद में नमाज पढ़ सकता है, और यदि (यह) ढाँचा ढहा भी दिया जाये, इस स्थल पर नमाज पढ़ी जा सकती है। ” (अनुच्छेद 80)

संविधान पीठ ने इस विवाद का यह कहते हुए खंडन कियाः

“ठीक स्थिति संक्षेप में इस प्रकार हैः भारत में लागू मुस्लिम विधि के अन्तर्गत मस्जिद का स्वामित्व विपरीत कब्जे से समाप्त हो जाता है। एक मस्जिद इस्लाम धर्म के पालन का आवश्यक अंग नहीं है तथा नमाज कहीं भी यहाँ तक की खुले में भी पढ़ी जा सकती है। इस प्रकार भारतीय संविधान के प्रावधान इसके (मस्जिद के) अधिग्रहण को रोकते नहीं हैं।” (अनुच्छेद 82)

आगम शास्त्रों के अनुसार, निर्मित मन्दिर, प्राण प्रतिष्ठा पूजा के पश्चात्, वहाँ प्रतिष्ठित देव का निवास है तथा वह देव ही मन्दिर का स्वामी है।

एक मन्दिर (भग्न अथवा बिना पूजा अर्चना के भी) का प्रश्न आया थाः प्रकरण- लंदन में भगवान् नटराज की कांसे की मूर्ति नीलामी।

इसके पहले राजीव गांधी के प्रधानमन्त्रित्व काल में सन् 1986 में इसे वापिस लेने के लिये भारत सरकार ने, लंदन की ट्रायल कोर्ट में वाद योजित करने का निर्णय लिया था। तब तक यह ज्ञात हो चुका था कि मूर्ति तंजोर जिले के पाथुर में एक भग्न मन्दिर से सम्बन्धित थी। राममूर्ति नामक किसान को यह अपने घर के पास, कुदाल से मिट्टी खोदते समय, अचानक सन् 1976 में मिली थी। इस समाचार के प्रसारित होने पर अहमद हसन नामक प्राचीन कलाकृतियों के दलाल उसके पास पहुँचे तथा एक छोटी सी धनराशि चुका कर, तस्करी द्वारा लंदन ले गये, जहाँ 1982 में उन्होंने इसे बम्पर डेवेलपमेंट पेमेन्ट कॉरपोरेशन प्राईवेट लिमिटेड को बेच दिया।

हाऊस ऑफ लार्ड्स ने भारत सरकार के इस मत की पुष्टि की कि प्राण प्रतिष्ठा पूजा हो जाने के कारण मन्दिर का स्वामित्व देवता का हो जाता है। इस केस में स्वामित्व भगवान् शिव का है, और कोई भी हिन्दू देवता की ओर से वास्तविक न्यासी के रूप में वाद कर सकता है।

इस प्रकार यदि कोई मन्दिर भग्नावस्था में भी है, जैसा कि भारतीय पुरातत्व विभाग ने तंजौर के मन्दिर को पाया, या नष्ट हो गया हो जैसा बाबरी मस्जिद क्षेत्र में श्रीराम मन्दिर था तो कोई भी हिन्दू भगवान् श्रीराम की ओर से पूर्व स्थिति हेतु वाद योजित कर सकता है।

इस प्रकार अविच्छेद्य पवित्रता की अवधारणा के आधार पर श्रीराम जन्मभूमि पर श्रीराम मन्दिर का दावा किसी मस्जिद के सापेक्ष श्रेष्ठतर है। अयोध्या विवाद में यह आधारभूत सच है।

यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि आज के समय भारतीय पुरातत्व विभाग ने अयोध्या में आठ ऐसी मस्जिदें अधिग्रहीत की हुई हैं जहाँ पर कोई भी नमाज पढ़ने नहीं आता है।

1885 की याचिका

सन् 1885 में फैजाबाद सब जज के न्यायालय में महन्त रघुबर दास ने वाद संख्या 61/280 (वर्ष 1885) भारत सचिव (जो लंदन में रहते थे) के विरुद्ध योजित किया था, इसमें उन्होंने मस्जिद के बाहर, चबूतरे पर एक मन्दिर निर्माण की अनुमति हेतु प्रार्थना की थी। उनका वाद 18 मार्च, 1886 को निरस्त हो गया।

 यद्यपि अपने आदेश में अंग्रेज सब जज ने लिखा थाः

यह अत्यन्त दुर्भाग्य पूर्ण है कि हिन्दुओं द्वारा विशेष रूप से पवित्र माने जाने वाली भूमि पर मस्जिद बना ली गयीलेकिन क्योंकि यह घटना 358 वर्ष पूर्व घटी, (इसलिये) शिकायत के परिमार्जन के लिये विलम्ब हो चुका था”।

