सप्तर्षियों के नामों के अर्थ – स्वयं सप्तर्षियों के अनुसार (भाग २)

सप्तर्षि गूढ भाषा में बोले गए अपने नामों के अर्थ की व्याख्या करते हैं

प्रस्तावना

इस लेख शृङ्खला के प्रथम भाग में सप्तर्षियों के संक्षिप्त परिचय के साथ महाभारत के ‘विसस्तैन्योपाख्यान’ की समास में प्रस्तुति थी। राजा वृषादर्भि द्वारा भेजी गयी यातुधानी ऋषियों के नाम के अर्थ समझकर और इस व्याज से उनकी शक्तियाँ जानकर उनको मारना चाहती है। अत्रि आदि ऋषि यातुधानी द्वारा नाम समझने का हेतु भाँप जाते हैं। वे एक-एक करके गूढ वचनों में अपने नाम समझाते हैं जिससे यातुधानी उनके नाम के अर्थ समझ न पाए। लेख शृङ्खला के इस द्वितीय भाग में सातों ऋषियों ने अपने-अपने नाम का निर्वचन करते हुए जो श्लोक बोले उनके अक्षरार्थ, भावार्थ, और गूढार्थ समझाए गए हैं।

(१) अत्रि/अत्त्रि

अरात्त्रिरत्त्रिः सा रात्रिर्यां नाधीते त्रिरद्य वै।

अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने॥

अक्षरार्थ

“अरात्रि अत्रि। वह रात्रि जिसमें तीन न पढ़े। निश्चित ही आज अरात्रि, अत्रि, ऐसा मेरा नाम जानो, हे शोभने।”

भावार्थ

अत्रि के वचन का तात्पर्य है कि ‘अरात्रि’ शब्द से ही ‘रा’ का लोप होकर ‘अत्रि’ शब्द बना है।[1] अतः वे कहते हैं कि जो ‘अरात्रि’ अर्थात् रात्रि रहित है वह ‘अत्रि’ है। रात्रि के संबन्ध में उनका तात्पर्य है कि रात्रि वह काल है जिसमें ब्रह्मचारी तीन वेद नहीं पढ़ता। वे कहते हैं कि आज भी मैं ‘अरात्रि’ हूँ, अर्थात् आज भी मैं सतत तीन वेदों का अध्ययन करता हूँ, अत एव मैं ‘अत्रि’ हूँ। अत्रि के शब्द सरल हैं पर उनका भाव दुर्गम, और यातुधानी इस दुर्गम भाव को नहीं समझ पाती है।

गूढार्थ

संस्कृत व्याकरण के अनुसार एक ‘त’ वाले ‘अत्रि’ शब्द का एक वैकल्पिक रूप दो ‘त’ वाला ‘अत्त्रि’ शब्द है।[2] इसी प्रकार ‘अरात्रि’ शब्द का एक वैकल्पिक रूप ‘अरात्त्रि’ शब्द है। इस आधार पर नीलकण्ठ की टीका में अत्रि के इस श्लोक की ‘ऐतरेय आरण्यक’ की एक श्रुति से संगति बताई गई है। आरण्यक में कहा गया है, “उसने (प्राण ने) जो भी यह मनुष्य-लोक है उस संपूर्ण [लोक] की पाप से रक्षा की (‘अत्रायत’), इसलिये उसे अत्रि कहते हैं।”[3] आरण्यक का अभिप्राय है कि ‘अत्रि’ नाम ‘अत्रायत’ शब्द से उत्पन्न है।

नीलकण्ठ कहते हैं कि ‘अरि’ का अर्थ है काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, और मत्सर ये छः शत्रु। जिसमें ‘अरि’ हैं वह है ‘अर’ अर्थात् पाप।[4] जो पाप से (‘अरात्’) रक्षा करता है (‘त्रि’) वह ‘अरात्त्रि’ (अरात् + त्रि) है। और ‘अत्’ का अर्थ है भक्षण करने वाली मृत्यु।[5] जो मृत्यु (‘अत्’) से रक्षा करता है (‘त्रि’) वह ‘अत्त्रि’ (अत् + त्रि) है। ‘अरात्त्रि’ अर्थात् पाप से रक्षा करने वाले ही ‘अत्त्रि’ अर्थात् मृत्यु से रक्षा करने वाले हैं क्योंकि मृत्यु शब्द का पाप के लिये भी प्रयोग होता है। धर्म से पाप का निवारण होता है इसलिये ‘अत्त्रि’ का एक अर्थ धर्म भी है।

‘सा रात्रिः’ में ‘साऽरात्रिः’ इस प्रकार अकारप्रश्लेष लेते हुए ‘साऽरात्रिः यां नाधीते त्रिः’ का अर्थ नीलकण्ठ ऐसा बताते हैं। हृदय रूपी आकाश की मुक्त अवस्था सभी पापों का नाश करती है। इस अवस्था में तीन कालों (भूत, वर्तमान, और भविष्य) का अध्ययन अथवा अधिगम नहीं होता क्योंकि सभी कुछ वर्तमान ही होता है। इस अवस्था में रात्रि नहीं होती, इसलिये अत्रि अरात्रि हैं।

अत्रि द्वारा उक्त श्लोक का भाव है कि रात्रि-रहित अर्थात् निरन्तर (व्यवधान से रहित) वेदाध्ययन करने से कामादि शत्रुओं और पाप-स्वरूप मृत्यु से रक्षा होती है। इसका कारण है कि वेद ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान के साधन हैं, और गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “बुद्धि से परे आत्मा को जानकर कामरूप शत्रु को मार दो।”[6] नीलकण्ठ के अनुसार त्रिकालातीत अवस्था, जिसमें सब वर्तमान है, मन के द्वारा भी दुर्धार्य है, यही तमोगुण प्रधान यातुधानी का अत्रि को दिये हुए उत्तर का अभिप्राय है। अर्थात् यातुधानी अत्रि का धर्षण करने में असमर्थ है क्योंकि वह कदापि अत्रि की आध्यात्मिक अवस्था प्राप्त नहीं कर सकती।

क्वचिदन्यतोऽपि

जैसा कि लेख शृङ्खला के प्रथम भाग में बताया जा चुका है, ‘शतपथ ब्राह्मण’ और ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ के अनुसार “जिसके द्वारा भोजन किया जाए” वह ‘वाक्’ ही (जिह्वा) ‘अत्रि’ है। जिह्वा द्वारा भोजन ग्रहण करने पर मृत्यु से शरीर की रक्षा होती है यह आधिभौतिक भाव है। ऋग्वेद की ‘शाकल संहिता’ पर सायण भाष्य के अनुसार शत्रुओं और अन्नों का भोजन करने वाला ‘अत्रि’ है।[7] उणादि सूत्र पर नारायण की ‘प्रक्रियासर्वस्व’ टीका के अनुसार फल आदि का भक्षण करने वाला ‘अत्रि’ है।[8]

 

