अयोध्या विवाद और सती प्रथा

राजीव मल्होत्रा और मीनाक्षी जैन के संवाद पर आधारित लेख - राजीव मल्होत्रा द्वारा वर्णित – भाग २

इरफ़ान हबीब पूर्व-विख्यात वामपन्थी विद्वानों में से एक है जिन्होंने अयोध्या विवाद पर बहुत कुछ लिखा है। इस विषय पर उनका लेखन बहुत विवादास्पद है। उन्होंने ऐसे हर प्रमाण को नष्ट किया है, अथवा फेंक देने, रद्द करने या अस्वीकार करने का प्रयास किया है, जो हिन्दुत्व के इस दृष्टिकोण को सत्यापित करता है कि इस स्थल पर पहले एक मन्दिर था। मीनाक्षी जैन इस बात को इंगित करती हैं कि वामपन्थी इतिहासकारों द्वारा जिस प्रत्येक बिन्दु की तुरही बजाई गई थी, उसे न्यायालय और गम्भीर विद्वानों द्वारा दोषपूर्ण पाया गया था। वामपन्थी इतिहासकारों के अनुसार, अयोध्या विवाद का विनिर्माण उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने अपनी ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति के अन्तर्गत किया था। वे दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि उससे पहले उस स्थल पर किसी भी मन्दिर का कोई प्रमाण नहीं है और उन्होंने कहा कि राम की पूजा स्वयम् में एक बहुत ही देर से हुई घटना थी जो १८वीं या १९वीं शताब्दी से अधिक पहले की नहीं थी।

मीनाक्षी जैन दृढ़तापूर्वक कहती हैं कि ऐसे दस्तावेज़ उपलब्ध हैं जो वामपन्थी दृष्टिकोण को पूरी तरह से साखहीन बताते हैं। अंग्रेजों ने महान विद्रोह के बाद १८५८ में अवध पर शासन करना प्रारम्भ किया था और उस समय के बाद से, अयोध्या विवाद पर सभी रिकॉर्ड्स को फ़ैज़ाबाद जिला न्यायालय में रखा गया था। यहाँ तक कि आज भी, लगभग १५० वर्ष के बाद, दस्तावेज़ बिना हानि पहुँचे बचे गए हैं। पहला प्रासंगिक दस्तावेज़ वर्ष १८५८ से है और यह अवध के थानेदार द्वारा दायर की गई एक प्राथमिकी है कि २५ सिख बाबरी मस्जिद के अन्दर चले गए हैं और उन्होंने हवन और पूजा प्रारम्भ की है। उसके दो दिन बाद, मुतावली या बाबरी मस्जिद के अधीक्षक ने भी फ़ैज़ाबाद अदालत में भी एक मामला दायर किया जिसमें वो व्यक्त करते हैं कि ये सिख मस्जिद के परिसर में प्रवेश कर गए थे, उन्होंने कोयले से मस्जिद की दीवारों पर राम का शब्द लिखा था और वो पूजा और हवन कर रहे थे। वह इस तथ्य को भी दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि इस घटना से पहले, हिन्दू बाबरी मस्जिद के परिसर पर अधिकार और इसके नियन्त्रण में पहले से ही थे जिसे वे भगवान राम के जन्म स्थान के रूप में मानते थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसे मामले पर प्रभाव डालने वाले एक महत्वपूर्ण तथ्य के रूप में माना था, कि एक मुस्लिम स्रोत था जिसका कहना है कि १८५८ से, हिन्दू परिसर के अन्दर और बाहर हैं।

१८५८ से लेकर १९४९ तक, जब मूर्ति को बाबरी मस्जिद में रखा गया था, अयोध्या मुद्दे पर हिन्दू और मुस्लिमों के बीच अनेक अदालती मामले हुए हैं। १८८८ में, बाबरी मस्जिद के मुतावली ने अदालत में एक मामला दायर किया था, यह व्यक्त करते हुए कि तब तक, राम नवमी और कार्तिक मेले के दौरान, भारी भीड़ को समायोजित करने के लिए, हिन्दू बाबरी मस्जिद के अन्दर प्रसाद की दुकान, फूलों की दुकानें, फलों की दुकानें लगाया करते थे और आमदनी को बराबर बाँटते थे जो दोनों पक्षों के लाभ के लिए काम करता था। परन्तु अचानक उस वर्ष जन्मस्थान के महन्त ने बाबरी मस्जिद के अधिकारियों से परामर्श किए बिना, साझा करने के आधार को एकतरफा तौर पर बदल दिया था, जिन्होंने (बाबरी मस्जिद के अधिकारियों) ब्रिटिश अधिकारियों से अनुरोध किया था कि कृपया पुराने ५०-५० साझा करने के आधार को दोबारा बहाल करें।

