मर्यादा पुरुषोत्तम राम, मर्यादा परिभाषा श्याम

मर्यादा के अर्थ का अन्वेषण करना इस बदलते हूऐ वातावरण्‍ा में अनिवार्य है।

सतयुग -एक नवजात शिशु की तरह निर्मल, पावन, अच्छाई-बुराई से सर्वथा अनभिज्ञ। जो जैसा दिखाई देता है ,वैसे ही है ,अन्यथा कुछ भी नहीं। सब एक सरल, सीधे मार्ग पर चलते हुए जब तक एक वक्र, कपट की पगडण्डी दृष्टिगोचर नहीं हो जाती और कोई उस पगडण्डी का लाभ ले कर, शेष सभी का हित त्याग स्वयंभू अग्रणी घोषित नहीं हो जाता। यह एक युगान्त और एक युगारंभ की करवट है। भविष्य के युग उससे अच्छे अथवा उससे बुरे हो सकते हैं परन्तु युगपरिवर्तन के लिए किसी युगपुरुष का आना निश्चित है।

सतयुग से त्रेता युग का आना सतयुग में स्वार्थ और वर्चस्व के परिचय से आरम्भ होता है। वर्चस्व का युद्ध मर्यादा और अमर्यादा के बीच में है परन्तु मर्यादा और अमर्यादा के मध्य एक सुस्पष्ट रेखा चिन्हित है। राम मर्यादा हैं तो रावण अमर्यादा। राम का पुत्र-धर्म, शिष्य-धर्म, भ्राता धर्म ,पति-धर्म, मित्र-धर्म, राज-धर्म  यहाँ तक कि शत्रु-धर्म भी मर्यादा ही मर्यादा है। ऐसे ही जो भी उनके धर्म में उनके साथ प्रतिभागी हैं वो भी इस मर्यादा से भली-भाँति परिचित हैं।

राम के लिए माता-पिता के वचन का क्या स्थान है यह तो उनके राज्य त्याग वन गमन के लिए तत्पर हो जाने से ही प्रत्यक्ष हो जाता है। गुरु का स्थान उन्होंने सदैव माता-पिता से भी पहले रखा। गुरु के एक ही आदेश पर ऋषि-रक्षा के लिए भयंकर असुरों से युद्ध के लिए निकल पड़ते हैं। गुरु-आज्ञा पर ही विवाह के स्वयंवर में भाग लेना स्वीकार करते हैं। कही माँ मातृ-धर्म का उलँघन करती दिखाई देती हैं तो राम और भरत का भ्राता-धर्म उस धर्म को पुनः स्थापित कर देता है। राम-लक्ष्मण तो ऐसे भाई हैं जो दो देह हो कर आत्मा से जुड़े है। राम के पति-धर्म पर तो रामायण हो गई उसका एक पंक्ति में क्या उल्लेख हो। उल्लेख करना ही हो तो इतना प्रायप्त है समझने के लिए कि पति-धर्म में वो सियावर राम हो गए। मित्रों में वो संकोच का कोई स्थान नहीं रखते फिर वो निषाद राज हो, अपने राज्य से विस्थापित सुग्रीव हो अथवा शत्रु का भाई विभीषण हो। जब एक वनचर सेना के नेतृत्व की बात आती है तो कहीं भी वो स्वामित्व अथवा आधिपत्य जमाने का भाव नहीं आने देते। वो उनको संगठित कर स्वावलम्भी बनाते हैं और उनमें उनके कौशल का श्रेष्ठ जागृत करते हैं।

शत्रुता निभाते हुए स्मरण रखते हैं कि शत्रु भी एक विद्वान है उसके पास पहले शांति-सन्देश भेजते हैं तत्पश्चात आक्रमण करते हैं। उसको पराजित करने के पश्चात् भी उससे किसी सीख की याचना करते हैं। उसकी  मृत्यु में गरिमा का ध्यान रखते हैं, शोकाकुल परिजनों को ढाढ़स देते हैं और उसके राज्य को उसीके भाई को सौंप देते हैं। राज-धर्म में तो वो ऐसा मापदंड निर्धारित करते हैं कि आज भी शासक राम-राज्य को ही आदर्श लक्ष्य मानते हैं। भगवान वो इसलिए हो जाते हैं कि भक्त-वत्सल हैं, उनके नाम की भी कोई शरण ले तो उसकी रक्षा के लिए सदैव तत्पर और समर्पित हो जाते हैं। और भक्त हनुमान जैसे हों तो वो अपना अस्तित्व ही उसे सौंप देते हैं। राम-दरबार भगवान राम, उनकी पत्नी, उनके भाइयों और उनके अनन्य भक्त श्री हनुमान के साथ ही सम्पूर्ण होता है।