(२) वसिष्ठ

वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासगृहेष्वपि।

वरिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम्॥

अक्षरार्थ

“वसिष्ठ हूँ, वरिष्ठ हूँ। वासगृहों में बसता हूँ। वसिष्ठ होने और वास के कारण मुझे वसिष्ठ ऐसा जानो।”

भावार्थ

वसिष्ठ के वचन का तात्पर्य यह है कि ‘वरिष्ठ’ शब्द से ही ‘र’ वर्ण को ‘स’ (वर्णविकृति) होकर ‘वसिष्ठ’ शब्द बना है। अर्थात् ‘वसिष्ठ’ शब्द पृषोदरादिगण में है और यह ‘वरिष्ठ’ शब्द का ही रूप है।[9] ‘वरिष्ठ’ शब्द का क्या अर्थ है? जो अत्यन्त महान् है वह वरिष्ठ है। ‘अतिशयेन उरुः वरिष्ठः’।[10] वसिष्ठ वासगृहों अर्थात् वास के योग्य गृहों (गृहस्थाश्रमों) में रहते हैं, और ऐसे वासगृहों में रहने वाले गृहस्थों में श्रेष्ठ होने के कारण ही वे ‘वसिष्ठ’ हैं—‘अतिशयेन वसो वसिष्ठः’।[11] यातुधानी इस भावार्थ को नहीं समझ पाती है।

गूढार्थ

नीलकण्ठ की टीका में कहा गया है कि ‘शतपथ ब्राह्मण’ की श्रुति के अनुसार अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, सूर्य, स्वर्ग, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि ‘वसु’ हैं।[12] ये ‘वसु’ जिसके अधीन हैं वह ‘वसुमान्’ है, अर्थात् अष्ट सिद्धियों के स्वामी को ‘वसुमान्’ कहते हैं। और जो वसुमानों में श्रेष्ठ है वह वसिष्ठ है।[13] नीलकण्ठ आगे कहते हैं कि सबके उपजीव्य (आश्रय) गृहस्थों के आश्रम में वसिष्ठ रहते हैं, अतः वे ‘वस्ताओं’ (“बसने वालों”) के मध्य सर्वश्रेष्ठ हैं[14] और इस कारण से देवता उनकी रक्षा करते हैं। नीलकण्ठ के अनुसार ‘वसिष्ठ’ (वसुमानों में श्रेष्ठ) नाम का एक और तात्पर्य है “सब कुछ मेरे वश में है और मैं किसी के वश में नहीं हूँ।”

एक मतान्तर के अनुसार तालव्य शकार वाला ‘वशिष्ठ’ शब्द ही दन्त्य सकार वाला ‘वसिष्ठ’ बना है।[15] ‘वशिष्ठ’ का अर्थ है “[इन्द्रियों को] वश करने वालों (वशियों या जितेन्द्रियों) में श्रेष्ठ”। इस प्रसंग में और अन्य अनेक प्रसंगों में वसिष्ठ सप्तर्षियों के मध्य भी अपनी पत्नी अरुन्धती के सहित विराजमान रहते हैं, क्योंकि वे गृहस्थों में श्रेष्ठ हैं। वसिष्ठ गृहस्थ होते हुए भी सिद्धियों के स्वामी हैं और श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे ‘वशी’ अर्थात् जितेन्द्रिय हैं। तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ गृहस्थ वशी (इन्द्रियों को वश में करने वाला) होता है।[16]

क्वचिदन्यतोऽपि

‘ऐतरेय आरण्यक’ में प्राण को वसिष्ठ कहा गया है।[17] सायण के भाष्य के अनुसार प्राण सबमें प्रवेश करने के कारण सबका निवासहेतु है, अतः वह ‘वसिष्ठ’ है। महाभारत के इस प्रसंग में भी वसिष्ठ कहते हैं “वासगृहों में बसता हूँ”। इस प्रकार वसिष्ठ के वचन में ‘ऐतरेय आरण्यक’ की श्रुति का भी स्पष्टीकरण है, शरीर ‘वासगृह’ हैं क्योंकि वे आत्मा के रहने के स्थान हैं। और सब ‘वासगृहों’ में बसने के कारण प्राण ‘वसिष्ठ’ है।

(३) कश्यप

कुलं कुलं च कुवमः कुवमः कश्यपो द्विजः।

काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय॥

अक्षरार्थ

“कुल कुल, कुवम कुवम, द्विज कश्यप, काशनिकाश होने से काश्य, ऐसा मेरा नाम धारण करो।”

गूढार्थ

कश्यप द्वारा उक्त श्लोक अत्यन्त गूढ है, और यातुधानी तो क्या, किसी संस्कृत के पण्डित के लिए भी एक विशद टीका के बिना श्लोक समझना असंभव-सा है। अतः श्लोक का भावार्थ न देकर सीधे गूढार्थ प्रस्तुत है। वादिराज की ‘लक्षालङ्कार’ टीका में भी इस श्लोक की आंशिक व्याख्या ही प्राप्त है। इसकी विस्तृत व्याख्या नीलकण्ठ के अनुसार इस प्रकार है।

‘कुलं कुलम्’ का अर्थ है प्रत्येक कुल (प्रत्येक शरीर)। ‘कुलं कुलं कश्यपो द्विजः’ का अर्थ है “सब शरीरों में मैं ही एकमात्र कश्यप नाम का द्विज हूँ।” ‘कश्य’ का अर्थ है घोड़ा या अश्व।[18] श्रुति के अनुसार इन्द्रियाँ ही अश्व हैं।[19] उनका आश्रय होने से शरीर का भी एक नाम ‘कश्य’ है।[20] इस प्रकार ‘कश्यप’ के तीन अर्थ हैं —

1. ‘कश्य’ (शरीर) की रक्षा करने वाला ‘कश्यप’ है।[21] अर्थात् जो अन्तर्यामी के रूप में शरीरों में प्रविष्ट होकर उनका पालन करता है वह ‘कश्यप’ है।

2. ‘कश्य’ (शरीर) के द्वारा पीने वाला ‘कश्यप’ है।[22] अर्थात् जो शरीरों के माध्यम से सुख और दुःख भोगता है वह ‘कश्यप’ है।

3. ‘कश्य’ (शरीर) को सुखाने वाला ‘कश्यप’ है।[23] अर्थात् जो ब्रह्म के रूप में शरीरों को अपने में विलीन करता है वह ‘कश्यप’ है।

इस प्रकार ‘कुलं कुलम्’ का तात्पर्य है कि जो सब अध्यात्म है वह मुझ कश्यप का ही स्वरूप है। ‘कुवमः’ का अर्थ है आदित्य (सूर्य)।[24] ‘कुवमः कुवमः’ का अर्थ है “प्रत्येक आदित्य”।[25] कश्यप का भाव है कि क्योंकि सब आदित्य उनके पुत्र हैं इसलिये सब आदित्य भी वही हैं।[26] इस प्रकार ‘कुवमः कुवमः’ का तात्पर्य है कि जो सब अधिदैव है वह भी मुझ कश्यप का ही स्वरूप है।[27] ‘काश्यः’ का अर्थ है दीप्तिमान्।[28] दीप्तिमान् होने का कारण है ‘काशनिकाशत्वात्’, अर्थात् बहुत काल तक तप करने के कारण काश के पुष्प के समान सर्वतः उज्ज्वल होने से। तात्पर्य है “चिरन्तन तप करने से मैं दीप्त हूँ।”