अयोध्या विवाद पर मुस्लिम लेखकों द्वारा हाल ही में दो लेखन हैं। एक के.के. मोहम्मद की आत्मकथा है, जो एएसआई के साथ एक पुरातत्वविद् थे। उनके अनुसार, जब १९८९ में विवाद उठा था, तो मुसलमानों के बीच एक बहुत ही गम्भीर विचार था कि स्थल को हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए क्योंकि यह उनके लिए इतने अधिक महत्व का था। परन्तु वामपन्थी इतिहासकारों के एक समूह ने मुसलमानों  को इस बात के लिए राज़ी किया कि मुसलमानों का एक मजबूत मामला है और इसे अदालत में लड़ना चाहिए और इसने पक्षों को इस समस्या के किसी सौहार्दपूर्ण समाधान को खोजने से रोक दिया। इसलिए, यह वामपन्थी हैं, जिन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच एक दरार बनाई। दोनों समुदाय इसे सुलझाने के लिए पर्याप्त तैयार थे।

एक और विवरण किशोर कुणाल द्वारा है, जो प्रधानमन्त्रियों वी पी सिंह और चन्द्रशेखर के आधीन ऑफ़िसर ऑन स्पेशल ड्यूटी थे, जो इस बात की बहुत सारी आन्तरिक जानकारी प्रदान करता है कि बहुत सारे मुद्दों पर वामपन्थियों ने कैसे गुमराह किया।

ऐसा कोई मध्ययुगीन स्रोत नहीं है जो यह सुझाव देता है कि बाबरी मस्जिद का निर्माण बंजर ज़मीन पर किया गया था। ये सब स्पष्ट रूप से कहते हैं कि राम मन्दिर को ध्वस्त किया गया था और उस स्थल पर एक मस्जिद खड़ी की गई थी। सोलहवीं शताब्दी से फारसी स्रोत अयोध्या को राम की जन्मभूमि के रूप में सन्दर्भिंत करने से भरे हुए हैं। सोलहवीं शताब्दी में अबुल फ़ज़ल लिखते हैं कि अयोध्या पवित्र है क्योंकि यह राम के जन्म का पवित्र स्थान है। फिर १६०० में, अकबर ने लगभग छः बीघा ज़मीन हनुमान टीला को दी थी, वहाँ पर जो कुछ भी वो चाहते थे, उसे बनाने के लिए। फ़ारसी में लिखे गए उस अनुदान का लगभग १७२३ में नवीनीकरण किया जाना था और लेखक उल्लेख करता है कि वह अकबर के आदेश के अन्तर्गत और राम के जन्म की भूमि से, उस अनुदान को लिख रहा है। उसके बाद, बाबरी मस्जिद के मुतावली ने १८५० के दशक में दो याचिकाओं को ब्रिटिश को भेजा और दोनों याचिकाओं में वह अपने स्थान का उल्लेख मस्जिद-ए-जन्मस्थान के रूप में करते हैं, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘जन्म-स्थान पर मस्जिद’ है। इतिहास के ऐसे अनेक खाते हैं जिन्हें १८वीं शताब्दी में मुस्लिमों द्वारा लिखा गया था जो सभी इस स्थल को जन्मस्थान कहते हैं। मोहम्मद शोएब द्वारा लिखी गई एक रिपोर्ट है जिन्होंने ऐसे शिलालेखों के बारे में लिखा जो उन्हें बाबरी मस्जिद में मिले थे। उनके अनुसार, जिन तीन शिलालेखों का उन्होंने अध्ययन किया था, उनमें से एक बहुत स्पष्ट रूप से कहता है कि यह मस्जिद एक राम मन्दिर के स्थल पर बनाई गई है। परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि किसी और व्यक्ति ने उस शिलालेख को नहीं देखा है और यह समझना रुचिकर होगा कि इसे कब हटाया गया था और इस रिपोर्ट को सौ वर्षों से अधिक के लिए सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया था।