दिसंबर, 1992

6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या नगर में बाबरी मस्जिद नामक ढाँचा गिरा दिया गया। यह एक अनधिकृत विध्वंस था तथा भीड़ द्वारा हिंसा का परिणाम था। इस मामले में न्यायालय में आपराधिक वाद योजित है।

यह राष्ट्र के लिये आज भी एक दुःखद घटना है, क्योंकि धर्मनिरपेक्ष भारतीयों का, भारत के असत्य व काल्पनिक इतिहास का चलता आ रहा पोषण छुड़ा दिया गया, तथा हमारे शिक्षित वर्ग का बड़ा भाग ढाँचा गिराने को आज भी आपराधिक बर्बरता मानता है।

भारत के कुछ समकालीन बुद्धिजीवी अंग्रेजी परस्त दासता वाली मनोवृत्ति के कारण, श्रीराम की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करते हैं, ऐसे व्यक्तियों के लिये रामायण तथा महाभारत पौराणिक गाथाएं मात्र हैं।

सन 1813 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हेलीबरी कालेज के जेम्स मिल तथा चाल्र्स ग्रांट ने ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने भारतीय साहित्य के अधिकांश भाग को ‘पौराणिक’ के रूप में वर्गीकृत किया। इसके पश्चात् उनके भारतीय शिष्यों ने एंग्लों-भारतीय शिक्षा व्यवस्था में पले-बढ़े रट्टू तोतों की प्रणाली अपनाते हुए यह बात दोहराना प्रारंभ कर दिया। मिल तथा ग्रांट ने इन ग्रन्थों को निम्न आधारों पर पौराणिक ठहराया।

‘इन ग्रन्थों में वर्णित घटनाएं पृथ्वी की रचना से पहले हुई प्रतीत होती हैं (फादर जेम्स अशर ने इसका समय 23 अक्टूबर, प्रातः 9:00 बजे, 4004 ईसा पूर्व निर्धारित किया) । इसलिये तर्क दिया गया कि भारत और इसकी सभ्यता को इस समय से पूर्व बताने वाले, ये ग्रन्थ वास्तविक नहीं हो सकते और कल्पित होने चाहिएं।‘

लेकिन फादर अशर का अनुमान आधुनिक ब्रह्माण्ड विज्ञान तथा पारम्परिक पुरातत्वीय खोजों से निस्संदेह गलत सिद्ध हो गया है। इसलिये मिल और ग्रांट के तर्कों का भवन बिना आधार का है।

मिल तथा ग्रांट ने यह भी कहा कि ये ग्रन्थ परस्पर असंगत है तथा इस प्रकार ये ग्रन्थ कल्पित होने चाहिएं। यह ध्यान में रखने योग्य है कि जहाँ इन ग्रन्थों पर परस्पर असंगत होने का आरोप है, फिर भी, ब्रिटिश इतिहासकारों तथा उनके भारतीय पिछलग्गुओं ने पुराणों में वर्णित वंशावलियों को आलोचना-रहित पूर्ण ढंग से स्वीकार किया है (वरना, उदाहरणार्थ, सभी प्रकार के भारतीय व पश्चिमी इतिहासकार कैसे जानते हैं कि अशोक बिन्दुसार का पुत्र था या समुद्रगुप्त चन्द्रगुप्त का पुत्र था अथवा मौर्य वंश नंद वंश के बाद आया?)। इतना होने पर, वर्णन में अन्तराल अथवा असंगति इन ग्रन्थों की ऐतिहासिकता को प्रभावित नहीं करती है। हम परिलक्षित असंगति के समाधान के बाद, ग्रन्थों को समग्रता में ही देखते हैं केवल असंगति वाले भाग को नहीं। इस प्रकार मिल व ग्रांट द्वारा भारतीय साहित्य का वर्गीकरण कल्पित करने के समस्त तर्क दोषपूर्ण है।

ब्रिटेन के पिट्ठू इतिहासकारों को उलझन में डालने आतंकित तथा ईष्याग्रस्त करने के लिये तथ्य, कोई अन्य सभ्यता भारतीय सभ्यता जितनी प्राचीन व चिरस्थायी नहीं है।

श्वेत पत्र

1994 के फारूखी केस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ के समक्ष भारत सरकार ने एक शपथपत्र दाखिल किया था, उपर्युक्त संविधान पीठ ने अपने निर्णय में भारत सरकार के (श्रीराम मन्दिर) प�

About Author: Apurv Agarwal

Apurv Agarwal is a disciple of Padma Vibhushan Jagadguru Rambhadracharya ji who hails from Shri Ramanandiya tradition, an unbroken spiritual lineage said to have originated from Lord Ram Himself. He works as a software engineer and is also an office-bearer of Dr. Subramanian Swamy's 'Virat Hindustan Sangam'. Apurv has co-translated a book named 'Kashi Martand' in English on his spiritual lineage depicting the life and contribution of the renowned spiritual figure 'Jagadguru Ramanandacharya' who appeared 700 years ago.

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