इस प्रकार कश्यप द्वारा उक्त श्लोक का भाव यह है —

“सभी कुलों (शरीरों) में मैं कश्यप द्विज हूँ। मैं सभी कुवम (आदित्य या देव) हूँ। [चिरकालीन तप से] मैं काश पुष्प के समान काश्य (दीप्तिमान्) हूँ। मेरा यह नाम [का अर्थ] धारण करो।”

(४) भरद्वाज

भरेऽसुतान्भरेऽशिष्यान्भरे देवान्भरे द्विजान्।

भरे भार्यां भरे द्वाजं भरद्वाजोऽस्मि शोभने॥

अक्षरार्थ

“असुतों, अशिष्यों, देवों, द्विजों, भार्या, और द्वाज का भरण करता हूँ, हे शोभने, मैं भरद्वाज हूँ।”

भावार्थ

भाव यह है कि भरद्वाज वह हैं जो ‘द्वाजों’ (वर्णसंकरों) का ‘भरण’ करते हैं, परन्तु भरद्वाज केवल इतना नहीं कहते। वे कहते हैं कि वे अपुत्रों, अशिष्यों, देवों, द्विजों, भार्या (पत्नी), और द्वाजों का भरण करते हैं। अर्थात् भरद्वाज न केवल द्वाजों का अपितु सारी प्रजा का भरण करते हैं, अतः ‘भरद्वाज’ इस नाम में कैमुतिक न्याय अवगम्य है—जो असुतों, अशिष्यों, और द्वाजों का भी भरण करता है वह देवों, द्विजों, और भार्या का भरण करेगा ही। छः बार ‘भरे’ शब्द का उच्चारण करके भरद्वाज यातुधानी को भ्रान्त करते हैं और वह उनके भावार्थ को नहीं समझ पाती।

गूढार्थ

नीलकण्ठ की टीका में इस श्लोक की भी ‘ऐतरेय आरण्यक’ की एक श्रुति से संगति बताई गयी है। आरण्यक का वचन है, “यह प्राण ही ‘बिभ्रद्वाज’ है, प्रजा ही ‘वाज’ है, उन्ही का यह [अपने प्रवेश द्वारा] पोषण करता है, क्योंकि पोषण करता है इसलिये ‘भरद्वाज’ है।”[29]श्रुति का तात्पर्य यह है कि ‘वाजं बिभ्रत् बिभ्रद्वाजः’ (“प्रजा का धारण और पोषण करने वाला बिभ्रद्वाज है”) और ‘वाजं भरद् भरद्वाजः’ (“प्रजा का भरण करने वाला भरद्वाज है”) ऐसा नाम-निर्वचन है।[30] नीलकण्ठ श्लोक का गूढ अर्थ ऐसा समझाते हैं।

‘असुत’ का अर्थ है जो मेरे प्रति उदासीन हैं, ऐसे दीन हों या अदीन हों, उनका मैं पालन करता हूँ। ‘अशिष्य’ का अर्थ है अशिक्षणीय (शिक्षण के अयोग्य) राक्षस और शत्रु, उन्हें भी मैं वश में करके करुणा से उनका पालन करता हूँ। ‘भार्या’ शब्द यहाँ पुत्र और सेवकों का भी उपलक्षण है। अर्थात् भार्या (पत्नी), पुत्रों, और सेवकों का पालन करता हूँ। मैं ‘वाज’ अर्थात् वेग,[31]तात्पर्यतः शत्रुओं का साहस, अथवा अन्न का भरण करता हूँ अर्थात् पृथिवी की भाँति सबको सहन करता हूँ और सबको अन्न प्रदान करता हूँ। ‘द्वाज’ का अर्थ है संकर अथवा दूसरे का पुत्र जिसको स्वपुत्र मानते हुए संस्कार किया गया है वह ‘द्वाज’ है। अथवा जिनमें बीजसंस्कार का सांकर्य है वह ‘द्वाज’ है, यथा विश्वामित्र, कर्ण, आदि।[32] उनका मैं भरण करता हूँ।

भरद्वाज का भाव यह है कि वे सबका—यातुधानी सदृश कृत्या का भी—भरण करते हैं, अतः वह उनका धर्षण करने में असमर्थ है।

क्वचिदन्यतोऽपि

श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कन्ध में बृहस्पति और ममता के पुत्र ‘भरद्वाज’ के संदर्भ में एक नाम-निर्वचन प्राप्त होता है,[33] परन्तु यहाँ वर्णित बृहस्पति और ममता के पुत्र भरद्वाज सप्तर्षियों वाले भरद्वाज ऋषि से भिन्न है। कथा के अनुसार एक बार बृहस्पति अपने अग्रज उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ समागम करने के लिये प्रवृत्त हुए तो गर्भस्थ शिशु ने उन्हें गर्भ में अवकाश का अभाव होने के कारण रोका। बृहस्पति ने गर्भस्थ शिशु को अन्धा होने का शाप देकर वीर्य विसर्जित किया। उस वीर्य से तत्काल एक बालक उत्पन्न हुआ। बालक को ममता और बृहस्पति दोनों ने एक-दूसरे को भरण-पोषण हेतु देना चाहा। बृहस्पति ने कहा, ‘मूढे भर द्वाजम् इमम्’ (“हे मूर्खे, [तुम] इस द्वाज का भरण-पोषण करो”) और ममता ने कहा ‘भर द्वाजं बृहस्पते’ (“हे बृहस्पति, [तुम ही] इस द्वाज का भरण-पोषण करो”)। इस प्रकार शिशु का नाम ‘भरद्वाज’ हुआ।

यद्यपि यह निर्वचन भरद्वाज ऋषि से भिन्न एक अन्य भरद्वाज का है और बृहस्पति सदृश महात्माओं तक पर काम के प्रभाव के व्याज से धर्मविरुद्ध काम की निन्दा इस लघुतम कथानक का अभिप्राय है, तथापि इस कथानक का एक गूढ आध्यात्मिक अर्थ लेखक के विचार से ऐसे है। ‘उतथ्य’ प्रतीक है संशय या नास्तिकता का—‘उ’ प्रश्नवाचक अव्यय है और ‘तथ्य’ का अर्थ है सत्य, तो सत्य को सदैव प्रश्न का विषय बनाना ही ‘उतथ्य’ है। ‘ममता’ अर्थात् “मेरापन” सांसारिक ममत्व अथवा मोह की प्रतीक है। संशय और ममता के योग से अज्ञान की उत्पत्ति होती है, अतः उतथ्य और ममता का पुत्र अन्धा है। ‘बृहस्पति’ का अर्थ है “वाणी का स्वामी”, अतः यह गुरु का प्रतीक है (ध्यान रहे कि बृहस्पति देवों के गुरु हैं)। जब ममता संशय से हटकर गुरु में लग जाए, तो भरद्वाज रूपी ज्ञान का जन्म होता है। ज्ञान स्वतन्त्र और अखण्ड है, अतः एक बार जन्म लेने पर यह माता-पिता के बिना ही रहता है, अर्थात् ज्ञानोदय होने के पश्चात् मुक्त जीव सांसारिक ममता या गुरु के बिना ही स्वतन्त्र होकर रहता है, जबकि अज्ञान को संशय और ममता के आश्रय की आवश्यकता रहती है।