एक शिलालेख के बारे में भी विवाद है, जिसे, वामपन्थी ऐसा कहते हैं, इस स्थल पर धोखे से रखा गया था। ६ दिसम्बर १९९२ को, जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया था, तब ५ फीट x २ फीट का एक बड़ा शिलालेख मस्जिद की दीवारों से बरामद किया गया था। उस शिलालेख को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेशों पर एएसआई के पुरालेख विभाग द्वारा कूटमुक्त किया गया था। शिलालेख स्पष्ट रूप से यह व्यक्त करता है कि यह एक विष्णु-हरि मन्दिर है और मन्दिर के सभी विवरण देता है, इसे किसने बनाया था, इसे कब बनाया गया था और इस तरह से अन्य। यह अकाट्य प्रमाण था कि मन्दिर वास्तव में वहाँ था और यह कि विवादित ढाँचे का निर्माण मन्दिर को ध्वस्त करने के बाद किया गया था। परन्तु वामपन्थी इतिहासकारों, विशेष रूप से इरफ़ान हबीब, ने जोर देकर कहा कि यह “विष्णु-हरि” शिलालेख बाबरी मस्जिद के मलबे से बरामद नहीं किया गया था, परन्तु लखनऊ संग्रहालय से चोरी किया गया था और वहाँ पर जान-बूझ कर रखा गया गया था। इसलिए यह एक रुचिकर प्रश्न तक ले जाता है कि इस शिलालेख को विवादित स्थल पर हजारों लोगों और मीडिया की उपस्थिति में उस दिन जान-बूझ कर कैसे रखा जा सका। और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप से, यह इस विवादास्पद प्रश्न को सम्बोधित करने का प्रयास नहीं करता है कि शिलालेख को लखनऊ संग्रहालय से जब चोरी किया गया था।

किशोर कुणाल, जो एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी और संस्कृत के विद्वान हैं, प्रधानमंत्री कार्यालय में एक बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे और उन्होंने लखनऊ संग्रहालय से उस शिलालेख का एक चित्र हासिल किया था और लखनऊ संग्रहालय की डायरी प्रविष्टियाँ को देखने में कामयाब रहे, जो यह कहती थीं कि यह शिलालेख १९५३ में लखनऊ संग्रहालय में रखा गया था और यह शिलालेख का वर्णन करता है। इसलिए इस शिलालेख का चित्र जो लखनऊ संग्रहालय में है, वास्तव में एक अन्य मन्दिर, त्रेताकथा मन्दिर, से है और यह विष्णु-हरि शिलालेख के विवरण से मेल नहीं खाता है। ऐसे स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद, वामपन्थी इतिहासकारों ने इन घटनाओं पर कभी भी प्रतिक्रिया नहीं दी और ऐसे किसी भी प्रमाण को पूरी तरह से अनदेखा किया जो उनकी कहानी के विरुद्ध था। मीनाक्षी जैन के अनुसार, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बयानों के आधार पर, यह स्पष्ट है कि अयोध्या विवाद में सम्मिलित इन वामपन्थी-विद्वानों में से ज्यादातर इतिहास की मूल बातों तक के बारे में पूरी तरह से अज्ञानी थे। छः विद्वान, इरफ़ान हबीब, आर एस शर्मा, रोमिला थापर, डी एन झा, सूरज भान और मण्डल सबसे आगे थे, जिनमें इरफ़ान हबीब सबसे सक्रिय थे।