राम-राज्य के प्रयंत कपट और स्वार्थ की पगडंडियों ने स्थापित मार्ग को अच्छादित कर दिया। मर्यादित और अमर्यादित का सुस्पष्ट अन्तर धूमिल हो गया। द्वापर युग में हर सम्बन्ध इतना दूषित हो गया कि उसका निर्वाह उलझन और द्वंद्व से हो कर निकलता और उस उलझन का सुलझाव सम्बन्ध-प्रेम से नहीं अपितु राजनैतिक परिणाम से प्रेरित होता। फिर वो एक भाई का अपनी बहन के नवजात शिशुओं का वध करवाना हो, सत्यवती का देवव्रत को आजीवन ब्रह्मचार्य की भीषम प्रतिज्ञा में बाँध अपने सन्यासी पुत्र से उत्तराधिकारी पैदा करवाने की योजना हो, एक भाई का दूसरे भाई से छल कर राज्य हथियाना हो, अपनी पौत्र-वधु, पुत्र-वधु, शिष्य-वधु के भरी सभा में अपमान पर चुप रह जाना हो, अपनी पत्नी को जुए में हार जाना हो, अपने प्रिय शिष्य के पुत्र की हत्या में मुख्य-भूमिका निभाना हो, हर सम्बन्ध-धर्म पर अमर्यादा की सेंध लगी प्रतीत होती है ऐसे में किसी भी अर्जुन जैसे  नायक के लिए हतप्रभ हो जाना स्वाभाविक है। इस भयावह मायाजाल से अतिमानवीय कृष्ण ही उचित मार्ग सुझा सकते हैं। वो सम्बन्ध और कर्तव्य के उलझे धागों को एक-एक कर सुलझाते चले जाते हैं।

अकस्मात ही नए परिवेश में मर्यादा की स्पष्ट परिभाषा दिखाई पड़ने लगती है। वो धर्म के मार्ग में वास्तुस्थिति के अनुरूप उचित कर्म को मर्यादा मानते हैं। और उचित कर्म का निर्णय कर्मक्षेत्र अर्थात भौतिक शरीर पर प्राकृतिक गुण -सात्विक, राजसी अथवा तामसिक -के प्रभाव पर निर्भर करता है। यदि यह निर्णय, परमात्मा जो कि सर्वज्ञ है, के समर्पण में किया जाता है, तो कदापि अनुचित हो ही नहीं सकता क्योंकि उस परस्थिति में जीव निज स्वार्थ के बारे में सोच ही नहीं सकता। वो सबमें परमात्मा की उपस्थिति अथवा अनुपस्थिति ही देखेगा। वो जिसके साथ भी प्रतिस्पर्धा या द्वंद्व में है उसमें उसे न्याय अथवा अन्याय ही दिखाई देगा। भगवान का शस्त्र न उठाने का निर्णय भी इसी को दर्शाता है कि कर्म तो हर जीव को ही करना होगा वो मात्र वस्तुस्थिति का न्याय के पक्ष में संचालन करेंगे।

महाभारत का युद्ध भी युगपरिवर्तन का संकेत था। भगवान कृष्ण का अर्जुन को दिया ज्ञान इस युग में भी प्रासांगिक है। शत्रु ज्ञात हो या अज्ञात द्वंद्व का कर्मक्षेत्र भुक्तभोगी जीव का शरीर ही है और अपने युद्ध के लिए सबको स्वयं शस्त्र उठाने पड़ते है। अगर योद्धा के सारथि  परमात्मा हैं तो मर्यादित मार्ग की परिभाषा भी स्पष्ट हो जाती है। कृष्ण द्वारा अपनी ही नगरी का विध्वंस करना आगामी युग का परिचय था। वो संकेत था कि कोई भी इसलिए सम्माननीय नहीं क्योंकि वो वर्ग-विशेष, समूह विशेष या कुटुंब-विशेष से सम्बन्ध रखता है। और यह भी कि अबसे युद्ध किसी घोषित शत्रु से नहीं होगा। आने वाले युग अर्थात कलियुग में यह प्रत्येक जीव का युद्ध होगा किसी भी बाहरी, अंतरंग अथवा स्वयं से। यह युद्ध किसी अवतार, किसी अतिमानवीय शक्ति के आने की प्रतीक्षा नहीं करेगा इसके लिए तो प्रत्येक कर्मक्षेत्र देह में से तमस, अज्ञान और मल को बुहार कर एक कल्कि जागृत करना होगा। जब ऐसा हो जाए तो सतयुग पुनरुत्थान कौन रोकेगा।

About Author: Anju Juneja

Anju Juneja is a homemaker, who loves to write about topics related to Hinduism in a simple language that is understood by all. This is one way in which she fulfills her Dharmic responsibilities towards the society.

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