(५) गोतम/गौतम

गोदमो दमतोऽधूमोऽदमस्ते समदर्शनात्।

विद्धि मां गोतमं कृत्ये यातुधानि निबोध माम्॥

अक्षरार्थ

“दम से गोदम, समदर्शन से अधूम और तुम्हारे द्वारा अदम। हे कृत्ये, मुझे गोतम जानो। यातुधानि, मुझे जानो।”

भावार्थ

गोतम का तात्पर्य है कि “गोदम” शब्द का ही दूसरा रूप “गोतम” है।[34] दम के कारण वे ‘गोदम’ हैं, जिसका अर्थ है वह जो ‘गो’ अर्थात् इन्द्रियों का ‘दम’ अर्थात् दमन करने वाला है। गोदम होने के साथ-साथ वे ‘अधूम’ अर्थात् धूमरहित (धुएँ से हीन) उज्ज्वल अग्नि हैं। वे यातुधानी से कहते हैं मैं तुम्हारे द्वारा ‘अदम’ हूँ, अर्थात् तुम्हारे द्वारा मेरा दमन नहीं हो सकता। इसका कारण गोतम ‘समदर्शन’ बताते हैं, अर्थात् गोतम गुणी-दोषी सबको समान देखते हैं।[35] गोतम एक ही श्लोक में ‘गोदमो’, ‘दमतो’, ‘अधूमो’, ‘अदमः’, ‘सम-’, ‘मां’, ‘गोतमं’ और ‘माम्’ इन आठ मकारयुक्त ध्वनियों के प्रयोग से कृत्या को भ्रान्त करते हैं और वह उनके श्लोक का भावार्थ नहीं समझ पाती।

गूढार्थ

नीलकण्ठ की टीका में इस श्लोक का गूढ अर्थ ऐसे समझाया गया है कहा गया है। ‘गोदम’ शब्द में ‘गो’ शब्द इन्द्रिय के अतिरिक्त स्वर्ग और भूमि का भी वाचक है। ‘दमतः’ अर्थात् इन्द्रियों पर जय प्राप्त करने के कारण मैं ‘गोदम’ अर्थात् स्वर्ग और भूमि को वश करने में समर्थ हूँ। ‘अधूम’ अर्थात् निर्मल अग्नि के तुल्य हूँ इस कारण से ‘अदम’ अर्थात् किसी अन्य के द्वारा दमन करने योग्य नहीं हूँ। ‘ते’ अर्थात् तुममें ‘समदर्शनात्’ अर्थात् ब्रह्म का दर्शन इसका कारण है।[36] श्रुति के अनुसार ब्रह्मवेत्ता के अनैश्वर्य में देवता भी समर्थ नहीं होते हैं,[37] तो तुम निर्बल यातुधानी क्या कर सकती हो? ‘गोदम’ के दकार के स्थान पर तकार होकर ‘गोतम’ शब्द का निपातन होता है।

क्वचिदन्यतोऽपि

नीलकण्ठ एक पाठान्तर का उद्धरण देते हैं जिसमें प्रथमार्ध ऐसे है—‘गोभिस्तमो मम ध्वस्तं जातमात्रस्य देहतः’। नीलकण्ठ समझाते हैं कि माता के देह से जन्म लेते ही अर्थात् बिना तप किये ही मेरी गौओं अर्थात् सूर्यतुल्य किरणों से अन्धकार (अज्ञान) ध्वस्त हो गया।[38] अतः ‘गोतम’ शब्द का अर्थ है जिसकी ‘गो’ अर्थात् किरणें ‘अतम’ अर्थात् अन्धकार की विरोधी हैं।[39] अर्थात् अग्नि की भाँति मैं तुम्हारे द्वारा दुःस्पर्श हूँ अर्थात् मेरा स्पर्श भी करना तुम्हारे लिए असंभव है।

एक अन्य व्याख्या के अनुसार ‘गोतम’ शब्द का अर्थ है ‘सबसे श्रेष्ठ गौ’।[40] ‘गो’ (‘गौः) शब्द गाय, बैल, और साँढ इन तीनों का तो बोधक है ही, इसके अन्य अनेक अर्थ हैं।[41] यहाँ शाब्दिक अर्थ लेते हुए ‘गच्छति इति गौः’ अर्थात् “जो जाता है” वह ‘गो’ है। “ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः” (“जिन धातुओं का अर्थ गति है, उनका अर्थ ज्ञान भी है”) के अनुसार “जो जानता है” वह ‘गो’ है, और इस प्रकार ‘गोतम’ का अर्थ है “जाननेवालों में श्रेष्ठ”।

कुछ प्रकाशनों में ‘गोतम’ के स्थान पर ‘गौतम’ नाम प्राप्त होता है। वहाँ ‘गोतम’ शब्द से स्वार्थ में प्रज्ञादि ‘अण्’ प्रत्यय जानना चाहिये,[42] अर्थात् ‘गौतम’ शब्द का वही अर्थ है जो ‘गोतम’ का है। ‘गौतम’ शब्द का एक और अर्थ है “गोतम का वंशज (पुत्र-पौत्रादि)”।[43]

 () विश्वामित्र

विश्वेदेवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा।

विश्वामित्र इति ख्यातं यातुधानि निबोध माम्॥

अक्षरार्थ

“विश्वेदेव मेरे मित्र। गौओं का मित्र हूँ। हे यातुधानि, मुझे प्रसिद्ध विश्वामित्र ऐसा जानो।”

भावार्थ

‘विश्वेदेव’ शब्द वेदों में सभी देवताओं के लिये प्रयुक्त हुआ है। विश्वामित्र इङ्गित करते है कि ‘विश्वेदेवमित्र’ शब्द से मध्यम पद का लोप होने से ‘विश्वामित्र’ शब्द बना है।[44] विश्वामित्र सभी देवों के मित्र हैं इसलिये यातुधानी उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। फिर विश्वामित्र कहते हैं कि वे ‘गवाम्’ अर्थात् गौओं के मित्र हैं। ‘गो’ शब्द के अनेक अर्थों में से यहाँ ‘गो’ का अर्थ दिशा लेना चाहिये,[45] अर्थात् विश्वामित्र सभी दिशाओं के मित्र हैं, लक्षणा से सभी दिशाओं में व्याप्त विश्व के मित्र हैं। प्रश्न है कि विश्व + मित्र = ‘विश्वमित्र’ क्यों नहीं और ‘विश्वामित्र’ क्यों? अष्टाध्यायी के ‘मित्रे चर्षौ’ (६.१.१३०) सूत्र से ऋषि [का नाम] अभिधेय हो तो ‘मित्र’ शब्द से पहले आने वाले ‘विश्व’ शब्द को दीर्घ होता है और ‘विश्वामित्र’ ऐसा शब्द बनता है।[46] जब ऋषि का नाम न होकर “विश्व का मित्र” ऐसा अर्थ हो तो ‘विश्वमित्र’ शब्द ही बनता है। विश्वेदेव और गौओं का मित्र ‘विश्वामित्र’ कैसे हुआ इतना समझना तो दूर, यातुधानी व्याकरण न जानने के कारण यह भी नहीं समझ पाती कि ‘विश्वामित्र’ का सही विच्छेद विश्व + मित्र है, न कि विश्व + अमित्र।