इन वामपन्थी विद्वानों ने इस विवाद को समुदायों के बीच एक लड़ाई में बदल दिया है और अब भले ही वे धुँधले हो सकते हैं, समुदाय इससे परे जाने में जल्दी से सक्षम नहीं होने वाले हैं। उन्होंने इसे वोट-बैंक के निहितार्थों वाले एक राजनीतिक मुद्दे में लयबद्ध कर दिया है और इस प्रकार, अयोध्या का कोई भी उल्लेख जोशीली झड़पों और यहाँ तक कि दंगे होने तक ले जाता है। मुस्लिम और हिन्दू समुदायों के बीच, यह प्रतिष्ठा और लाज रखने का एक मामला बन गया है जिसका कोई हल नज़र नहीं आता है। फिर भी, मीनाक्षी जैन के अनुसार, कम से कम वैचारिक रूप से तो लड़ाई जीत ली गई है, क्योंकि भारत में वामपन्थी इतिहासकारों की अगली पीढ़ियाँ बाबरी मस्जिद विवाद में स्वयम् को सम्मिलित करने के लिए अब और इच्छुक नहीं हैं। वह कहती हैं:

इस परिस्थिति में जो विमोचनकारी गुण है, मेरे अनुसार, वह यह है कि वामपन्थी इतिहासकारों की अगली अधिक युवा पीढ़ी के पास इस तरह की लड़ाई के लिए भूख नहीं है। इसलिए वे अपने शोध को गैर-विवादास्पद मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। इसलिए, एक मूलभूत अर्थ में, मुझे महसूस होता है कि लड़ाई वास्तव में जीत ली गई है… परन्तु अगली पीढ़ी के बीच ऐसा कोई नहीं होगा जिसमें दृढ़ता हो… परन्तु शिक्षाविदों के बीच, युवा अगली पीढ़ी में इस विचारधारा की लड़ाई को आगे ले जाने के लिए इरफ़ान हबीब, आर एस शर्मा और रोमिला थापर जैसे लोगों की दृढ़ता और साहस नहीं है। वे इसे सुरक्षापूर्वख खेलना चाहते हैं।

सती

स्वाभाविक रूप से हर किसी ने सती के बारे में सुना है और मुझे यह व्याख्या नहीं करनी है कि यह क्या है, क्योंकि इसे हमारे मनों में हिन्दू धर्म के एक अन्तर्निहित रूप से बुरे पक्ष और इसे परिभाषित करने वाले गुण के रूप में ड्रिल किया गया है। यह कहा जाता है कि लॉर्ड विलियम बेण्टिक के स्मारकीय सामाजिक सुधारों में से एक सती का उन्मूलन था। मीनाक्षी जैन ने इस विषय का गहराई में अध्ययन किया है और सती के सभी सम्भव अभिलेखगत प्रमाण, सती के मूर्तिगत प्रमाण और सती के आँखों देखे साक्ष्य के बयान की परीक्षा की है और प्रमाण के आधार पर वे कुछ चकित करने वाले दावे करती हैं।

सती का आँखों देखे गवाह का पहला खाता तब का है, जब सिकन्दर घर वापस लौट रहा था। उनकी सेना की टुकड़ियों में से एक में एक भारतीय जनरल शशिगुप्त था जिसकी अचानक मृत्यु हो गई और यूनान के सैनिक यह देखकर चकित हो गए कि उनकी दो विधवाएँ आईं और वे दोनों आपस में लड़ रही हैं कि उनके साथ अग्निदाह किसे करना चाहिए। यह सती का पहला रिकॉर्ड किया गया आँखों देखा साक्ष्य है। उसके बाद, सती का अगला प्रमाण ५वीं शताब्दी के मध्य प्रदेश से और उसके बाद १४वीं शताब्दी के यात्री इब्न बतूता से है। इसलिए सती के आँखों देखे गवाहों के खातों की वास्तविक घटनाएँ बहुत कम हैं।

परन्तु जब भारत के नए मार्ग को वास्को डी गामा द्वारा खोजा गया, तब बहुत से विदेशी यात्रियों ने भारत आना और भारत के बारे में लिखना प्रारम्भ किया क्योंकि भारत के बारे में और अधिक जानने के लिए यूरोप में भारी माँग थी। भारतीय यात्रा-वृत्तांतों के लिए विशाल बाजार की इस माँग को पूरा करने के लिए, लेखकों ने सबसे दुर्लभ और सबसे विचित्र प्रथाओं पर ध्यान केन्द्रित करना प्रारम्भ किया। सती उनमें से एक हो गई और इस तरह यह उनके खातों का मुख्य भाग बन गई। फिर भी, इन यूरोपीय यात्रियों के खातों की क़रीबी परीक्षा से, यह स्पष्ट है कि वे एक ही तरह के शब्दों में लिखते हैं और एक-दूसरे के खातों को बस फिर से प्रस्तुत किया है। इसलिए, इस पूरे मिथक को पूर्वी देशों की विचित्र कहानियों के लिए व्यावसायिक माँग को पूरा करने के लिए बनाया गया था, और ऐसे लोगों की वास्तविक संख्या जिन्होंने वास्तव में सती को देखा था, बहुत कम है। इसके अलावा, खातों से कोई व्यक्ति यह पहचान करने में अक्षम है कि भारत के किस भाग में सती की घटनाएँ हो रही थीं।