गूढार्थ

नीलकण्ठ कहते हैं कि ‘विश्व’ शब्द का आधिदैविक अर्थ है ब्रह्माण्ड में स्थित सारे देव और आध्यात्मिक अर्थ है पिण्ड (शरीर) में स्थित सारी इन्द्रियाँ। ये दोनों जिसके मित्र हैं वह विश्वामित्र है। नीलकण्ठ ऐतरेय ब्राह्मण से ‘विश्वस्य ह वै मित्रं विश्वामित्र आस’ (६.२०) इस श्रुति का उद्धरण देते हैं।[47] फिर नीलकण्ठ ‘मित्रे चर्षौ’ सूत्र का उद्धरण देकर कहते हैं कि विश्वामित्र के श्लोक में ‘गवाम्’ का अर्थ है “इन्द्रियों के”।

इस प्रकार विश्वामित्र शब्द के आधिभौतिक (“सारा विश्व जिसका मित्र है”), आधिदैविक (“सारे देवता जिसके मित्र हैं”), और आध्यात्मिक (“सारी इन्द्रियाँ जिसकी मित्र हैं) तीनों अर्थ हैं।

क्वचिदन्यतोऽपि

यास्क के निरुक्त में कहा गया है कि विश्वामित्र का अर्थ है ‘सर्वमित्र’ (“सबका मित्र”), और ‘सर्व’ का तात्पर्य ‘संसृत’ अर्थात् संसार से है।[48]

() जमदग्नि

जाजमद्यजजानेऽहं जिजाहीह जिजायिषि।

जमदग्निरिति ख्यातं ततो मां विद्धि शोभने॥

अक्षरार्थ

“जाजमत् यज के जान में जिजायिषा थी यह जानो। अत एव, शोभने, मुझे प्रसिद्ध जमदग्नि जानो।”

गूढार्थ

कश्यप द्वारा उक्त श्लोक की भाँति जमदग्नि का श्लोक भी अत्यन्त दुर्गम है। जमदग्नि ऐसे क्लिष्ट धातु रूपों का प्रयोग करते हैं कि यातुधानी के लिए इसे समझना असंभव है। संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डितों के लिए भी व्याकरण में पारंगत हुए बिना यह श्लोक समझना असंभव है। अतः भावार्थ न देकर नीलकण्ठ की टीका के आधार पर गूढार्थ प्रस्तुत है।

नीलकण्ठ कहते हैं कि ‘जाजमत्’ (“बहुत या बार-बार खाने वाला”) का अर्थ है बार-बार भक्षण करने वाले देव।[49] एक-साथ अनेक यज्ञों में अनेक बार (पुनः पुनः) हविष्य का भक्षण करने के कारण देवता ‘जाजमत्’ हैं। ‘यज’ का अर्थ है “जिसमें देवताओं का यजन हो” अर्थात् अग्नि।[50] ‘जान’ का अर्थ है आविर्भाव।[51] इस प्रकार ‘जाजमद्यजजाने’ अर्थात् (“जाजमत् यज के जान में”) का अर्थ है देवताओं हेतु अग्नि के आविर्भाव में। ‘जिजायिषि’ का अर्थ है “मैंने जन्म लिया”। नीलकण्ठ के अनुसार शब्द ‘अजिजायिषि’ है,[52] जिसका शाब्दिक अर्थ है “[मैंने] बार-बार जन्म लेने की इच्छा की”, और इसका ही अडागम के अभाव में ‘जिजायिषि’ हुआ है। ‘जिजाहि’ का अर्थ है “[बार-बार] जानो”,[53] और ‘इह’ का अर्थ है “इस लोक में”। इस प्रकार प्रथमार्ध का अर्थ है “देवताओं की अग्नि के आविर्भाव में इस लोक में [मेरा] जन्म हुआ, ऐसा जानो”। नीलकण्ठ कहते हैं कि ‘जाजमदग्निमान्’ शब्द, जिसका विग्रह है “जाजमत् (देव) और अग्नि इसमें हैं”, ही ‘जमदग्नि’ शब्द बना है। जाजमत् + अग्नि + मत् इस अवस्था में ‘जाजमत्’ के प्रथम अक्षर का लोप होकर और ‘मत्’ प्रत्यय का लोप होकर जमत् + अग्नि इस अवस्था में संधि होकर ‘जमदग्नि’ शब्द बना है।[54] नीलकण्ठ कहते हैं कि क्योंकि देवता और अग्नि जमदग्नि में वास करते है इसलिये वे यातुधानी द्वारा धर्षण करने के योग्य नहीं हैं।

क्वचिदन्यतोऽपि

नीलकण्ठ एक और पाठ उद्धृत करते हैं, “जाजमद्यजजा नाम मृजा माऽह जिजायिषि”। उनके अनुसार इसका अर्थ है “देवताओं और अग्नि से उत्पन्न संपदाओं को निश्चित ही [वेद ने] मुझे नश्वर बताया है, [अतः] मैंने उनको जीत लिया है।” भाव यह है कि मैंने सब लोकों को जीत लिया है अतः तुम यातुधानी मुझे जीत नहीं सकती।

यास्क के निरुक्त के अनुसार ‘जमदग्नि’ का अर्थ नित्य प्रजमित (भक्षणशील) या प्रज्वलित अग्नि है।[55] वस्तुतः यङन्त रूप न लेकर ‘जमदग्नि’ नाम का ‘जमत् + अग्नि’ ऐसा एक सरल विग्रह भी संभव है। ‘जमत्’ का अर्थ है भक्षणशील,[56] अर्थात् आहुतियों को खानेवाला, या प्रज्वलित। अतः ‘जमदग्नि’ का सीधा अर्थ है “प्रज्वलित अग्नि”। क्योंकि जमदग्नि प्रज्वलित अग्नि के समान हैं, इसलिये वे ‘जमदग्नि’ हैं।[57]

उपसंहार

ये थे स्वयं सप्तर्षियों द्वारा अपने नाम को गूढ भाषा में समझाने वाले श्लोकों के अर्थ। लेख के आगामी और अन्तिम भाग में अरुन्धती, गण्डा, पशुसख, और शुनःसख के वेष में इन्द्र के वचनों का गूढ अर्थ बताया जाएगा, और इस सप्तर्षि-यातुधानी संवाद की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डाला जाएगा।

[क्रमशः]

अक्षरार्थReferences / Footnotes

[1] यह वर्णलोप पाणिनि के ‘पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्’ (६.३.१०९) सूत्र से समझा जा सकता है। ‘भवेद्वर्णागमाद्धंसः सिंहो वर्णविपर्ययात्, गूढोत्मा वर्णविकृतेर्वर्णलोपे पृषोदरः’ (एक प्रसिद्ध व्याकरण-कारिका)।

[2] ‘अत्रि’ शब्द में “अनचि च” (अ. ८.४.४६) इस पाणिनीय सूत्र से ‘त्’ का वैकल्पिक द्वित्व होता है।

[3] ‘स इदं सर्वं पाप्मनोऽत्रायत यदिदं किंच स यदिदं सर्वं पाप्मनोऽत्रायत यदिदं किंच तस्मादत्रयस्तस्मादत्रय इत्याचक्षत एतमेव सन्तम्’ (ऐ.आ. २.२.१.६)।

[4] ‘अरयो विद्यन्ते अस्मिन्’ इस अर्थ में ‘अरि’ शब्द से ‘अर्शआदिभ्योऽच्’ (५.२.१२७) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होता है। ‘अरि’ + ‘अ’ इस अवस्था में भसंज्ञा के कारण ‘यस्येति च’ (६.४.१४८) सूत्र से ‘अरि’ के इकार का लोप होकर ‘अर’ ऐसा शब्द निष्पन्न होता है।

[5] ‘अत्ति इति अत्’ ऐसे समझना चाहिये। ‘अदँ (अद्) भक्षणे’ धातु से कर्ता अर्थ में ‘क्विप् च’ (३.२.७६) से ‘क्विप्’ प्रत्यय और सर्वापहारी लोप होकर ‘अद्’ शब्द व्युत्पन्न होता है। विभक्तिकार्य होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ‘हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्सुतिस्यपृक्तं हल्’ (६.१.६८) से ‘सुँ’ विभक्ति का लोप होकर ‘वाऽवसाने’ (८.४.५६) से वैकल्पिक चर्त्व होकर ‘अद्’ और ‘अत्’ ये दो रूप बनते हैं। अद् + त्रि इस अवस्था में ‘खरि च’ (८.४.५५) से नित्य चर्त्व होकर ‘अत्त्रि’ एक ही रूप बनता है।

[6] ‘एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना, जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्’ (भ.गी. ३.४३)।

[7] ‘अत्रिं शत्रूणामन्नानां वा भक्षकम्’ (ऋ.वे.सं. सा.भा. २.८.५)।

[8] ‘फलाद्यत्तीति अत्रिः’, ‘अदेस्त्रिन्’ (उ.सू. ४.७०) सूत्र पर नारायण की टीका।

[9] यहाँ भी ‘पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्’ (अ. ६.३.१०९) सूत्र से वर्णविकृति समझनी चाहिये।

[10] ‘प्रियस्थिरस्फिरोरुबहुलगुरुवृद्धतृप्रदीर्घवृन्दारकाणां प्रस्थस्फवर्बंहिगर्वर्षित्रब्द्राघिवृन्दाः’ (अ. ६.४.१५७) सूत्र से ‘उरु + इष्ठ’ इस अवस्था में ‘उरु’ को ‘वर्’ आदेश होकर ‘वरिष्ठ’ शब्द निष्पन्न होता है।

[11] जो वास करता है वह ‘वस’ है। ‘√वस्’ (“वास करना, रहना”) धातु से पचादि ‘अच्’ प्रत्यय करके ‘वस’ शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है “रहने वाला”। ‘वस’ से ‘अतिशायने तमबिष्ठनौ’ (अ. ५.३.५५) सूत्र से ‘इष्ठन्’ प्रत्यय होकर ‘वस इष्ठ’ इस अवस्था में ‘टेः’ (अ. ६.४.१५५) से टिलोप होकर ‘वसिष्ठ’ शब्द बनाता है।

[12] ‘कतमे वसव इति, अग्निश्च पृथिवी च वायुश्चान्तरिक्षं चादित्यश्च द्यौश्च नक्षत्राणि चैते वसव एतेषु हीदं सर्वं वसु हितमेते हीदं सर्वं वासयन्ते तद्यदिदं सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति’ (श.ब्रा. १४.६.९.४)।

[13] टीका में समझाया गया है कि ‘वसुमत् + इष्ठ’ इस अवस्था में ‘मत्’ का लोप होकर फिर टिलोप होकर ‘वसिष्ठ’ शब्द उत्पन्न होता है। ‘मत्’ का लोप ‘विन्मतोर्लुक्’ (अ. ५.३.६५) सूत्र से और टिलोप ‘टेः’ (अ. ६.४.१५५) सूत्र से होता है।

[14] नीलकण्ठ के अनुसार ‘वस्तृ’ शब्द से ‘इष्ठन्’ प्रत्यय हुआ है। ‘वस्तृ इष्ठ’ इस अवस्था में ‘तृ’ का ‘टेः’ (अ. ६.४.१५५) से लोप होकर ‘वसिष्ठ’ शब्द उत्पन्न हुआ है।

[15] “वसिष्ठः, पुं, (वशिष्ठः, पृषोदरादित्वात् शस्य सः) वशिष्ठमुनिः” (शब्दकल्पद्रुम)।

[16] ‘भार्यां गच्छन्ब्रह्मचारी सदा भवति चैव ह’ (भा. १३.१४०.११) के अनुसार केवल ऋतुकाल में अपनी भार्या के साथ समागम करने वाला गृहस्थ ब्रह्मचारी होता है। यह वशी गृहस्थ का एक लक्षण है।

[17] ‘तं देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वसिष्ठ इति तं यद्देवा अब्रुवन्नयं वै नः सर्वेषां वसिष्ठ इति तस्माद्वसिष्ठस्तस्माद्वसिष्ठ इत्याचक्षत एतमेव सन्तम्’ (ऐ.आ. २.२.२.२)।

[18] ‘कशा’ का अर्थ होता है घोड़े को मारने वाली रज्जु (कोड़ा)। जो कशा के योग्य है वह ‘कश्य’ है। ‘कशामर्हति इति कश्यः’ इस अर्थ में ‘दण्डादिभ्यः’ (पा॰सू॰ ५.१.६६) सूत्र से ‘कशा’ से ‘यत्’ प्रत्यय होकर भत्व के कारण ‘यस्येति च’ (अ. ६.४.१४८) से अवर्ण का लोप होकर ‘कश्य’ शब्द उत्पन्न होता है। अमरकोश के अनुसार ‘कश्य’ का अर्थ है घोड़े का मध्य भाग (‘कश्यं तु मध्यमश्वानाम्’, अ.को. २.८.४७)।