१८वीं या १९वीं शताब्दी तक, ये सभी विचित्र खाते तर्कसंगत सीमाओं के भीतर थे। उसके बाद, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आगमन के साथ स्थिति बदली। ईस्ट इण्डिया कम्पनी बंगाल के स्वामी बन गए और वे इस बारे में बहुत स्पष्ट थे कि वे भारत में पैसा कमाने के लिए आए थे और सभ्यता को फैलाने के किसी भी अच्छे आशय से नहीं। वास्तव में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रारम्भिक अधिकारी भारतीय प्रथाओं और संस्थानों के लिए सराहना से भरे हुए थे। उनमें से अनेक लोग भारत में ब्रिटिश संस्थानों को लागू करने के विरुद्ध थे। वे समझते थे कि अनेक भारतीय संस्थानों की उपेक्षा हुई थी और उन्हें पुनरुत्थान के लिए बुरी तरह से आवश्यकता थी, विशेष रूप से इस्लामी काल के विनाश के बाद। परन्तु एक ऐसी स्वदेशी प्रणाली होने के कारण, जो स्थिर थी और स्थानीय आबादी द्वारा सरलता से समझी गई थी, उन्हें इसे ब्रिटिश संस्थानों से हटाने के लिए कोई कारण नहीं दिखा। वे केवल धन कमाना और समाज को वैसे चलने देना चाहते थे जैसा यह पहले कर रहा था।

उस समय पर, मिशनरियों को ब्रिटिश क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी और यदि वे आते थे, तो उन्हें अगले जहाज पर तुरन्त वापस भेज दिया जाता था। इसलिए मिशनरियाँ उसके बाद संसद में गए और भारत को मूर्तिपूजकों और बुरे रीति-रिवाजों की एक भूमि, और जहाँ केवल ईसाई धर्म जंगली जानवरों को सभ्य बनाने में सहायता कर सकता था, के रूप में चित्रित किया। मैं चाहता हूँ कि मेरे पाठक यह समझें कि यह दष्टिकोण कि ब्रिटिश द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण ईसाई धर्म के बारे में था, पूरी तरह से असत्य है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी नहीं चाहती थी कि ईसाई मिशनरियाँ आएँ और उनकी नकद की दुधारू गाय के साथ हस्तक्षेप करें। वे नहीं चाहते थे कि मिशनरियाँ आएँ और इस विशाल धन पैदा करने वाली मशीन को बाधित करें, जिसे उन्होंने भारत में बनाया था। इसलिए, वास्तव में, ईस्ट इण्डिया कम्पनी मिशनरियों के विरुद्ध थी। उन दोनों के बीच एक संघर्ष था और, ब्रिटिश संसद में, जो वे विपरीत पक्षों को ले रहे थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी सदैव बहस कर रही थी कि यदि मिशनरियाँ आती हैं, तो वहाँ कोई विद्रोह हो सकता था और यह नकदी के प्रवाह को सम्भवतः बाधित कर सकता था। मिशनरियों को उसके बाद यह तर्क देना पड़ा कि उनकी वहाँ पर आवश्यकता थी क्योंकि भारत के मूर्तिपूजकों में जंगलीपन चल रहा था।

इस प्रकार, उन्होंने पचास हज़ार से एक ला�

About Author: Rajiv Malhotra

Rajiv Malhotra is an Indian–American researcher, writer, speaker and public intellectual on current affairs as they relate to civilizations, cross-cultural encounters, religion and science. Rajiv has conducted original research in a variety of fields and has influenced many other thinkers in India and the West. He has disrupted the mainstream thought process among academic and non-academic intellectuals alike, by providing fresh provocative positions on Dharma and on India.

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