[19] ‘इन्द्रियाणि हयानाहुः’ (क.उ. १.३.४)।

[20] ‘कश्यानि इन्द्रियाणि विद्यन्ते अस्मिन्’ इस अर्थ में ‘कश्य’ शब्द से ‘अर्शआदिभ्योऽच्’ (५.२.१२७) सूत्र से ‘अच्’ प्रत्यय होकर भसंज्ञा के कारण ‘यस्येति च’ (६.४.१४८) सूत्र से ‘कश्य’ के अवर्ण का लोप होकर “शरीर” अर्थ में ‘कश्य’ शब्द निष्पन्न होता है।

[21] ‘कश्यानि पाति रक्षति इति कश्यपः’ ऐसा नीलकण्ठ कहते हैं। यहाँ ‘√पा रक्षणे’ धातु अभिप्रेत है।

[22] ‘कश्यानि [=कश्यैः] पिबति भुङ्क्ते इति कश्यपः’ ऐसा नीलकण्ठ कहते हैं। यहाँ ‘√पा पाने’ धातु अभिप्रेत है।

[23] ‘कश्यानि पाययति शोषयति इति कश्यपः’ ऐसा नीलकण्ठ कहते हैं। यहाँ ‘√पै शोषणे’ धातु अभिप्रेत है।

[24] नीलकण्ठ कहते हैं ‘कौ वमति वर्षति इति कुवमः’, अर्थात् जो ‘कु’ (=पृथिवी) पर ‘वमन’ (=वर्षा) करता (=करवाता) है वह ‘कुवम’ है। मनुस्मृति में कहा गया है ‘आदित्याज्जायते वृष्टिः’ (म.स्मृ. ५.७६) अर्थात् “सूर्य से वृष्टि उत्पन्न होती है”। इस प्रकार नीलकण्ठ ‘कुवम’ का अर्थ आदित्य या सूर्य बताते हैं।

[25] श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, शत्रु, और उरुक्रम ये बारह आदित्य हैं । ‘विवस्वानर्यमा पूषा त्वष्टाऽथ सविता भगः, धाता विधाता वरुणो मित्रः शत्रुरुरुक्रमः’ (भा.पु. ६.६.३९)।

[26] कश्यप द्वादश आदित्य के साथ-साथ सभी देवताओं के भी पिता हैं। ‘आदित्य’ का शाब्दिक अर्थ है “अदिति का पुत्र”, ‘दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः’ (४.१.८५) सूत्र से ‘अदिति’ शब्द से ‘ण्य’ प्रत्यय होकर ‘आदित्य’ शब्द बना है। देवता कश्यप और अदिति के पुत्र हैं, और इसलिये देवता-सामान्य के लिये भी ‘आदित्य’ शब्द व्यवहृत होता है।

[27] यहाँ ‘देहलीदीपकन्याय’ से ‘कश्यपो द्विजः’ का ‘कुलं कुलम्’ और ‘कुवमः कुवमः’ दोनों के साथ अन्वय है ऐसा समझना चाहिये।

[28] ‘√काशृँ दीप्तौ’ इस धातु से ‘ऋहलोर्ण्यत्’ (३.१.१२४) सूत्र से ‘कृत्यल्युटो बहुलम्’ (३.३.११३) सूत्र के अनुसार बहुलता से कर्ता अर्थ में ‘ण्यत्’ प्रत्यय होकर ‘काश्य’ अर्थात् “दीप्तिमान्, दीप्त, दीप्ति से युक्त” यह शब्द निष्पन्न होता है।

[29] ‘एष उ एव बिभ्रद्वाजः प्रजा वै वाजस्ता एष बिभर्ति यद्बिभर्ति तस्माद्भरद्वाजस्तस्माद्भरद्वाज इत्याचक्षत एतमेव सन्तम्’ (ऐ.आ. २.२.२.१)।

[30] ‘बिभ्रत्’ शब्द ‘√डुभृञ् धारणपोषणयोः’ धातु से ‘शतृ’ प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ है “धारण या पोषण करता हुआ”। ‘भरत्’ शब्द ‘√भृञ् भरणे’ धातु से ‘शतृ’ प्रत्यय होकर निष्पन्न होता है। इसका अर्थ ‘भरण करता हुआ’ ऐसा समझना चाहिये। ‘बिभ्रद्वाज’ और ‘भरद्वाज’ शब्दों में ‘राजदन्तादिषु परम्’ (अ. २.२.३०) सूत्र के अनुसार ‘वाज’ शब्द का परनिपात समझना चाहिये। ‘बालमनोरमा’ के अनुसार राजदन्तादिगण आकृतिगण है।

[31] ‘वाज’ का अर्थ ‘वेग’ है, इसीलिये घोड़े को संस्कृत में ‘वाजी’ (वेगवान्) भी कहते हैं।

[32] नीलकण्ठ की टीका (और संस्कृत कोशों) के अनुसार ‘द्विर्जायते इति द्विजः’ और ‘द्वाभ्यां जायते इति द्वाजः’ ये दोनों शब्द भिन्न हैं। ‘द्विज’ का अर्थ है “दो बार जन्म लेने वाला”—माता के गर्भ से पहली बार और उपनयन संस्कार के समय दूसरी बार। जबकि ‘द्वाज’ का अर्थ है ‘दो से जन्म लेने वाला”, अर्थात् दो वर्णों से जन्म लेने वाला वर्णसंकर या एक पुरुष के क्षेत्र (पत्नी) में दूसरे पुरुष के वीर्य से उत्पन्न क्षेत्रज पुत्र।

[33] श्रीमद्भागवत पुराण के नवम स्कन्ध का २०वाँ अध्याय।

[34] यहाँ भी ‘पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्’ (अ. ६.३.१०९) सूत्र से वर्णविकृति समझनी चाहिये।

[35] ‘विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि, शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः’ (भ.गी. ५.१८)।

[36] नीलकण्ठ ‘ते’ का अर्थ ‘त्वयि’ बताते हैं। यहाँ ‘सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेयाडाड्यायाजालः’ (अ. ७.१.३९) सूत्र से छान्दस प्रयोग जानना चाहिये जिसमें सप्तमी एकवचन (‘ङि’) के स्थान पर षष्ठी एकवचन (‘ङस्’) हुआ है। ‘सम’ का ‘ब्रह्म’ अर्थ देने के समर्थन में नीलकण्ठ ‘निर्दोषं हि समं ब्रह्म’ (भ.गी. ५.१९) गीता का यह वचन उद्धृत करते हैं।

[37] नीलकण्ठ ‘तस्य ह न देवाश्च नाभूत्या ईशते आत्मा ह्येषां स भवति’ (बृ.उ. १.४.१०) इस श्रुति को उद्धृत करते हैं।

[38] ‘गोभिर्ध्वस्तं तमो यस्य’ ऐसे विग्रह में मध्यमपदलोपी बहुव्रीहि समास जानना चाहिये।

[39] यहाँ ‘गोतम’ शब्द में अकारप्रश्लेष है, अर्थात् यह शब्द ‘गोऽतम’ है ऐसा नीलकण्ठ का भाव है। साथ ही, ‘अतमाः गावः यस्य’ इस विग्रह में ‘सप्तमीविशेषणे बहुव्रीहौ’ (२.२.३५) इस सूत्र से विशेषण ‘अतम’ का पूर्वनिपात होकर ‘अतमगु’ ऐसा समास होना चाहिये था, परन्तु ‘राजदन्तादिषु परम्’ (अ. २.२.३०) सूत्र के अनुसार ‘अतम’ शब्द का परनिपात समझना चाहिये। ‘बालमनोरमा’ के अनुसार राजदन्तादिगण आकृतिगण है। गो + अतम इस अवस्था में ‘सर्वत्र विभाषा गोः’ (अ. ६.१.१२२) सूत्र से ‘गो’ को विकल्प से प्रकृतिभाव होकर ‘गोऽतम’ ऐसा रूप बनता है।   

[40] ‘अतिशयेन गौः’ (‘गोतम’ शब्द पर वाचस्पत्यम्)।

[41] अमरकोष, मेदिनीकोष, और केशव के कोष के अनुसार ‘गो’ के अर्थ हैं स्वर्ग, बाण, गाय, वाणी, वज्र, दिशा, नेत्र, किरण, भूमि, जल, रोम, सूर्य, आदि।

[42] ‘प्रज्ञादिभ्यश्च’ (५.४.३८) इस सूत्र से। ‘प्रज्ञ एव प्राज्ञः’, इसी प्रकार ‘गोतम एव गौतमः’।

[43] ‘गोतमस्य अपत्यं पुमान्’ इस विग्रह में ‘ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च’ (४.१.११४) सूत्र से ‘गोतम’ शब्द से ‘अपत्यसामान्य’ अर्थ में ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘तद्धितेष्वचामादेः’ (७.२.११७) से आदिवृद्धि होकर और भत्व के कारण टिलोप होकर ‘गौतम’ शब्द निष्पन्न होता है। ‘गोतमस्य गोत्रापत्यं पुमान्’ इस विग्रह में भी इसी सूत्र से गोत्रापत्य अर्थ में भी ‘गौतम’ शब्द ही होता है। आगे के वंशजों के लिये ‘अत इञ्’ (४.१.९२) से ‘गौतम’ से ‘इञ्’ प्रत्यय प्राप्त होकर ‘ण्यक्षत्रियार्षञितो यूनि लुगणिञोः’ (२.४.५८) से ‘इञ्’ का लुक् होकर ‘गौतम’ ही शेष रहता है।

[44] ‘शाकपार्थिवादीनां सिद्धय उत्तरपदलोपस्योपसङ्ख्यानम्‌’ (वार्त्तिक २.१.६०) से ‘देव’ शब्द का लोप और फिर ‘विश्वे’ शब्द में ‘जस्’ विभक्ति का ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ (२.४.७१) से लुक् जानना चाहिये।

[45] अमरकोष, मेदिनीकोष, और केशव के कोष के अनुसार ‘गो’ के अर्थ हैं स्वर्ग, बाण, गाय, वाणी, वज्र, दिशा, नेत्र, किरण, भूमि, जल, रोम, सूर्य, आदि।

[46] विश्वामित्र शब्द अतिप्राचीन है और पाणिनि ने पूर्ववर्ती व्याकरणों के आधार पर ही ‘मित्रे चर्षौ’ (६.१.१३०) सूत्र बनाया होगा।

[47] ऐतरेय आरण्यक में भी कहा गया है, ‘तस्येदं विश्वं मित्रमासीद्यदिदं किंच तद्यदस्येदं विश्वं मित्रमासीद्यदिदं किंच तस्माद्विश्वामित्रस्तस्माद्विश्वामित्र इत्याचक्षत एतमेव सन्तम्’ (ऐ.आ. २.२.१.४)।

[48] ‘विश्वामित्रः सर्वमित्रः सर्वं संसृतम्’ (नि. २.२४)।

[49] नीलकण्ठ बताते हैं कि ‘√जमुँ भक्षणे’ धातु से यङ्लुक् होकर शतृ प्रत्यय होने पर ‘जाजमत्’ शब्द निष्पन्न होता है। संस्कृत की ‘√जमुँ भक्षणे’ धातु से ही गुजराती में જમવું (जमवुं) क्रिया आयी है, जिसका अर्थ है “भोजन करना”। “જમે છે” (जमे छे) = भोजन करता/करती है। “જમી લીધું” (जमी लीधुं) = [क्या आपने] भोजन कर लिया? इसी प्रकार भोजन को कहते हैं જમવાનું (जमवानुं)। भोजन बन गया हो तो कहते हैं “જમવાનું તૈયાર છે” (जमवानुं तैयार छे)। दाहिने हाथ को कहते हैं “જમણો હાથ” (जमणो हाथ), अर्थात् वह हाथ जिससे भोजन किया जाये।

[50] नीलकण्ठ का वचन है ‘इज्यन्ते देवा अस्मिन्निति यजोऽग्निः’।

[51] ‘√जनीँ प्रादुर्भावे’ धातु से ‘भावे’ (३.३.१८) सूत्र से भाव में ‘घञ्’ प्रत्यय होकर ‘जान’ शब्द की सिद्धि होती है।

[52] नीलकण्ठ कहते हैं कि ‘√जनीँ प्रादुर्भावे’ धातु से पहले ‘यङ्’ प्रत्यय होकर फिर ‘सन्’ होकर लुङ् लकार के उत्तम पुरुष एकवचन में ‘अजिजायिषि’ रूप बनता है। आर्षवचन होने से जमदग्नि के श्लोक में प्रयुक्त ‘जिजायिषि’ में प्रारम्भिक ‘अ’ का अभाव है।

[53] नीलकण्ठ के अनुसार ‘√ज्ञा अवबोधने’ धातु से यङ्लुक् होकर धातु को ‘जा’ आदेश होकर मध्यम पुरुष एकवचन में ‘जिजाहि’ रूप बना है।

[54] अथवा ‘जाजमत् + अग्नि + मत्’ से ‘मत्’ के लोप के स्थान पर ऐसा भी समझा जा सकता है कि ‘[जा]जमत् + अग्नि’ = ‘जमदग्नि’ शब्द से अर्शआदि ‘अच्’ प्रत्यय हुआ है।

[55] ‘जमदग्नयः प्रजमिताग्नयो वा प्रज्वलिताग्नयो वा’ (नि. ७.२४)।

[56] ‘√जमुँ भक्षणे’ धातु से ‘शतृ’ प्रत्यय लेकर ‘जमत्’ शब्द उत्पन्न होता है।

[57] देखें ‘जमदग्नि’ शब्द पर ‘शब्दकल्पद्रुम’ और ‘वाचस्पत्य’।

About Author: Nityanand Misra

Nityanand Misra is a finance professional. editor & author based in Mumbai. He is an alumnus of IIM Bangalore and works in the investment banking industry. He writes on Indian literature, arts, music and has authored seven books.

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